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Magazine - Year 1957 - Version 2

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समय का औषधि रूप

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First 10 12 Last
(डॉक्टर रामचरण महेन्द्र, पी.एच.डी.)

समय एक प्रवाह है। जैसे नदी की धारा लगातार बहती रहती है, उसी प्रकार समय की धारा भी निरन्तर बहती-बदलती रहती है। कुछ मिट्टी मिली हुई गंदली धारा के बाद फिर स्वच्छ पानी बहने लगता है। पानी साफ हो जाता है। चाँदी जैसी धवलता एक बार पुनः दिखाई देती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

सदा न बागी बुलबुल बोले, सदा न बाग बहारै। सदा न राजे राज करिन्दे, सदा न महफिले यारै॥

बाग में सदा बुलबुल नहीं बोलती। अर्थात् मौसम बदलता है, तो बाग में हरियाली के बाद खुश्की आती है। खुश्की के साथ पतझड़ आता है। पतझड़ के बाद फिर वर्षा के साथ चारों ओर हरियाली छा जाती है। बाग की बहार सदा एक-सी नहीं रहती। राजाओं का राज सदा एक-सा नहीं रहता। समय की गति बदलती रहती है। परिवर्तन ही इस जीवन और जगत का नियम है।

समय एक औषधि रूप है। बड़े-बड़े घाव समय की गति से भर जाते हैं।

जब श्री रामचन्द्रजी अयोध्या को छोड़ मय श्री सीताजी और लक्ष्मणजी के जा रहे थे, तब उनकी माताएं कारुणिक विलाप कर रही थीं। राजा दशरथ का बुरा हाल था। अब कैसे जीवन चलेगा? सब प्रजा-जन श्रीराम को बेहद प्रेम करते थे। धीरे-धीरे उनके वन-गमन का समय समीप आया। बल्कल वस्त्र धारण कर वे चले। उनके जाने के वियोग में राजा दशरथ पछाड़ खाकर गिर पड़े। चारों दिशायें चीत्कार कर उठीं। मातायें रोने लगीं, प्रजा-जन भी पागल से प्रभु के साथ-साथ चलने लगे। बहुत दूर तक इसी प्रकार चलते गये। अन्त में बड़ी कठिनता से लौटकर आये। वियोग का आघात बड़ा कठोर था। लेकिन फिर भी समय व्यतीत होता गया। वर्षों बीत गये। समय की गति ने घाव को भर दिया।

गोकुल से जब भगवान श्री कृष्ण मथुरा गये तो गोपियाँ बड़ी दुखी हुईं। उनकी वियोग-व्यथा का वर्णन करते हुए सूर की स्याही आज तक नहीं सूखी है। वह अश्रुधारा आज भी ज्यों की त्यों चल रही है।

लेकिन काल की गति में यह दुख भी बह गया। समय चला जाता है। किसी के लिए नहीं रुकता। रुकना उसके स्वभाव में नहीं है। अच्छा हो, या बुरा, समय की सरिता चलती ही जाती है, अनवरत और अखण्ड।

अथर्व वेद में एक बड़ी उद्बोधक सूक्ति है-

“मा गतानामादीधीथाः” (8-1-8)

अर्थात् गुजरे हुओं के लिए शोक मत करो। संसार की हर वस्तु समय के मुख में है। अवश्यम्भावी के लिए रोना क्या?

आपके जीवन में ऐसे-ऐसे संकट आयेंगे, ऐसे-ऐसे कष्ट पड़ेंगे जब आप समझेंगे कि अब तो अन्त समय आ गया है। बचने का कोई रास्ता नहीं सूझता। हमारे ऊपर जो कष्ट आ पड़ा है, उसका आक्रमण हम कैसे सह सकेंगे! चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देता है! प्रकाश की एक छोटी किरण भी कहीं नहीं दीखती।

फिर भी आप निराश न हों। हिम्मत न हारें। समय वह मृदु मरहम है, जो आपके जख्मों पर दवा लगाकर आपको एक बार फिर स्वस्थ कर देगा। आप अपने पुराने रंज और गम को भूल जायेंगे। आपत्तियाँ दूर हो जायेंगी। हृदय के घाव भर जायेंगे। कंटकाकीर्ण मार्ग से काँटे खुद दूर हो जायेंगे।

दवाओं में सब से बड़ी दवा यह समय ही है। समय के बीतने के साथ-साथ आप अपने कष्टों और विपत्तियों को भी भूल जायेंगे। कठोर क्षण, परिवार की मृत्यु, व्यापार में हानि, परीक्षा में फेल होना, पुत्र-पुत्री वियोग, परमात्मा के अनुग्रह से यह समय भुला देता है। समय सर्वोपरि है। वह हमें ऐसी शक्तियाँ दे देता है, जिससे हमारे मन का भार हल्का हो जाता है। अन्दर के सब दुर्भाव खुद दूर हो जाते हैं।

फारस में एक राजा-राज्य करता था जिसने अपने हस्ताक्षर की अँगूठी पर एक ऐसा स्वर्णिम सूत्र खुदवा रखा था, जो अँगूठी के सामने आते ही उसे एक दृष्टि में शिक्षा दिया करता था। यह सिद्धान्त वाक्य हर प्रकार के परिवर्तन और समय के अनुकूल था। साधारण से शब्दों में यह लिखा गया था। वे अमूल्य शब्द थे- “यह स्थिति भी नहीं रहेगी” अर्थात् इसमें भी परिवर्तन अवश्यम्भावी है।

समय निरन्तर बदलता जाता है। सदा एक-सा नहीं रहता। गति ही जीवन का लक्षण है।

हम न किसी विषम स्थिति में चिन्तित हों न तनिक-सा लाभ होने से फूलकर प्रमाद में नील हो जाएं। अच्छी या बुरी जैसी भी हमारी स्थिति हो, हम उसी को सम्हालें। विषम से विषम स्थिति, आनन्द से आनन्दमय स्थिति में बदलेगी।

“भविष्यद्धा इदमुपजीवामः श्वः श्वः श्रेयान् भवति”

“हम भविष्यत् को ही सामने रखकर जीवन को धारण करते हैं। आगे आने वाला प्रत्येक दिन हमारे लिए एक दूसरे से बढ़-चढ़कर हो।”

मैत्रायणी संहिता (1-5-12) में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई है-

“अहोरात्राणि वावाधं मर्षयन्ति”

“दिन और रात शोकरूपी पाप को दूर करते हैं।”

बुद्धिमानों! मन को दुखी नहीं करना चाहिये। दुःख एक तीव्र विष है। समय स्वयं आपके दुःखों को दूर कर देगा। आपके कष्ट का समय स्वयं बीत जायेगा। जीवन भर जो काले-काले बादल छाये हुए हैं, वे स्वतः हट जायेंगे। चारों ओर आनन्द ही आनन्द छा जायेगा। भविष्य उज्ज्वल है।

हे मानव! छीनता को मत अपना। तेरे भीतर जो धैर्य नामक गुण है, उसे धारण कर।

“दुःखान्तप्रभवं सुखम्” (शा.प. 25-25)

“स्मरण रखिए, दुःख के बाद सुख आया ही करता है।”

इसलिए-

“सुखं वा यदि वा दुःख प्रियं वा यदि वाप्रियम्। प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः॥”

“सुख हो या दुःख, प्रिय हो या अप्रिय, जब-जब आये, तब-तब अपराजित हृदय से ही उसको भोगिये।”

First 10 12 Last


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