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Magazine - Year 1957 - Version 2

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स्वर्ग और नर्क कल्पनामात्र नहीं हैं।

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(श्री जगतनारायण)

स्वर्ग और नर्क का विश्वास केवल हमारे देश में नहीं पाया जाता, वरन् संसार की सभी सभ्य जातियाँ उसे जानती और मानती हैं। ईसाई और मुसलमान भी स्वर्ग और नर्क के अस्तित्व में पूरा विश्वास रखते हैं। पर इस विषय में लोगों के विचारों में बड़ी भिन्नता देखने में आती है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो इन सब बातों को झूँठी या बनावटी बतलाते हैं। पर जिन लोगों ने इस सम्बन्ध में गहरा विचार किया है और कुछ साधन या अभ्यास करने को प्रस्तुत हैं, वे इनकी सत्यता स्वीकार करते हैं।

पर जो लोग स्वर्ग और नर्क को मानते हैं वे भी अज्ञानता अथवा अन्धविश्वास के कारण मनमानी कल्पनाओं में फँसे रहते हैं। कोई कहता है कि स्वर्ग किसी पहाड़ की चोटी पर या अत्यन्त ऊँचाई पर कोई स्थान है जहाँ मृत्यु के पश्चात् वे ही जीव जाते हैं जिन्होंने संसार में रहकर पुण्य-कार्य किये। इसी प्रकार नर्क पृथ्वी के भीतर नीचे की तहों में कोई अत्यन्त भयंकर स्थान है जहाँ मृत्यु के पश्चात् पापियों को यम के दूत पकड़कर ले जाते हैं और अग्नि तथा पीव आदि के कुण्डों में गिराकर उन्हें घोर यातनायें देते हैं।

यह सच है कि हमारे विश्व में स्वर्ग-नर्क का अस्तित्व सत्य है, पर उनका स्थान तथा स्वरूप कुछ और ही है। वास्तव में ये लोक हमारे पृथ्वी मण्डल में ही पड़े हुए भाग हैं। जिस प्रकार पृथ्वी का वायुमण्डल भूमि की अपेक्षा सूक्ष्म होने के कारण कुछ सौ मील की दूरी तक अधिक फैला हुआ है उसी प्रकार स्वर्ग (स्वर्लोक) और नर्क (भुवर्लोक) और भी सूक्ष्म होने के कारण पृथ्वी से कई लाख मील के अन्तर तक फैले हैं। जिस प्रकार वायु-मण्डल ने समस्त भूमि और जल को आवृत्त कर रखा उसी प्रकार भुवर्लोक ने पृथ्वी और वायु-मण्डल को आवृत्त किया हुआ है और स्वर्लोक ने भुवर्लोक को भी आवृत्त कर रखा है, क्योंकि वह इससे भी अधिक सूक्ष्म है।

अब पहले भुवर्लोक का संक्षेप में हाल सुनिये। मनुष्य के सम्बन्ध में इस लोक के तत्वों का विशेष गुण, भावना, इच्छा अथवा कामना के रूप में प्रकट होता है। इसलिये इसे काम-लोक भी कहते हैं। यहाँ के तत्व या द्रव्यों के ही जरिये इच्छाओं अथवा भिन्न-भिन्न प्रकार के मनोभावों का निर्माण और संचार इस विश्व में होता है।

भूलोक की तरह भुवर्लोक के भी सात उपलोक होते हैं और वे एक दूसरे से उसी प्रकार भिन्न जान पड़ते हैं जैसे हमारी पृथ्वी की तरल वस्तुएं अथवा तरल और वायवीय वस्तुएं एक दूसरे से भिन्न प्रकार की जान पड़ती हैं। अन्तिम दो उपलोक अत्यन्त भद्दी, भयंकर और कुत्सित वासनाओं के स्थान हैं, उनके ऊपर वाले तीन लोक सामान्य वासनाओं के स्थान हैं और सबसे ऊपर वाले दो उपलोक उच्चकोटि की वासनाओं के स्थान हैं।

यहाँ रहने वाले निवासी अपनी- अपनी वासनानुसार भिन्न-भिन्न उपलोकों में स्थान पाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच इसी लोक और भूलोक में केवल एक ही दर्जे का अन्तर है, इसलिए इन दोनों लोकों के प्राणियों में सम्बन्ध आसानी से स्थापित किया जा सकता है।

