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Magazine - Year 1957 - Version 2

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प्राचीनता को त्यागने से भारत का कल्याण न होगा।

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(श्री नरदेव शास्त्री)

भारतवर्ष की छत्तीस करोड़ जनता किस साधन के द्वारा एकता के सूत्र में बाँधी जा सकती है-यह एक बड़े महत्व का प्रश्न है। उनमें चार करोड़ मुसलमान और एक करोड़ ईसाइयों को छोड़ दिया जाय तो शेष 31 करोड़ हिन्दू जनता को, जो हिन्दुत्व के नाते एक हैं, एकता में बाँध रखना राष्ट्रीय हित की दृष्टि से भी आवश्यक ही है। इस इतने विशाल हिन्दू समाज की बागडोर अधिकाँश में प्राचीन रीति-नीति के कट्टर उपासक पण्डितों के, शास्त्रियों और संन्यासियों के हाथों में है। इन लोगों की बड़ी प्राचीन परम्परा है। दूसरी ओर अंग्रेजी राज्य के समय में अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा में लालित-पालित अंग्रेजी विद्वानों की परम्परा है। इस समय राज्य का शासन सूत्र भी इन्हीं अँग्रेजी परम्परा वालों के हाथ में है। ये लोग समाज-सुधार करते समय प्राचीन पंडित शास्त्रियों की भावनाओं का कुछ भी ध्यान नहीं रखते और इनको साथ लिये बिना स्वेच्छानुसार एक दम सुधार करना चाहते हैं। दूसरी ओर पुराना पंडित-समाज इन सुधारकों को तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। इनको नई परिस्थिति समझ में नहीं आती, और इसी प्रकार अंग्रेजी विद्वानों में भी इनसे हेल-मेल बढ़ाकर, इनसे संपर्क रख कर काम करने की युक्ति और बुद्धि दिखलाई नहीं पड़ती। इस प्रकार इन दोनों दलों का मेल बैठना अत्यन्त कठिन कार्य हो गया है और इसके परिणामस्वरूप देश की प्रगति में बाधा पड़ रही है।

बहुत से लोग सामाजिक मामलों में शासन द्वारा किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना ही पसन्द नहीं करते! पर प्रश्न यह है कि यदि शासन द्वारा हस्तक्षेप न किया जाय तो आवश्यक सुधार कैसे होंगे? क्या इतने बड़े समाज को, यह जिस रूप में चल रहा चलने दिया जाय? क्या इसमें प्रचलित अनेक श्रेष्ठ सदाचारों के साथ-साथ मिश्रित रूप में चलते हुए अनेक अनाचारों अथवा कदाचारों को ऐसे ही चलने दिया जाय? क्या उनमें देश कालानुसार अपेक्षित सुधार न किया जाय? इसका सीधा उत्तर यह है कि सुधार होने चाहिएं, पर इसके लिये समाज-प्रवर्तन आचार्यों, धर्माचार्यों, पंडितों, शास्त्रियों के सम्मुख देश की समग्र स्थिति रखकर उन्हीं से अनुरोध किया जाय कि वर्तमान परिस्थिति में इन-इन सुधारों का आवश्यकता प्रतीत होती है। इसलिये वे धर्म की मुख्य परम्पराओं को सुरक्षित रखते हुये ऐसी व्यवस्थाएं दें जिससे इतने बड़े समाज का भीतरी सुधार होकर जाति तथा राष्ट्र में बल का संचार हो सके।

