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Magazine - Year 1957 - Version 2

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गौ-रक्षा से ही विश्व में सच्ची शान्ति स्थापित हो सकेगी।

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(श्री श्री निवासदास पोद्दार)

भारत वर्ष में प्राचीन काल में गाय को सबसे बड़ा धन माना जाता था। बाल्मीकि रामायण में लिखा है कि भगवान रामचन्द्रजी ने अनेकों बार करोड़ों गौएं ब्राह्मणों को दान दी थीं। पाँचों पाण्डवों के पास दस हजार गौ-वर्ग थे, जिनमें से प्रत्येक वर्ग 8 लाख गायों का बतलाया जाता है। जन साधारण में भी असंख्य गायें पाली जाती थीं। गर्ग संहिता में लिखा है कि नौ लाख गाय वाला नन्द, दस लाख वाला वृषभानु और एक करोड़ वाला नन्दराज कहलाता था। सिकन्दर यहाँ से एक लाख बढ़िया किस्म की गायें यूनान ले गया था। ये वर्णन इस बात की साक्षी देते हैं कि भारत में असंख्य गोधन था। परन्तु जैसे-जैसे वर्ण और आश्रम की शिक्षा की प्रणाली विकृत होती गई वैसे ही गोवंश का भी ह्रास होने लगा और उसी के साथ हमारे देश की अवस्था भी हीन होती गयी।

यहाँ के साधारण ग्रामीणों को भी गो-पालन सम्बन्धी इतना ज्ञान था, जो आजकल कृषि विद्यालयों में ‘डेयरी-विज्ञान’ की शिक्षा पाने वालों को भी प्राप्त नहीं होता। उस समय इस विषय की स्वतंत्र पुस्तकों या साहित्य की कोई आवश्यकता न थी। वेद, पुराण, आयुर्वेद आदि के महान् ज्ञान को लोगों ने अपने जीवन में उतार रखा था।

हमारे भारतीय ज्ञान-भण्डार में सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों की खोज करके उनका वर्णन सूत्र-वाक्यों में किया गया था, जिससे लोग बिना पुस्तकों का भार लादे हुए समय पर तुरन्त उनका प्रयोग कर सकें। इसी ज्ञान के आधार पर यहाँ गो-वंश की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी, जिसके तत्व को विदेशी विद्वान अभी तक नहीं जान सके हैं। गौ की चरण-धूलि से और गौ के बैठने से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, इस बात का अनुभव अमरीका वाले अब कर रहे हैं। परन्तु गोधूलि-बेला को शुभ कार्यों के लिए क्यों पवित्र माना जाता है, इस बात का रहस्य वे अब नहीं जान सकते हैं, क्योंकि इसका निर्णय निरे भौतिकवाद से नहीं हो सकता, उसके लिये आध्यात्मिक ज्ञान की भी आवश्यकता है। इसका सम्बन्ध त्रिगुणात्मक प्रकृति से है। अगर शास्त्रीय वाक्यों के आधार पर भौतिक विज्ञान वाले गौतत्व की खोज करें तो उससे अनेक चमत्कार युक्त बातें अब भी जानी जा सकती हैं।

भारत में उस समय अरबों गाएं थीं। इस देश में उस समय सोने, चाँदी, हीरा, मोती के भी भण्डार थे, परन्तु अपनी त्याग वृत्ति के कारण भारतीय इनको सर्वोपरि महत्व नहीं देते थे। भारत की अतिथि सेवा देखकर विश्व चकित रह जाता था। ये सब गुण कहाँ से आते थे? गम्भीर विचार करने से इसका यही उत्तर मिलता है कि जब विश्व माता, सत्वगुण की भंडार हमारी गौएं परम सुखी थीं, जब उनके प्रेमपूर्वक किये गये हुँकार से ऊँकार का उच्चारण होता था, तो उसके फल से इस देश की प्रकृति भी सत्वगुण-प्रधान बन जाती थी और उससे समस्त भौतिक कार्यों, पदार्थों और मानव बुद्धि में भी सात्विक गुण का समावेश हो जाता था। यज्ञों में तरह-तरह की प्रभावशाली औषधियों, विभिन्न अन्न और गोघृत की वेद मन्त्रों से युक्त आहुतियाँ दी जाने के कारण समस्त वातावरण पवित्र होता था, दैवी शक्तियाँ संतुष्ट और परिपुष्ट होती थीं। फलस्वरूप सहज ही अनिष्ट का विनाश होकर विश्वकल्याण हुआ करता था। तब से यह ज्ञान हमारी दृष्टि से ओझल हो गया, यज्ञों में हवन सामग्री और गोघृत की आहुति देना अंधविश्वास समझा जाने लगा तब से विनाश लीला आरम्भ हो गई। यज्ञ के अन्य भी कई अंग हैं, पर मुख्यतः विराट् रूप गौ भगवती ही सत्त्वगुण की भंडार हैं। इसीलिये शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है- “यतो गावस्ततो वयम्-यद् गृहे दुःखिता गावः स याति नरकं नरः”। आज के भौतिक विज्ञान वाले यदि श्रद्धा के साथ हमारे शास्त्रों के सूत्र वाक्यों का अपनी पद्धति से अनुसंधान करके देखें तो वे गौ के सत्वगुणी और तमोगुणी परमाणुओं का ज्ञान किसी हद तक प्राप्त कर सकते हैं। गौ का पृथ्वी से, सूर्य रश्मियों से, पंचभूतों से, त्रिगुणात्मिका प्रकृति से निकट सम्बन्ध है, इसी से भारत आध्यात्म-ज्ञान के लिये सदा से विश्व का गुरु रहा है और आगे भी रहेगा।

