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Magazine - Year 1957 - Version 2

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Language: HINDI
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भारतीय संस्कृति का लक्ष्य निष्काम कर्म ही है।

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(श्री नीलकण्ठदास)

भारतीय संस्कृति के अनुयायी आर्यों का सदा से यह विश्वास रहा है कि संसार का प्रत्येक कार्य विश्व विधाता की प्रेरणा का परिणाम है। विश्व विधाता के इशारे पर ही सृष्टि का संचालन होता है। मनुष्य के प्राणों में कर्म का प्रवाह भी उन्हीं की कृपा से प्रवाहित हो रहा है। मनुष्य का कर्तव्य इतना ही है कि वह इस विश्व-संचालन की प्रक्रिया का एक अंग बन कर चलता रहे। विश्व-तन्त्र के अन्दर प्रत्येक जीव का एक निर्दिष्ट स्थान है। इस विश्व-तन्त्र को चलाते रहने में ही उसका सबसे बड़ा आत्म-लाभ है। विश्व-नियम और विश्व धर्म में उसे जो आस्था, जो विश्वास है, वही आस्था और विश्वास अपने धर्म, अपने कर्तव्य में भी है। इस तरह वह समस्त विश्व में अपना निजत्व देखता है और अपने भीतर समस्त विश्व से एकता का अनुभव करता है। आर्य का इस विश्व-नियम में विश्वास ही उसकी आध्यात्मिकता का प्रबल प्रमाण है, यही उसके हृदय की विस्तीर्णता को प्रकट करता है।

दूसरे को प्रेम करना मनुष्य का धर्म है यह सब मानते हैं। परन्तु दूसरे के लिए आत्मोत्सर्ग कर देने में विरले महाप्राण व्यक्ति ही समर्थ होते हैं। जीवन के यथार्थ स्वरूप को जो जितना अधिक समझ सका है, उतना ही वह दूसरे के दुःख या सुख को अपने भीतर अनुभव कर सकता है। कोई परिवार के लिए ,कोई समाज के लिए, कोई देश के लिए आत्मोत्सर्ग कर कृतार्थ होते हैं और अपने धर्म का पालन करते हैं किन्तु सच्चे आर्य की धार्मिक-धारणा केवल परिवार, समाज, जाति या देश के लिए नहीं होती । वह केवल मानव-जाति के लिए नहीं होती । वरन् आर्य तो सम्पूर्ण सृष्टि को, विश्व-ब्रह्माण्ड को अपना अंग मानता है और उसके लिए आत्मोत्सर्ग करने को प्रस्तुत रहता है।

आर्य में यह धारणा इतनी दृढ़ होती है कि उसके आधार पर वह मृत्यु को तो कुछ महत्व ही नहीं देता। वह यह नहीं मानता कि किसी उद्देश्य से जीवन दान कर देना कोई विशेष आत्मोत्सर्ग का काम है। आध्यात्मिक विचार वाले एक आर्य के समीप मरना विश्व की एक साधारण घटना मात्र है। मरण में आत्मा का उत्सर्ग नहीं होता। जन्म और मरण के बीच मनुष्यात्मा का प्रवाह समान भाव से जारी रहता है। धर्म पर स्थिर रहते हुए कर्तव्य-पालन में देहोत्सर्ग कर देना उन्नत जीवन का एक मार्ग ही है। उसका विश्वास है कि इस जन्म के बाद दूसरा जन्म चलता ही रहेगा। कर्म-फल को भोगने के लिए मनुष्य, जन्तु, वृक्ष यहाँ तक कि जड़ पदार्थ तक सब को एक जीवन-धारा में चलते रहना अनिवार्य है। कर्म-भोग के लिए आत्मा हर कहीं जन्म ले सकता है। कर्म-फल के लिए मनुष्य कीड़ा-मकोड़ा बन जाता है, शूद्र से ब्राह्मण और ब्राह्मण से म्लेच्छ बन जाता है। चैतन्य से जड़ और जड़ से चैतन्य बन जाता है।

संसार अनन्त है। आत्मा सर्वव्यापी है। इस जगत में अनन्तकाल से देह में रहने वाली आत्मा का फल-भोग जारी है। चार्वाक-वादी या असभ्य जातियों की मान्यता की तरह मृत्यु के बाद आत्मा का विनाश नहीं हो जाता और न ईसाई धर्म के मतानुसार इस क्षणस्थायी भौतिक जीवन के बाद अनन्तकाल व्यापी स्वर्ग-सुख या नर्क यन्त्रणा भोगते रहने का विधान है। आर्य-सिद्धान्त के अनुसार कर्म-फल इस संसार में ही भोगना पड़ता है और स्वर्ग तथा नर्क इसी में मौजूद हैं।

