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Magazine - Year 1965 - Version 2

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Language: HINDI
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भगवान आपके अन्दर सोया है, उसे जगाइये

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‘अओ नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणः—”मैं अज, नित्य, शाश्वत एवं पुराण हूँ” यह आत्मा की अभिव्यक्ति है। जिसमें किंचित भेद भाव नहीं, जो मुक्त है, जिसमें किसी प्रकार का कोई विकार नहीं, अभाव रहित, सदा सर्वदा सर्वत्र सम्पूर्ण एक रस, एक रूप हूँ मैं, मेरा कभी परिवर्तन नहीं होता। नाना रूपों में मैं एक ही आत्मा विद्यमान हूँ।

परमात्मा ने ही आत्मा को आच्छादित कर रखा है यह कहें तो अत्युक्ति न होगी। आत्मा में जो भी शक्ति और प्रकाश है वह सब परमात्मा का ही स्वरूप है। परमात्मा मुझ से विलग कहाँ? वह मैं हूँ, मैं वह हूँ, कर्त्तापन की मित्रता है अन्यथा उसमें और मुझमें अन्तर नहीं। मैं और कुछ नहीं हूँ परमात्मा की उपस्थिति ही मेरे जीवन का कारण बनी है। वह मेरे साथ है इसलिये मैं जीवित हूँ। वह चला जायगा तो मैं भी चला जाऊँगा। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व वह ब्रह्म ही है।

सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने अनेक प्राणियों की रचना की पर सब अपूर्ण, सब अधूरे। किसी की शारीरिक शक्ति बड़ी थी, किसी का सौंदर्य सर्वोपरि था, कोई बोलता मधुर था, किसी को नृत्य कला अच्छी आती थी, कोई अधिक ऊँचाई तक उड़ सकता था किसी में अधिक दौड़ने की क्षमता थी। प्रवीण सब थे पर किसी एक ही विषय को लेकर। उपयोगी सब थे पर सर्वांगपूर्णता किसी में न थी। एक-दो गुण मिलते थे और बाकी एक दूसरे से भिन्न किसी में गुण किसी में अवगुण। यह विषमता संभवतः उसे रुची न होगी इसलिये उसने अलौकिक देह रचने का निश्चय किया होगा।

वह विलक्षण प्राणी मनुष्य है। इसमें बड़ी सूक्ष्मता और सावधानी से कार्य किया उसने। एक-एक कलपुर्जा कीमती से कीमती बनाया। बड़ी अजब शक्तियाँ पिरोईं उनमें। मनुष्य बनकर तैयार हुआ तो सृष्टिकार स्वयं चकरा गया। इस रचना पर उसे सबसे अधिक आश्चर्य हुआ।

सम्पूर्ण देव शक्तियाँ इसमें प्रविष्ट हुई। उन्होंने अपने अपने कार्य प्रारम्भ किए। अग्निदेव जागृत हुये तो भूख लगी, वरुण को जल की जरूरत पड़ी, किसी ने निद्रा माँगी, किसी ने जागृति। सब की अपनी दिशा थी, अपना काम था। इनमें पारस्परिक प्रतिद्वन्दिता न होती रहे और उनका नियन्त्रण बराबर किया जाता रहे इस दृष्टि से एक जबर्दस्त नियामक सत्ता की आवश्यकता जान पड़ी तो परमात्मा स्वयं उसमें समा गया। इस तरह इस अद्भुत मनुष्य जीवन का प्रादुर्भाव हुआ इस सृष्टि में। सृष्टि के अन्य प्राणियों का सरदार बना मनुष्य तो उसे भी नियन्त्रित रखने के लिये उसका भगवान भी उसके साथ रहने लगा ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता भी की जा सकती और उसे दुराचरण या अधिकारों के दुरुपयोग से रोका भी जा सकता।

