
अगले वर्ष की दो नई जिम्मेदारियाँइन्हें उठाने के लिए हम सबको कटिबद्ध होना है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्रीराम शर्मा आचार्य)
प्रसन्नता की बात यह है कि गायत्री-परिवार के सभी सदस्य ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान को सफल बनाने में लगे हुए हैं। गत नवरात्रि में देश भर में जिस उत्साह से सामूहिक यज्ञानुष्ठान हुए उस प्रगति को देखकर प्रत्येक धर्म-प्रेमी के अन्तःकरण में सन्तोष होना स्वाभाविक है। यह उत्साह माता स्वयं ही साधकों के मन में भर रहीं हैं। कारण यह है कि ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की विशालता इतनी बड़ी है कि सभी परिजन यदि तत्परतापूर्वक अपना कर्तव्य पालन न करें तो इस अभूतपूर्व संकल्प की पूर्ति ही सम्भव नहीं। माता इस महा-अभियान को असफल नहीं रहने देना चाहती, इसलिए जिन उपासकों पर वे सच्चा स्नेह करती हैं उन्हें वे शिथिल, उदासीन, आलस्यग्रस्त एवं उपेक्षावृत्ति का बनने नहीं देतीं। उनके अन्तःकरण में अवश्य ही प्रकाश, प्रेरणा, प्रगति एवं पवित्रता की ज्योति जलाती रहती हैं जिसके उजाले में साधक को अपना कर्तव्य स्पष्ट दिखाई देता रहता है और वह श्रेय-पथ पर जीवन की किसी कठिनाई की परवाह न करता हुआ श्रमपूर्वक आगे बढ़ता चलता है।
इसके विपरीत जिनके ऊपर कुसंस्कारों का भारी दबाव है उनके अन्तःप्रदेश में छिपा हुआ तमोगुण मन में उपेक्षा, उदासीनता, आलस्य और अश्रद्धा भर देता है। फलस्वरूप वे प्रतिदिन दस-पाँच मिनट उपासना में लगाने जैसे सामान्य संकल्प को भी छोड़ बैठते हैं। सामूहिक सत्संग और आयोजनों में जाने का महत्व नहीं समझ पाते और धर्म-फेरी जैसी सच्ची तीर्थ-यात्रा में, सभी प्रदक्षिणा परिक्रमा में अपनी हेठी, तौहीन, बेइज्जती समझते हैं। ऐसी उलटी बुद्धि की प्रधानता मनुष्य की आत्मिक हीनावस्था एवं प्रगति अवरुद्धता का चिन्ह है। समझना चाहिये माता ने इनकी आन्तरिक गन्दगी देखकर अपनी शरण में नहीं लिया। जिसे वे प्यार करती हैं उसे और कोई वस्तु चाहे दें चाहे न दें पर एक चीज निश्चित रूप से देती हैं- सन्मार्ग की प्रेरणा। यह दैवी प्रेरणा जिसे प्राप्त होती है वह सत्कर्म करने में, श्रेय-पथ पर चलने में कभी आलस्य एवं उपेक्षा नहीं करता। गायत्री-परिवार के अधिक सदस्य ऐसे ही है जिन्हें प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त है। गत नवरात्रि में विभिन्न स्थानों पर हुए सामूहिक आयोजनों ने यह बात भली प्रकार सिद्ध कर दी है। कुछ ऐसे भी सदस्य हैं जो मनोभूमि बहुत नीची होते हुए भी किसी उत्साह में सदस्यता-फार्म भर बैठे हैं और अब प्रतिदिन कुछ मिनट साधना में लगाने की बात सामने आती है तो उस संकल्प से पीछे हटते हैं। यह कूड़ा-करकट धीरे-धीरे निकलता जा रहा है। नैष्ठिक साधकों की, आध्यात्म-प्रेमियों की सेवा-शृंखला के द्वारा ही ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान जैसे महान कार्यों की पूर्ति में कुछ योग मिलने की आशा भी की जा सकती है।
ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान अपने प्रारम्भिक एवं माध्यमिक स्तर को पूरा कर चुका, अब उसका उच्चतर स्तर सन् 1958 से प्रारम्भ होता है। गत वर्ष सन 57 के आरम्भ में प्रतिदिन केवल 24 लक्ष जप एवं 24 हजार आहुति करने का संकल्प था। अगले दो स्तर उस समय प्रकट नहीं किये थे ताकि कार्य की अत्यधिक विशालता को देखकर लोग घबरा न जावें दूसरी बात यह भी थी कि आरम्भ में गायत्री- उपासकों का संगठन भी छोटा ही था इसलिये बहुत बड़ा संकल्प उस स्थिति में पूरा होना सम्भव भी न था प्रथम स्तर के उस संकल्प की पूर्ति गत गायत्री जयन्ती तक हो गई। इसके बाद दूसरा स्तर प्रारम्भ हुआ। अब सवा करोड़ जप एवं सवा लक्ष आहुति का दूसरा स्तर चल रहा है। इसकी पूर्ति लगभग पूर्ण हो चली है। अब तीसरा स्तर 1 जनवरी सन 58 तदनुसार पौष सुदी 11 सं. 2014 से प्रारम्भ होता है। इसमें 24 करोड़ जप एवं 24 लक्ष आहुतियाँ नित्य होती हैं। 24 लक्ष पाठ और लेखन भी साथ-साथ चलना है। यह कार्य अब की अपेक्षा बीस गुना अधिक भारी है। इसलिये इसकी पूर्ति के लिए बीस गुना प्रयत्न भी करना होगा। इसके लिए समय और शक्ति हर सच्चे गायत्री उपासक को लगानी पड़ेगी। अधूरे श्रम और ढीले प्रयत्नों से संकल्प की पूर्ति न हो सकेगी। इसके लिए समुचित त्याग भावना और कर्तव्य परायणता का परिचय उपासकों को देना होगा।
हम अनेक बार कह चुके हैं कि यह समय व्यक्तिगत लाभ कमाने का नहीं है। जो लोग इस असुरता से तमसाच्छन्न वातावरण में स्वर्ग और मुक्ति का लक्ष पूर्ण करने की बात सोचते हैं वे भारी गलती पर हैं। इन दिनों सूक्ष्म वायु-मण्डल इतना विषाक्त है कि आत्मा का परमात्मा में तन्मय होकर समाधि सुख का रसास्वादन तो दूर, साधारण रीति से चित्त का एकाग्र होना, भजन में मन लगाना भी कठिन है। यही बात ऋद्धि-सिद्धियों के सम्बन्ध में है। अन्न, जल, आहार, विहार, विचार एवं समुचित साधनों के बिना ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ भी नहीं आ सकती। इस प्रकार इन तीनों वैयक्तिक आत्म-लाभ की दृष्टि से साधना रत मनुष्य अभीष्ट उद्देश्य प्राप्त नहीं कर सकते। धन, सन्तान आदि बढ़ाने का जिन्हें लोभ है, या जो ऐसे ही लौकिक लाभों के लिए जप-तप करते हैं वे भी भूलते हैं कि यदि आगामी विकट समय अपनी घनघोर घटाओं के साथ बरस पड़ा तो संचित धन-सम्पत्ति धूलि-मिट्टी से भी गई बीती व्यर्थ की चीज बन जायेगी। दूसरे आगामी युग समता का आ रहा है। रोटी कपड़ा और जीवन की आवश्यक वस्तुओं के उपभोग के अतिरिक्त व्यक्तिगत धन-संग्रह की कोई गुँजाइश न रहेगी। ऐसी दशा में धन बढ़ाने के लिए यह मूल्यवान क्षण बर्बाद करना बेकार ही है।
जो लोग पूजा, उपासना, साधना, जप, तप, धर्म एवं आध्यात्म की शक्ति एवं उपयोगिता पर विश्वास करते हैं उनके लिए इस समय की सर्वोत्तम साधना यही हो सकती है कि अन्तरिक्ष में फैले हुए विषाक्त आसुरी वातावरण को शान्त करने एवं दिव्य विचारधारा को फैलाने के लिए धर्म-प्रसार की साधना में लग जावें। