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Magazine - Year 1957 - Version 2

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वर्ण व्यवस्था सामाजिक उत्थान के लिए सर्वोत्तम है।

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(श्री बुद्धदेव जी)

भारतीय वर्ण-व्यवस्था की उपयोगिता और श्रेष्ठता को अनेक विद्वान समय-समय पर बड़े स्पष्ट ढंग से बतला चुके हैं। उन्होंने उदाहरणों तथा तर्क द्वारा सिद्ध कर दिया है कि हमारी प्राचीन वर्ण-व्यवस्था उदार वैज्ञानिक सिद्धांतों पर अवलम्बित थी, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-विकास का पूरा अवसर मिलता था। वर्णाश्रम के कारण समाज में किसी प्रकार की विषमता फैलने नहीं पाती थी, जैसा कि इस बीसवीं शताब्दी में चारों ओर दिखाई देती है उसके द्वारा भारतीय समाज ने विश्व -भ्रातृत्व का सिद्धांत अपनाया था। क्या अमीर, क्या विद्वान,क्या मूर्ख सबको उसी परम पुरुष का अंग समझा गया था, इसलिए वे सब भाइयों की तरह थे, एक के दुःख या कष्ट में दूसरे के द्वारा सहायता करना स्वभाविक कर्तव्य माना गया था।

पर आजकल वर्ण व्यवस्था के कई अंशों में विकृत हो जाने से अनेक लोग उस पर आक्षेप करने लगे हैं। कुछ तो यही कहते हैं कि अध्यापक (ब्राह्मण), सिपाही (क्षत्रिय), व्यापारी (वैश्य), मजदूर (शूद्र), तो स्वयमेव हर देश में होते हैं ,इनके सम्बन्ध में किसी प्रकार के प्रचार की क्या आवश्यकता है? ऐसे कहने वाले न तो ‘वर्ण’ को समझते हैं न ‘व्यवस्था’ को। उनका कहना ऐसा ही है कि हाथ-पैर तो सबके स्वयं होते हैं फिर व्यायाम तथा उत्तम भोजन द्वारा उनको पुष्ट और सुडौल बनाने की क्या आवश्यकता है? बीज धरती में पड़कर अनाज पैदा करता ही है, फिर कृषि शास्त्र के अध्ययन की क्या आवश्यकता है? यह लोग इस बात को भूल जाते हैं कि हर एक अध्यापक ब्राह्मण नहीं, हर एक सिपाही क्षत्रिय नहीं, हर एक व्यापारी वैश्व नहीं होता । ब्राह्मण केवल उन अध्यापकों को कह सकते हैं जो केवल जीविका के लिए अध्यापक का कार्य नहीं करते, पर जिनने अध्यापक को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया है और वे उसे धन के बड़े से बड़े प्रलोभन के लिए भी नहीं छोड़ सकते।

इसी प्रकार हर एक सिपाही का नाम क्षत्रिय नहीं, वरन् क्षत्रिय नाम उन लोगों का है, जिन्होंने संसार से अन्याय को मिटाने के लिए अपने प्राण अर्पित करने का व्रत लिया है और किसी भी दशा में उसे छोड़ने को तैयार नहीं हो सकते।

हर एक व्यापारी का नाम वैश्य नहीं है, किन्तु वैश्य वही व्यापारी है जो प्रजा की दरिद्रता को मिटाने के लिए धन कमाते हैं और ब्राह्मण तथा क्षत्रियों को विशेष सम्मान पाते हुए देखकर भी अपने व्रत को छोड़ने को तैयार नहीं।

इस प्रकार के अध्यापक, सिपाही अथवा व्यापारी स्वयं नहीं मिल सकते, किन्तु बचपन से व्रत धारण करके और उसके अनुसार वर्षों तक तैयारी करने पर बड़ी कठिनता से प्राप्त होते हैं।

यहाँ तक तो ‘वर्ण’ के रहस्य पर विचार किया गया, अब ‘व्यवस्था’ के अर्थ को समझिये। आवश्यकता इस बात की है कि समाज में सब से ऊंचा स्थान सत्य और ज्ञान के प्रचारकों को दिया जाए , फिर क्षत्रियों और वैश्यों को। किन्तु इस समय सब से ऊंचा स्थान स्वार्थी व्यापारियों को प्राप्त है, जो समाज के धन को अनेक प्रकार की चालाकियों और कभी-कभी बेईमानी से खींचकर अपनी तिजोरी में बंद कर देते हैं और इस प्रकार समाज की व्यवस्था को बिगाड़ते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस अव्यवस्था को बदलने के लिए समाज को घोर संघर्ष करना पड़ेगा जिसमें शायद लाखों जीवनों का बलिदान कर देना पड़े ।

वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में दूसरा आक्षेप यह किया जाता है कि यदि इन नामों को स्थिर रहने दिया जायेगा तो थोड़े दिनों में फिर वही पुरानी विकृत वर्ण-व्यवस्था का स्थान ग्रहण कर लेगी पर ऐसा विचारना भूल है। जन्म के आधार पर खड़ी होने वाली पुरानी वर्ण-व्यवस्था के प्रति लोगों में विरोध भाव उत्पन्न करने का सबसे अच्छा मार्ग यही है कि सच्ची वर्ण-व्यवस्था को इसके मुकाबले में स्थापित कर दिया जाय। यदि जात-पाँत तोड़कर भी लोग उसी प्रकार सैंकड़ों टुकड़ों में बंटे रहें तो जात-पाँत तोड़ने से लाभ क्या हुआ? नीच जाति में उत्पन्न होकर श्रेष्ठ ब्राह्मण का आदर्श उपस्थित करें एक व्यक्ति झूठी जात-पाँत के विरुद्ध जितनी जोरदार भावना पैदा कर सकता है, वह सैंकड़ों व्याख्यानों से भी नहीं हो सकती। फिर जब लोगों ने जन्म की जात-पाँत की हानियाँ इतनी अच्छी तरह देख ली हैं, तो वे इस गढ़े में फिर नहीं गिर सकते। सच तो यह है कि पुरानी जात-पाँत की रूढ़ियां इसलिए नहीं टूटतीं, क्योंकि पुराने ब्राह्मणों, क्षत्रियों के स्थान पर नये ब्राह्मण और क्षत्रिय नहीं बनाये जाते। उदाहरण के लिए आपके सामने धार्मिक क्रिया कराने वालों के दो वंश हैं। एक में वही पुराने ढर्रे का अनपढ़ पुरोहित जो शुद्ध बोल भी नहीं सकता पुरानी लकीर को पीट रहा है। दूसरी ओर एक सच्चा त्यागी, तपस्वी, विद्वान पुरोहित है (चाहे वह ब्राह्मण कुलोत्पन्न न भी हो ) जो अपनी शक्ति को यजमान के कल्याण में लगा रहा है। तो आपको अपने आप जात-पाँत का झूठा ढोंग करने वाले से विरक्ति हो जायगी। जाली सिक्के का जालीपन पूरी तरह तभी स्पष्ट होगा, जब असली सिक्का सामने रख दिया जाय। इसलिए यह आशंका निर्मूल है कि वर्णों का नाम रहने से पुरानी व जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था हमको फिर आ घेरेगी।

कुछ लोग यह भी कहते हैं कि किसका कौन वर्ण है, इसका निश्चय कैसे हो, जबकि प्रत्येक आदमी को सुबह से शाम तक अनेक तरह के काम करने पड़ते हैं, जो किसी एक वर्ण के नहीं होते, वरन् चारों वर्णों से सम्बन्ध रखते हैं। इस आक्षेप का उत्तर पहले ही दिया जा चुका है कि वर्ण का निर्णय उस व्रत से होगा जिसे प्रत्येक व्यक्ति बाल्यावस्था में ही ले चुका है। जिसने अपनी रुचि के अनुसार या विशेषज्ञ विद्वानों के निर्णय के अनुसार जिस वर्ण के उपयोगी शिक्षा प्राप्त की है वही निश्चित रूप से उसका वर्ण है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी काम में विशेष कौशल प्राप्त कर लेने का अर्थ यह नहीं, कि वह दूसरे कामों को कभी हाथ ही न लगाये। आपत्तिकाल में या राष्ट्र पर आक्रमण होने से सबको क्षत्रिय के कार्य के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इसी प्रकार दुर्भिक्ष आदि किसी आर्थिक संकट के समय सबको वैश्य-कर्म करना पड़े तो कोई हर्ज नहीं। परन्तु विशेष अभ्यास मनुष्य को एक ही कर्म का हो सकता है और वही उसका वर्ण होगा।

अन्त में विरोधियों की ओर से यह कहा जाता है कि वर्ण-व्यवस्था किसी समय अच्छी भी रही होगी, पर अब तो वह बिल्कुल निकम्मी और हानिकारक सिद्ध हो रही हैं पर लोगों ने वास्तविक वर्ण-व्यवस्था को भूलकर यदि उसके स्थान पर कोई अन्यायपूर्ण दुर्व्यवस्था को बदनाम करना अनुचित है। यह सच है कि संपत्ति के बहुत अधिक विषमतापूर्ण विभाजन के कारण इस व्यवस्था में कई बड़े दोष पैदा हो गये हैं, किन्तु जितने लम्बे समय तक इस व्यवस्था ने संसार का कल्याण किया है उतना और किसी व्यवस्था ने नहीं किया और अब भी थोड़े से उद्योग से इसे समाज के लिए कल्याणकारी बनाया जा सकता है।

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