आर्य धर्म का अनुयायी एक ही जीवन-सुख या दुःख की चिन्ता नहीं करता। जड़ से चेतन तक, मच्छर से लेकर मनुष्य तक कोई भी योनि उसकी दृष्टि में घृणा की पात्र नहीं है। इसलिए मृत्यु से आर्य को लेशमात्र भी भय नहीं लगता। विश्व-नियंता के राज्य में सब कोई एक परिवार या कुटुम्ब के रूप में है। सब का जीवन अनन्त है। कर्मफल से उसकी उन्नति या पतन होता रहता है। इसलिए एक आर्य-जीवन की क्रिया पर विचार करते समय समस्त विश्व को अपने कर्म में प्रतिबिम्बित देखता है और यह अनुभव करता है कि उसके कार्य से समस्त विश्व पर प्रभाव पड़ता है। इस सृष्टि-व्यवस्था में अपने उचित स्थान को समझना और उसके अनुकूल कर्म करते रहना ही उसका धर्म है। वह अपनी प्रतिकूल क्रिया से विश्व-संचालन की प्रक्रिया में किसी प्रकार की गड़बड़ी पैदा करना नहीं चाहता । उसके लिए विश्व-जनता में कोई छोटा-बड़ा नहीं, कुछ उत्कर्ष-अपकर्ष नहीं, कुछ आदर या घृणा नहीं। सब अपने-अपने स्थान के लिए उपयोगी हैं। हर एक अपना निर्दिष्ट कर्म फल भोग करता है। सर्वत्र एक ही विधान या नीति के अनुसार कार्य चल रहा है, जिसका असली सूत्रधार वही परमात्मा है।

इस प्रकार उदार-प्रकृति आर्य का विश्वास है कि जिस विधान के अनुसार एक मिट्टी का ढेला नीचे गिरता है उसी विधान या उसी न्याय से राजा लोक-पालन का कार्य करता है- ब्राह्मण ज्ञान-चर्या में आत्मोत्सर्ग करता है। क्षत्रिय धर्म-रक्षा के लिए संग्राम करता है। शूद्र सेवा करके कृतार्थ होता है। इस प्रकार हर एक अपने-अपने कर्तव्य में स्थिर रहकर विधाता की मंगलमयी इच्छा को पूरा करता है। सब अपने-अपने धर्म में रहकर जो कार्य करते हैं, वह सृष्टि-संचालन के कार्य का आवश्यक अंग होता है। पर उसी कार्य को यदि स्वतन्त्र मानकर किया जाय तो उसका कोई मूल्य नहीं है। यही आर्य जाति के निष्काम कर्म का स्वरूप है और इसी के लिए भगवद्-गीता में कहा है-

मययर्पित मनो बुद्धिर्यो में भक्तः स में प्रियः।

“जो सब कर्मों में अपना मन और बुद्धि मुझमें अर्पण करता है वही मेरा भक्त है, वही मेरा प्रिय है।”

इसका आशय यह है कि हमारा जो निर्दिष्ट कर्म है वही धर्म है। कर्म सब ही करने होंगे और उनके करने में हमें परमात्मा ने किसी हद तक स्वाधीनता दी है, पर हर समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वे कर्म विधाता के लिए है। विश्व-परिवार के पिता विधाता, जो आदेश करते हैं, मैं वही कर रहा हूँ। मैं अपना कर्म करता हूँ, कर्म का फल कुछ भी क्यों न हो, उससे मुझे क्या? मेरा यह धर्म है, मेरे ऐसे करने से विधाता की इच्छा पूर्ण होगी और तरह-तरह के धर्म-कर्म ढूंढ़ने की मुझे क्या आवश्यकता, क्योंकि मुझे फल की आकाँक्षा ही नहीं है। भगवान ने कहा भी है-

“कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचना”

“मनुष्य को कर्म करने का ही अधिकार है फल का निर्णय करने का नहीं । फल का ख्याल रखकर कर्म करने से स्वधर्म, सत्य धर्म भूल कर अधर्म कर जाने की आशंका रहती है। इस प्रकार की धारणा आर्य का दार्शनिक सिद्धान्त ही नहीं है उसके दैनिक अभ्यास में भी यही देखा जाता है। समस्त विश्व-तन्त्र में वह हमेशा अपने आपको अनुभव करता है और इसी विश्वास से विधाता के लिए कर्म करता है वह सदा अनुभव करता है कि-

“ईशावास्यमिदं सर्वं, यत्किंच जगत्याँ जगत।”

अर्थात् “इस जगत में जो कुछ है सब विधाता, परमात्मा के द्वारा आच्छादित है! मनुष्य, पशु, पक्षी, चर, अचर, सब में वह परमात्मा विराजित रहते हैं।”

आर्य का जगत ईश्वरमय है। यह मानो सदा परमात्मा के आदेश से ही काम करता है, क्योंकि भक्त ईश्वर के आदेश में अपना मंगल देखता है, उसे अहंकार नहीं। वह ईश्वर से भिन्न है, किन्तु किसी भी क्रिया में वह अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखने की इच्छा नहीं करता। आर्य का महा कर्तव्य-उसका धर्म और संयम, आत्म-लाभ का मार्ग है- आर्य ऋषि ने स्पष्ट कहा है-

आत्मानं रथि ने बिद्धिः शरीरं रथ मेवतु

बुद्धिं तु सारथि बिद्धि मनः प्रग्रह येच

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयाँस्तेषु गोचरान्,

आत्मेन्द्रिय मनो युक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः॥

अर्थात् “जैसे रथी, सारथी और अश्व आदि के द्वारा मार्ग पर पहुँचा जाता है, उसी तरह धर्माचरण में आत्मा ही रथी की भाँति है, शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, इन्द्रियाँ अश्व हैं। इनको संयत करके ही मोक्ष अथवा आत्मलाभ किया जा सकता है।”

इस प्रकार आत्म-संयमपूर्वक धर्म करने, कर्तव्य-निष्ठ होने पर आत्म-ज्ञान होता है। इस प्रकार के धर्म-कर्तव्य में प्रतिष्ठित रहकर आर्य विमल स्वाधीनता का उपभोग करता है। चाहे उसमें गुरु के उपदेश या आदेश की लाचारी दिखलाई पड़े लेकिन परिणाम में वह अमृत-समान है।

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