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान में साधना और लोक शिक्षा दोनों ही कार्य-क्रम सन्निहित हैं। इस साधना में स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही एक साथ सधते हैं। इस श्रेय पथ पर अनेक व्यक्तियों को लगाते हुए सूक्ष्म वातावरण को शुद्ध करने की अनुष्ठानात्मक प्रक्रिया से संसार की जड़-चेतन आत्माओं पर छाई हुई विपत्ति घटती है, इस परमार्थ से असंख्यों का अन्धकारमय भविष्य प्रकाशवान बनता है। ऐसे शुभ कार्य में संलग्न होना इतना बड़ा परमार्थ है कि उसका कर्त्ता भारी पुण्य फल का अधिकारी हो जाता है। यह पुण्य फल किसी भी बड़े से बड़े, व्यक्तिगत लाभ के लिए किये गये जप-तप से रत्ती भर भी कम नहीं बैठता। इस प्रकार केवल व्यक्तिगत भौतिक या आध्यात्मिक लाभ के लिए की हुई साधना की अपेक्षा इस सामूहिक ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान में स्व-पर कल्याण का दूना लाभ है। वातावरण की प्रतिकूलता से जहाँ व्यक्तिगत साधनाओं की सफलता संदिग्ध है वहाँ विश्वशान्ति की सामूहिक साधनाओं की सफलता भी सुनिश्चित है।
हर गायत्री-उपासक से, आध्यात्म-प्रेमी से हमारा आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि विश्वशान्ति की अमृत निर्झरणी लाने और संसार के अन्धकारमय भविष्य को आशामय प्रकाश में बदल देने के इस कार्य-क्रम में अपनी शक्ति को अब की अपेक्षा कुछ और भी अधिक लगाना शुरू कर दें। सन् 57 का कार्यक्रम लगभग पूरा हो चला। अब सन् 58 का कार्यक्रम हाथ में लेना है। इस वर्ष (1) अधिक गायत्री सदस्य बनाने, (2) नई शाखायें बनाने, (3) वर्तमान सदस्यों के पास जा-जाकर उनके आलस्य एवं अवसाद को दूर करने, (4) साप्ताहिक सत्संगों की शिथिलता दूर करके उसमें सदस्यों को बुला-बुलाकर लाने, (5) छोटे-बड़े सामूहिक आयोजन, यज्ञ-सम्मेलन, उत्सव आदि करते रहने, (6) इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने जैसे और दो-चार उत्साही व्यक्ति साथ लेकर प्रचार के लिए धर्म-फेरी करने जाने आदि के कार्यक्रम उत्साहपूर्वक चलते रहने चाहिये। गत वर्ष भी यह कार्यक्रम थे, इस वर्ष उनमें अधिक उत्साह एवं तत्परता दिखाई जानी चाहिये। शाखा-संचालकों का विशेष रूप से कर्तव्य है कि वे पंगु धर्म को कन्धा देकर शिथिल सदस्यों को सक्रिय बनायें।
इस वर्ष सन् 58 में दो नये विशेष कार्यक्रम सामने रखने हैं। (1) ब्रह्म भोज, (2) संरक्षण। छोटे-छोटे शुभ कार्यों के अन्त में ब्रह्म भोज कराने की प्रथा भारत के धार्मिक जगत में सनातन काल से चली आती है। इतना बड़ा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान बिना ब्रह्म-भोज के पूरा नहीं हो सकता, प्राचीन काल में ज्ञान प्रसार, धर्म-शिक्षा का कार्य ब्राह्मण करते थे। उस समय पुस्तकें, प्रेस, पत्रिका, पत्र-व्यवहार आदि के साधन न थे अतएव वह कार्य धर्म-प्रचारक ब्राह्मणों द्वारा होता था। जनता को सन्मार्ग पर लाने और संसार में धार्मिकता स्थिर रखने का कार्य, ब्राह्मण लोग अपने उज्ज्वल चरित्र, आदर्श, त्याग एवं अन्तरात्मा से निकले हुए विवेकपूर्ण प्रवचनों के द्वारा सम्पन्न करते थे। अब वह कार्य ब्राह्मणों ने लगभग छोड़ दिया है। आजीविका को प्रधान माध्यम मानकर कुछ ब्राह्मण कथा-वार्ता, संस्कार, कर्मकाण्ड, पूजा, अनुष्ठान आदि करते-कराते हैं, उसमें वैश्य वृत्ति ही प्रधान रहती है। परम निस्वार्थ एवं निर्लोभ भाव से अपना पवित्र कर्तव्य मानकर जो निरन्तर धर्म-प्रचार में लगा रहता है, और परिग्रह छोड़कर जो अपनी आजीविका पूर्णतया जनता की इच्छा पर छोड़ देता है वही ब्राह्मण है। पूर्णकाल में ऐसे ब्राह्मण धर्म के प्राण माने जाते थे। उन्हें भोजन, वस्त्र, पात्र तथा आवश्यक खर्च के लिए दक्षिणा देकर जनता अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय देती थी। “ब्रह्म-भोज” का सामान्य रूप “ब्राह्मण-भोजन” बन गया था। सचमुच उस काल के ब्राह्मण ब्रह्म स्वरूप ही थे। उन्हें भोजन कराना ईश्वर को भोजन कराने के सदृश ही पुण्य फलदायक था।