ऐसा कोई समन्वय हुये बिना प्राचीन धर्म परम्पराओं तथा नवीन शासन प्रणाली का मेल नहीं बैठेगा और अशान्ति तथा कलह बढ़ते ही रहेंगे, नये विचारों के लोग जो प्राचीन परम्पराओं को बैलगाड़ी की उपमा देकर और अपने आपको वायु के उपासक समझ कर जैसा भाव प्रकट करते हैं वह कदापि उचित नहीं है। पर हम उनसे कहना चाहते हैं कि बैलगाड़ी की सभ्यता चाहे कितनी ही मंदी चाल से चल रही है और चाहे कालवश उसमें कितनी ही त्रुटियों का संचार क्यों न हो गया हो,श्रेष्ठ है। जिस बैलगाड़ी के साथ संसार के सर्वश्रेष्ठ, आदि सत्य सनातन चक्षु वेद हैं,शास्त्र हैं, दर्शन हैं, धर्म शास्त्र, पुराण और इतिहास हैं, उसकी अनुचित हंसी क्यों उड़ायी जाय? बैलगाड़ी जहाँ काम देती है, वहाँ वायुयान कौड़ी काम के सिद्ध होते हैं। वायुवान का जहाँ काम है, वह वहीं रहे। हमारे प्राचीन पुरुष सब प्रकार के यानों से काम लेते थे। उनके बैलगाड़ी रथ आदि तो थे ही, पर उनके वायुवान भी तो थे- जिन पर बैठकर देवगण आकाश में चलते थे, ऊपर से युद्ध देखते थे, विजयी दल के ऊपर पुष्पवृष्टि किया करते थे। उनके शस्त्रास्त्र भी थे। सब कुछ था,किन्तु वे उनका दुरुपयोग कभी नहीं करते थे। पर आजकल के विज्ञानवादियों की सभ्यता क्या कर रही है? वह थोड़ा-सा नाम मात्र का भौतिक सुख पहुंचा रही है, पर उसका रुख नाश की ओर ही है।

आर्य-जाति सहस्रों वर्षों के आक्रमण, दासता, पराधीनता आदि संकटों से जो बच सकी है तो उसका कारण यह बैलगाड़ी की सभ्यता ही है। दूसरी ओर इस नवीन-युग वालों की वायुयानों वाली सभ्यता को देखिये। इनका लोभ, इनका स्वार्थ इनकी प्रतिहिंसा, भोगवाद, भौतिकवाद, अनीश्वरवाद-ये सब संसार को नरक बनाने पर तुले हुये हैं। यदि इनके विज्ञान रूपी घोड़े संसार को विनाश की ओर ही ले ही जाएंगे। हमारी बैलगाड़ी की सभ्यता संसार को बतलाती है :-

इहचेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।

न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ॥

‘संसार में आकर यदि सत्य स्वरूप परमात्म तत्व को न समझ कर केवल भोगों के पीछे दौड़ोगे तो महती विनष्टि है ही’

इसलिये अंग्रेजी पंथी विद्वान प्राचीन पंथी विद्वानों का उपहास करना छोड़कर उनकी भावनाओं का समादर करें और प्राचीन पंथी विद्वान भी समय की परिस्थिति को समझने की चेष्टा करें तथा धर्म और संस्कृति के विपरीत बातों को छोड़कर अन्य बातों में देश, राष्ट्र, शासन चक्र के सहायक रहें। आज अंग्रेजी पढ़े-लिखों का यह हाल है कि धर्म का नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। जिनको अंग्रेजी नहीं आती ऐसे लोगों के साथ बैठने, मिलने, बातचीत करने में ये अपनी हतक समझते हैं। ऐसे लोग अपने समाज का सुधार कैसे कर सकते हैं? वस्तुतः ऐसे लोग देश तथा राष्ट्रोद्धार को बातें ही क्यों करते हैं? स्व0 लोकमान्य तिलक ने एक बार ‘केसरी’ में लिखा था :-

“अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में यही एक कमी है। ऐसे लोग क्या तो समाज सुधार करेंगे और क्या देश-कार्य करेंगे। धर्म की रक्षा के लिये कष्ट सहना अथवा प्राण देना-यह धर्म-श्रद्धा का लक्षण है। ईसाई लोग अंग्रेजी विद्या में पारंगत होते हुये भी किसान, मजदूर, माली आदि छोटे-छोटे लोगों से मिलने, उनसे हेल-मेल बढ़ाकर धर्म-प्रचार करने में नहीं हिचकिचाते। हमारे सुधारक लोगों में ऐसे व्यक्ति कहाँ देखने को मिलते हैं? उलटा ऐसा करने में वे अपनी हतक समझते है। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में जो यह कमी है, वह उनकी शिक्षा-दीक्षा का ही प्रभाव है। जनता की उन्नति के लिए उनमें मिलकर स्वार्थ-त्यागपूर्वक सतत चेष्टा करना और स्वधर्म पर निष्ठा रखकर वैसी बुद्धि बनाये रखना-ये बातें अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में कहाँ हैं। यह उनका दोष नहीं, यह तो उनकी शिक्षा का ही दोष है। ये लोग पुराने पंडितों , शास्त्रियों को भला-बुरा कहते, उनकी खिल्ली उड़ाते हैं सही; पर शास्त्री-वर्ग भी तो ऐसा ही समझता है। इस प्रकार दोनों ओर जो कानापन आ गया है, उसको ठीक करना, यह सबसे प्रथम सुधार होना चाहिये। जब अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग अपने इस दृष्टि दोष को दूर करेंगे तभी वे सुधार कर सकेंगे, अन्यथा नहीं।” यह बात सोलह आने सच है और यदि लोकमान्य तिलक के समय में वह लागू होती थी तो अब भी लागू होती है।

इस प्रकार हिन्दू-समाज में दो भेद प्राचीन और अर्वाचीन को लेकर चल पड़े हैं और इसका समन्वय अत्यन्त आवश्यक है कि प्राचीनता में कितनी नवीनता का समावेश होना चाहिये और प्राचीनता का कौन-कौन सा अंश ग्राह्य है और कौन-कौन सा अग्राह्य है। नवीन में भी कितना किस अंश में ग्राहय है, कितना नहीं- इस पर विचार होना चाहिये। यह बात स्पष्ट है कि यह नवीन पद्धति का शासन-चक्र हमारे धर्म और संस्कृति का सीधे सहायक , पोषक या रक्षक नहीं हो सकेगा। यदि यह शासन -चक्र सीधे हमारी पुष्टि करेगा, तो उसको अन्य धर्मों की भी सहायता करनी पड़ेगी- यह शासन-चक्र तो अधिकतर देश की रक्षा का ध्यान रखेगा। यह ध्यान रखेगा कि प्राप्त हुई स्वतन्त्रता चिरकाल नहीं तो,अधिक से अधिक समय तक तो सुरक्षित रहे।

जब यह दशा है तो स्वधर्म और स्वसंस्कृति की रक्षा कौन करेगा? वही प्राचीनताभिमानी पंडित, शास्त्री समाज या कोई और? यवन-काल में भी यह भार इन्हीं पर रहा। अंग्रेजों के काल में भी यह भार इन्हीं पर रहा- और अब स्वराज्य-काल में भी इस बात का उत्तरदायित्व इन्हीं पर है, क्योंकि अंग्रेजी पढ़े-लिखे विद्वान कभी इस धर्म और संस्कृति की रक्षा करेंगे, ऐसी आशा रखनी दुराशा-मात्र है।

इतनी बड़ी विवेचना का अर्थ यही है कि ब्राह्मणों को पुनः त्याग तपस्या का मार्ग लेना पड़ेगा, क्योंकि ये ही सदा से राष्ट्र-पुरोहित रहे हैं और वेद के शब्दों में-

‘राष्ट्रे वयं ‘जागृयाम’ पुरोहितः स्वाह”

(अथर्व वेद)

“हम राष्ट्र के पुरोहित हैं और राष्ट्र-कल्याण के निमित्त जाग रहे हैं।” जब वे ऐसी गर्जना करेंगे तभी भारतीय राष्ट्र का उद्धार संभव होगा।

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