भारत में जब असंख्य गौएँ थीं, तब गौ-पालन का उत्कृष्ट ज्ञान भी छोटे-बड़े सबको बिना पढ़े-लिखे ही प्राप्त था। पुस्तक ज्ञान की अपेक्षा कहीं अधिक ज्ञान कार्यरूप से प्राप्त होता है। परन्तु भौतिक विज्ञान की सदोष उन्नति से आज के मनुष्य आध्यात्म ज्ञान से मुख मोड़कर वासनाओं के दास बन गये हैं। वे कल कारखानों में काम करते हुये स्वयं जड़, कलपुर्जों की तरह बन गये हैं। जैसा भ्रमर-कीट के उदाहरण से सिद्ध होता है, वैसे ही मनुष्य चौबीस घंटे जिस विचारधारा में बहता है, वैसा ही बन जाता है। आज यही बात हमारे सामने प्रत्यक्ष मौजूद है। भोग्य वस्तुओं की बाढ़ ने हमारी वासनाओं को बढ़ा दिया। हम गौ को भूल गये। गौ के तात्त्विक रहस्य हमारी निगाह से ओझल हो गये। इससे कृषि दूषित हो गयी। पशु, पौधे और भूमि के मेल से जो विशेषताएं उत्पन्न होती हैं वे लुप्त हो गई। विचार किया जाय तो मनुष्य का स्वास्थ्य तथा पशु-पौधे और मिट्टी का स्वास्थ्य अलग-अलग नहीं है। इसके लिये प्राकृतिक नियम यह है कि प्रत्येक जीव या पदार्थ को उसकी ‘मृत्यु’ के बाद बेकार न समझकर मिट्टी में ही लौटा दिया जाय, जिससे वह फिर सजीव हो जाय। यह जीवन का पहला नियम है जो उसे पूर्णता और स्वस्थता प्रदान करता है। यही उपनिषदों का शाश्वत ज्ञान है, जिसे आज भारत भूल-सा गया है और जिसके सिद्धान्तों का कुछ अंशों में अनुकरण करके अनेकों विदेशी सम्पन्न हो रहे हैं।

अब आवश्यकता है कि भारतवासी शास्त्र पद्धति से खेती, गौपालन तथा गौ चिकित्सा आरम्भ कर दें। साथ ही गौ-साहित्य संग्रह करके उसके प्रकाशन और प्रचार का सफल प्रयत्न करें। गौ-विज्ञान के महत्व का पुनः विचार हो, लोगों को भूला हुआ मार्ग पुनः दिखाया जावे। लोग समझ सकें कि गौ विश्वमाता है। गौ के विश्वरूप वर्णन में वेदों ने गौ के अंग-प्रत्यंग में विभिन्न देवताओं का निवास क्यों माना है- चौरासी लक्ष योनियों में से एक-मात्र गौ के शरीर में ही इस प्रकार की महत्ता क्यों बतलायी गयी है? इसी तरह गोबर और गौमूत्र को परम पावन क्यों माना है? गोबर तथा गौमूत्र को देव पूजन, श्राद्ध, हवन आदि धार्मिक कृत्यों में भी पवित्रता के लिये अनिवार्य बतलाया गया है। ये सब रहस्य गौ-पालन का कार्य वास्तविक रूप में करने से ही समझे जा सकेंगे।

कलियुग के प्रभाव से गौ आज दुखी है। गोरक्षा के परमाणुओं ने उसके श्वासों में आकर समस्त प्रकृति को ही आज दानवी बना दिया है। कलकत्ता हाईकोर्ट के भूतपूर्व चीफ जज श्री उडरफ ने अपने तन्त्र सम्बन्धी ग्रंथ ‘प्रिंसपल्स ऑफ तन्त्राज्’ के पृष्ठ 188 पर लिखा है कि “भारत में गोरक्त गिरे तो तन्त्र-मन्त्र कैसे सफल हो सकते हैं।” श्री उडरफ साहब विदेशी गोमाँसाहारी जाति में उत्पन्न हुये थे। परन्तु पूर्व-जन्म के संस्कार के कारण उन्होंने भारतीय तन्त्र-मन्त्र शास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया। उनको प्रतीत हुआ कि मंत्र विश्व-कल्याण करने वाले हैं, परन्तु गोरक्त गिरना, गौ का दुखी होना उनकी क्रियाओं में परम बाधक है। इसका उनको दृढ़ निश्चय हो सका तभी वे ऐसा लिख सके। अतः गौ को सुखी करने से ही भारत के आध्यात्म-शास्त्र की रक्षा होगी, वैदिक कर्म-उपासना का ज्ञान पनपेगा, जिससे विश्व को सच्चा संरक्षण और शान्ति प्राप्त हो सकेगी।

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