आज वैसे ब्राह्मण ढूंढ़े नहीं मिलते, देश भर में उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक मिलेगी। जो ब्राह्मण-कर्म को एक व्यवसाय के रूप में करते हैं या जो केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने मात्र के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं, उन्हें भोजन कराने से किसी आध्यात्मिक, धार्मिक या परमार्थिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। ऐसी दशा में हमें ब्रह्म-भोज के तत्व ज्ञान को समझकर विवेकपूर्वक इस मार्ग पर अग्रसर होना होगा। ज्ञानदान-ब्रह्मदान ही आज सच्चा ब्रह्म-भोज है। अन्न-दान से ब्रह्मदान का पुण्य हजार गुना माना गया है। भोजन कराने से कुछ घंटे भूख शान्त होती है, लेकिन थोड़ी ही देर में वह भोजन टट्टी बनकर निकल जाता है। परन्तु ज्ञानदान ब्रह्म-दान द्वारा आत्मा को जो अमृत पिलाया गया उसकी एक बूँद भी भली प्रकार पड़ जाय तो वह सीप में स्वाति बूँद पड़ने की तरह बहुमूल्य मोती बन जाने का उदाहरण सामने आ जाता है। कार्य किसी समय में ब्राह्मण का मुख करता वही कार्य इस युग में सत्साहित्य के द्वारा पूर्ण होता है। तपोभूमि द्वारा गायत्री साहित्य के निर्माण का ही यह प्रभाव है कि इतना बड़ा ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान चल रहा है और सारे भारतवर्ष में वेद जननी का जय जयकार हो रहा है। यह कार्य उस समय हजार दो हजार ब्राह्मण मिलकर भी कठिनाई से कर सकते थे। इन दिनों किसी को यदि सच्चा ब्रह्मास्त्र करना है तो वह सत्साहित्य द्वारा ही संभव है। वे ही साधन ब्राह्मणत्व के प्रतीक हैं, जो जनता में धार्मिक मनोवृत्ति पैदा करते हैं। ऐसे साधनों सत्साहित्य का प्रसार सर्वश्रेष्ठ उपाय है, यही इस युग का सच्चा ब्रह्म-भोज माना जा सकता है।
गत वर्ष ब्रह्म-भोज के लिए एक छोटी साधना गायत्री चालीसा वितरण था। यह बहुत ही अच्छा उपाय था कि केवल मात्र 6 रु. में 240 गायत्री चालीसा प्राप्त करके धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों में वितरण किये जाएं और यदि वे लोग निरन्तर पाठ करना दूर केवल एक बार ही पढ़कर फेंक दें और 240 पाठ कर लें तो भी वितरणकर्ता को 240 पाठ का एक अनुष्ठान कराने का पुण्य फल प्राप्त होता। यदि कहीं उन चालीसा प्राप्त करने वालों में से आधे-चौथाई भी नियमित पाठ करने लगें तो उस पुण्य का एक भाग उन्हें निरन्तर प्राप्त होता रहे। शुभ और अशुभ कार्य के लिए प्रेरणा देकर किसी को भले-बुरे मार्ग पर चला देने से उस प्रेरणा देने वाले को, उस कर्म पथिक के पुण्य-पाप का दसवां भाग प्राप्त होता है। शिष्य के, यजमान के पुण्य-पाप का दसवां अंश पुरोहित या यजमान को प्राप्त होता है, क्योंकि अन्तःकरण जो किसी कार्य का मूल हेतु है, जहाँ से आती है वस्तुतः श्रेय उसी का है। शरीर तो कार्य भर करता है, उसे करने की उमंग तो भीतर से ही आती है, उस उमंग को जो पैदा करता है वस्तुतः श्रेयाधिकारी वही है। पूर्व काल में सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले ब्राह्मणों को सबसे बड़े पुण्यात्मा-भूलोक के दाता-भूसुर इसी कारण समझा जाता था।