भुवर्लोक के विषय में योगी लोग बतलाते हैं जब पहले पहल इस लोक का अनुभव प्राप्त होता है तो वहाँ के उज्ज्वल प्रकाश को देखकर मनुष्य चकाचौंध में पड़ जाता है। कारण यह है कि वहाँ का साधारण प्रकाश इतना तेज है कि उसके सामने भूलोक का प्रकाश अन्धेरा-सा प्रतीत होने लगता है। इसीलिये इस लोक का अन्वेषण करते समय लोगों ने इसका नाम दिव्य लोक रख दिया है। पर यह विशेषता केवल इसी लोक की नहीं है। बल्कि जैसे-जैसे ऊपर स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक आदि की तरफ बढ़ा जायगा वहाँ की सामान्य ज्योति के आगे नीचे का लोक अन्धेरा-सा प्रतीत होगा। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। द्रव्य जैसे-जैसे सूक्ष्म होता जायेगा उसमें प्रकाश का परिणाम बढ़ना, अवश्यम्भावी है। भुवर्लोक तो हमारे इतना पास है कि थोड़े ही अभ्यास से मनुष्य वहाँ की ज्योति आदि का अनुभव ले सकता है। हठयोग की कुछ ऐसी विधियाँ हैं जिनसे यह अनुभव बहुत सुगमता से प्राप्त हो जाता है और भोले-भाले सीधे लोग इसी को देखकर मुग्ध हो जाते हैं तथा समझते हैं कि उन्होंने भगवान को पा लिया। वास्तव में यह ऊपर के लोकों की ओर जाने वाले को भलाने का अथवा उनकी परीक्षा लेने का एक प्रलोभन मात्र है।

अब स्वर्ग का कुछ हाल सुनिये। जिस प्रकार भुवर्लोक का उपादान (द्रव्य) ‘वासना’ या ‘कामना’ है उसी प्रकार स्वर्ग का उपादान उससे कहीं अधिक सूक्ष्म तत्व ‘विचार’ है। अर्थात् इसी द्रव्य से विचार बनते हैं और उनका प्रसार होता है। इसी सूक्ष्म द्रव्य से स्वर्ग की समस्त वस्तुओं और प्राणियों का बाहरी स्वरूप निर्मित होता है। इस लोक के प्रकाश और सौंदर्य का वर्णन करना या समझ सकना पृथ्वी के निवासियों के लिए सर्वथा असम्भव है। केवल तुलना के लिये यह कह सकते हैं कि इसके सामने भुवर्लोक की ज्योति अन्धेरी है। रूपों की बनावट, सजावट, मेल तथा सौंदर्य का भी यही हाल है।

इस लोक की यह विशेषता है कि यहाँ के प्राणी शब्दों द्वारा एक दूसरे से बातचीत नहीं करते, बल्कि जो कुछ विचार उनका होता है वह एक विशेष रंग का विशेष रूप धारण कर लेता है। इसे रंगों की भाषा कह सकते हैं। यहाँ के रंगों और रूपों की सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। सम्भव है कि इस लोक की इसी प्रधान विशेषता के कारण हमारे पूर्वजों ने इसका मूल तत्व ‘रूप’ बतलाया था। यहाँ के निवासी देवगण इस प्रकार के रंगों की भाषा में ही बातचीत करते हैं।

इस लोक के भिन्न-भिन्न उपलोकों के निवासी भी अनेक श्रेणियों के हैं। अनेक प्रकार के देवगण दैव सहायक महात्माओं के शिष्य आदि इसके साधारण निवासी हैं। मनुष्य भी जीवित और मृत्यु का वास्तविक स्थान स्वर्लोक का अरूप विभाग है। वहीं से वह नीचे के लोकों का अनुभव प्राप्त करने के निमित्त उतरता है और अनुभव प्राप्त करके फिर वापिस चला जाता है। यह प्रक्रिया ठीक वैसे ही होती है जैसे कोई पथिक यात्रा को जाता है और वहाँ अपना कार्य समाप्त करके पुनः घर वापिस आ जाता है। अन्ततः सिर्फ इतना ही है कि पथिक को साधारणतः इस बात का स्मरण रहता है कि असली निवास-स्थान कहाँ है, पर मनुष्य नीचे उतरने पर अपने असली निवास स्थान को, अपने स्वरूप को भूल जाता है और अपनी यात्रा की भिन्न-भिन्न मंजिलों को ही अपना निवास स्थान समझने लगता है। यदि मनुष्य केवल इस तथ्य को समझ ले तो उसकी जीवन-यात्रा अत्यन्त सुगम और सत्य मार्गानुयायी हो जाय।

प्राचीन समय के लोग भिन्न-भिन्न लोकों और उनके प्राणियों को भली प्रकार जानते थे। उन्हें यह भी मालूम था कि किस प्रकार भिन्न-भिन्न लोकों से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। इसलिये प्राचीन पौराणिक कथाओं में ऐसे वार्तालाप भरे पड़े हैं, जिनमें भिन्न-भिन्न लोकों के प्राणी ठीक उसी प्रकार आपस में मिलते- जुलते, बातचीत करते तथा एक दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते पाये जाते हैं, जैसे हम इस पृथ्वी पर एक दूसरे के साथ करते हैं। आज भी जो इस रहस्य के जानने वाले हैं वे ऐसा ही कर रहे हैं और पारलौकिक सहायता से इस लोक के अनेक दुखी तथा आपत्तिग्रस्त व्यक्तियों को सहायता पहुँचाते रहते हैं। इस प्रकार की शक्ति प्रात करने का मार्ग योग के सिवा जप-तप, देवाराधना आदि भी हैं और इनके द्वारा मनुष्य अलौकिक शक्तियों की कृपा प्राप्त करके तरह-तरह के लाभ उठा सकते हैं।

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