अब उस मूर्च्छित ब्राह्मण परम्परा को पुनः जीवित जागृत करने का कार्य-हजारों वर्षों से भूखे ब्राह्मणत्व को विवेकपूर्ण भोजन कराने का कार्य गायत्री-परिवार को करना है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के अंतर्गत इस कार्य की महत्वपूर्ण पूर्ति इस वर्ष सन 58 में हम लोगों को करनी है। करना यह है कि इस वर्ष हम सभी गायत्री परिजन प्रत्येक रविवार को उपवास करेंगे। उस उपवास से बचा हुआ परम विवेक धर्म-श्रद्धा मिश्रित अन्न ब्रह्म-भोज में लगाकर सन् 58 के 52 रविवारों के उपवास का व्रत हम सभी परिजनों को लेना है। उस दिन फलाहार, दूध, बिना नमक का भोजन कुछ ग्रहण करें न करें यह अपनी श्रद्धा का विषय है पर यह अनिवार्य होना चाहिये कि जितने मूल्य का भोजन साधारण दिनों में करते हैं, उतने पैसे ब्रह्म-भोज के लिए निकाल लिये जाएं। यह पैसे भोजन की अपेक्षा अधिकतम चाहे जितने हो सकते हैं, इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है वरन् शुभ कार्य में अधिक योग के लिए प्रसन्नता होती है, पर वह पैसे एक दिन के भोजन के मूल्य की अपेक्षा कम न होने चाहिए।
यह उपवास द्वारा पेट काटकर बचाया हुआ परम श्रद्धा सम्मिश्रित अन्न ही ब्रह्म-भोज के लिए उपयुक्त हो सकता है। कुधान्य खाकर ब्राह्मण की आत्मा मर जाती है, इसलिये उसे सात्विक और श्रद्धान्वित श्रम उपार्जित धान्य खिलाने का ही शास्त्रों में विधान है। आज तो केवल छूतछात की रूढ़िमात्र पुज रही है। प्राचीन काल में ब्राह्मण कुधान्य, असात्विक भोजन से बचने के लिए स्वपाकी होते थे- भोजन करने से पूर्व उस अन्न की बहुत जाँच-पड़ताल करते थे। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के ब्रह्म-भोज में मिठाई पकवान नहीं-साधक के भूखे रहकर बचाये हुए अन्न के दाने उपेक्षित हैं।
हर साधक इन पैसों को बचाकर बहुत संभाल कर रखेगा। इनका उपयोग गायत्री माता और यज्ञ पिता के लुप्तप्राय ज्ञान और सम्मान को पुनर्जीवित करने में करेगा। इन्हीं पैसों से अनेक आत्माओं को स्वर्गीय तत्व ज्ञान का रसास्वादन करने का दिव्य प्रसाद वितरण किया जायेगा। तपोभूमि द्वारा अखंड-ज्योति का एक “ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान अंक” छापा जायेगा, जो दो वर्ष पूर्व छपे गायत्री ज्ञानाँक की तरह होगा। इसकी लागत तीन आने से कम न आवेगी। इन अंकों को कम से कम 24 की संख्या में हर उपासक को वितरण करना है। दूर-दूर प्रदेशों में अपने स्वजन, सम्बन्धी, प्रेमी, परिजन, मित्र, शुभेच्छु जिनके कल्याण की कामना हो, उन तक यह अंक पहुँचाना है। इस प्रकार 24 आत्माओं में ब्राह्मणत्व जागृत करने का सद्ज्ञान के अभाव में गायत्री-उपासना से विमुख आत्माओं को उद्बोधन-दिव्य प्रसाद देने का ब्रह्म-भोज निश्चित रूप से अत्यन्त ही महान पुण्य होगा। यदि इन 24 ‘ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान अंक’ का प्रसाद ग्रहण करने वालों में से एक भी व्यक्ति साधना-पथ पर अग्रसर हुआ तो उस वितरणकर्ता दानी का पुण्य-हजार मनुष्यों को लड्डू, कचौड़ी खिलाने की अपेक्षा निश्चित रूप से कहीं अधिक हो गया।
दूसरा कार्य इसी उपवास अर्जित अन्न से यह होगा कि वह उपासक अपने घर में एक गायत्री ज्ञान मन्दिर स्थापित करेगा। इन 52 सप्ताहों में 52 पुस्तकें गायत्री ज्ञान सम्बन्धी तपोभूमि छाप रही है। इनका मूल्य लागत मात्र चार आना प्रति पुस्तक होगा। 52 सप्ताहों में 52 पुस्तकों का एक सर्वांगपूर्ण गायत्री पुस्तकालय घर में बन जायेगा। वह देवालय जिनमें हजारों रुपया लगते हैं और केवल देवता की मूर्ति स्थापित होती है, इस गायत्री ज्ञान से परिपूर्ण ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। इन अत्यन्त सस्ती, परम सुन्दर, चित्ताकर्षक टाइटल समेत छपी लागत मात्र मूल्य की पुस्तकों को खरीदने में चार आना प्रति सप्ताह के हिसाब से केवल मात्र 13) लगेंगे। पर उनके द्वारा चिरकाल तक घर भर के, पड़ोस के तथा सम्बन्ध रिश्तेदारी के अनेक लोग लाभ उठाते रहेंगे। इन पुस्तकों को मंगाकर घर में रख लेने से ही काम न चलेगा-उस उपवासकर्ता तपस्वी- ज्ञान मन्दिर-निर्माता को ऐसे व्यक्ति भी ढूंढ़ने पड़ेंगे जो उस साहित्य को बिना मूल्य पढ़ने के लिए तैयार हो जावें।
उपवास अर्जित अन्न से नव-निर्माण गायत्री साहित्य खरीद लेने की प्रक्रिया ‘ब्रह्म-दान’ तो हो गई पर ‘ब्रह्म-भोज’ नहीं हुई। ‘ब्रह्म-भोज’ उसकी संज्ञा उस समय होगी, जब उस साहित्य को लोगों के मस्तिष्कों में प्रवेश करा दिया जायेगा। यह अश्रद्धा का युग है। इसमें लोग आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-कल्याण की बात सुनना पसन्द नहीं करते। वासना और तृष्णा से किसी को इधर ध्यान देने की फुरसत नहीं। ऐसी अश्रद्धा एवं अज्ञानता भरी परिस्थितियों में किसी की रुचि ऐसा साहित्य पढ़ने के लिये तैयार कर लेना साधारण नहीं असाधारण काम है। जिन्हें अपने यहाँ गायत्री ज्ञान मन्दिर-गायत्री पुस्तकालय बनाना हो, उनका कर्तव्य है कि अपने आस-पास ऐसे लोग ढूंढ़ें जो किसी प्रकार उस साहित्य को पढ़ने को तैयार हो जावें। कुनैन की कड़वी गोली खिलाकर दुःख दूर करने वाली शुभ-चिन्तक माता को जिस प्रकार कुनैन खिलाते समय अज्ञानी बालकों की खुशामद करनी पड़ती है- बहकाना-फुसलाना पड़ता है, लगभग वैसा ही काम गायत्री ज्ञान मन्दिर के संस्थापकों का अपने मित्रों को इस साहित्य को पढ़ने के लिए तैयार करने का भी है। संकल्पित एक वर्ष में- सन् 58 के बारह महीनों में कम से कम 12 व्यक्ति आसानी से ढूंढ़े जा सकते हैं। उनके यहाँ जाकर इन पुस्तकों का महत्व समझाकर एक पुस्तक पढ़ने के लिए देकर, पढ़ लें तब उनके यहाँ से वापिस लेने जाकर-साप्ताहिक छुट्टी के दिन उसे आपसी विचार-विनिमय सत्संग के लिए आमंत्रित कर-निरन्तर यह प्रयत्न करना चाहिए कि उस व्यक्ति पर कुछ आध्यात्मिक प्रभाव पड़े, उसकी आत्मा में केवल क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, शूद्रत्व ही प्रबल न रहे वरन् ब्राह्मणत्व भी जागृत हो।
गायत्री ज्ञान मन्दिर को- चार आने वाली नवनिर्मित 52 पुस्तकों को- एक प्रकार से ब्रह्म विद्यालय का पाठ्य-क्रम कहा जा सकता है। सह ब्रह्म विद्यालय भले ही एक बड़ी इमारत में न हों-भले ही एक जगह हजारों लड़के लाइन-लाइन पढ़ते दिखाई न दें- भले ही वेतन भोगी अनेकों प्रोफेसर इसमें नियुक्त न हों, पर इसके द्वारा जो कार्य होने वाला है उस राष्ट्र और संस्कृति की काया पलट करने वाला ही सिद्ध होगा। उपवास से बचाने वाला तपस्वी, अपने घर में उस अन्न से गायत्री ज्ञान मन्दिर स्थापित करके, अपना बहुमूल्य समय लोगों को उस साहित्य को पढ़ने के लिए तत्पर करने में खर्च करेगा तो उसे ब्रह्म विद्यालय का अध्यापक-उपाध्याय कहना सर्वथा उपयुक्त ही होगा। वे सभी उपवासकर्ता तपस्वी जो ज्ञान मन्दिर स्थापित करने और प्रतिदिन थोड़ा समय उस साहित्य को किसी को पढ़ाने के लिए लगावेंगे तो वह कार्य देखने में कितना ही छोटा क्यों न दीखे, वस्तुतः प्राचीनकाल के धर्म प्रचारक ब्राह्मणों, उपाध्यायों जैसा ही होगा। गायत्री परिवार के सदस्यों को अब यह कार्यभार अपने कन्धे पर उठाना होगा और लाखों-करोड़ों नर-नारियों को गायत्री माता, यज्ञ पिता की महत्ता से परिचित कराके उन्हें उस सत्कर्म में प्रवृत्त करना होगा, जिससे उनका- समस्त समाज का-सारे संसार का- विश्व ब्रह्माण्ड का कल्याण हो। विश्व-शान्ति का यही मार्ग है। ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के अंतर्गत 24 लक्ष आत्माओं को ब्रह्म-भोज कराना है, वह (1) गायत्री ज्ञान मन्दिरों के आधार पर चलने वाले ब्रह्म विद्यालयों द्वारा (2) अखण्ड-ज्योति के ‘ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान अंक’ के वितरण द्वारा ही पूरा होगा। जिस प्रकार आवश्यकता पड़ने पर-शत्रु का आक्रमण होने पर देश के हर समर्थ पुरुष को सैनिक बनना होता है। उसी प्रकार इस समय व्यापक अधार्मिकता से लड़ने के लिए हम सबको ब्रह्म कर्म में प्रवृत्त होना होगा।
सन् 58 के दो विशेष कार्यक्रमों में एक कार्य ‘ब्रह्म-भोज’ और दूसरा ‘संरक्षण’ है। त्रिकालदर्शी परम तपस्वी, चिरकाल से प्रचंड तपस्या में संलग्न महात्मा श्री विशुद्धानन्द जी महाराज के भेजे हुए सन्देश का साराँश इसी अंक में अन्यत्र छपा है। उनका एक-एक शब्द तथ्यपूर्ण है। इतना विशाल एवं प्रचण्ड अनुष्ठान इस युग में दूसरा नहीं हुआ, इसकी प्रतिक्रिया अवश्य होगी, असुरता, प्रत्याक्रमण न करे ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की तथा उसके संचालक व्यक्तियों की सुरक्षा का ध्यान रखा जाना आवश्यक है। गफलत में रहने से असुरता का कोई आक्रमण सब किये कराये को चौपट कर सकता है। हमें अपनी उतनी चिन्ता नहीं है, जितनी संकल्पित लक्ष की पूर्ति की है। सन 58 में 1 माला प्रतिदिन इस सुरक्षा के लिए प्रत्येक साधक को अधिक बढ़ा देनी चाहिये, जिससे आवश्यकता पड़ने पर एक की जगह सहस्रों दिखाई पड़ें। तभी हमारी आत्मा को अपने परिवार की सच्ची आत्मीयता का सन्तोष प्राप्त होगा। दोनों ही कार्य-ब्रह्म-भोज और संरक्षण- अगले वर्ष के लिए हम सबके परम पावन कर्तव्य हैं। इन नई जिम्मेदारियों से डर कर कोई परिजन पीछे न हटेंगे ऐसी हमें आशा है।