तब से अब तक मनुष्य निरन्तर एक प्रयोग के रूप में चलता आ रहा है। कभी वह गलती करता है तो उस अपराध के बदले सजा मिलती है और यदि वह अधिक कर्त्तव्यशील होता है तो उसे अधिक बड़े इनाम और अधिकार दिये जाते हैं। गलती का परिणाम दुःख और भलाई का परिणाम सुख। सुख और दुःख का यह अन्तर्द्वन्द्व आदि काल से चलता आ रहा है।

यदि मनुष्य के सम्पूर्ण ऐतिहासिक जीवन पर दृष्टि डालें तो ऐसा प्रतीत होता है कि जितना समय बीतता जाता है उसकी भलाई की शक्ति मरती जाती है और उसके अन्तर का असुर भाग बलवान होता जा रहा है। इसके फलस्वरूप उसके दुःखों में भी बढ़ोतरी होती जा रही है। वर्तमान युग इस स्थिति की पराकाष्ठा है यह कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। आज लोगों में बड़ी दीनता है, लोग हीन और अभावग्रस्त हैं। यह झगड़ालू स्वार्थी और संकीर्ण प्रवृत्ति वाला हो गया है। मनुष्य का यह अधोगामीपन देखकर विश्वास नहीं होता कि उसमें अन्दर परमात्मा जैसी महत्वपूर्ण शक्ति का निवास हो सकता है। दुर्बल मनुष्य में सर्वशक्तिमान परमात्मा ओत-प्रोत हो सकता है इसकी इन दिनों कल्पना भी नहीं की जा सकती।

मनुष्य की दयनीय दशा का एक ही कारण है और वह यह है कि उसके अन्दर का भगवान् मूर्छित हो चुका है अथवा उसने अपनी मनोभूमि इतनी गन्दी बना ली है जहाँ परमात्मा का प्रखर प्रकाश संभव नहीं। यदि वह सचेत रहता, उसकी मानसिक शक्तियाँ प्रबुद्ध रहतीं, भलाई की शक्ति जीवित रहती तो वह जिन साधनों को लेकर इस वसुन्धरा पर अवतीर्ण हुआ है वे अचूक ब्रह्म-अस्त्र हैं। उसकी शक्ति वज्र से भी प्रबल है। सृष्टि का अन्य कोई भी प्राणी उसका सामना करने को समर्थ नहीं हो सकता। यह युवराज बन कर आया था। विजय, सफलतायें, उत्तम सुख, शक्ति शौर्य साहस निर्भयता उसे उत्तराधिकार में मिले थे। इनसे वह चिरकाल तक सुखी रह सकता था। भ्रम, चिन्ता, शंका संदेह आदि का कोई स्थान उसके जीवन में नहीं पर अभागे मनुष्य ने अपनी दुर्व्यवस्था आप उत्पन्न की। अन्तःकरण की ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करने के कारण ही उसकी यह दुःखद स्थिति प्रकट हुई। अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का अपराधी मनुष्य स्वयं है, इसका दोष परमात्मा को नहीं।

संसार के छोटे कहे जाने वाले प्राणी एक निश्चित प्रकृति लेकर जन्मते हैं और प्रायः अन्त तक उसी स्थिति में बने रहते हैं। इतना स्वार्थी मनुष्य ही था जिसे अपने साधनों से तृप्ति नहीं हुई और उसने दूसरों के स्वत्व का अपहरण करना प्रारम्भ किया। न्यायाधीश बनकर आया था पर स्वयं अन्याय करने लगा। ऐसी स्थिति में परमात्मा के अनुदान भला उसका कब तक साथ देते। ईश्वरीय गुणों से पथ-भ्रष्ट मनुष्य की जो दुर्दशा होनी चाहिये थी वही हुई। दुःख की खेती उसने स्वयं बोई और उसका फल भी उसे ही चखना पड़ा।

परमात्मा हमारे बड़े समीप बस कर प्रेम का संदेश देता है पर मनुष्य अपनी वासना से उसे कुचल देता है। वह अपनी सादगी, ताजगी और प्राण शक्ति से हमें सदैव अनुप्रणित रखने का प्रयत्न रखता है, पर मनुष्य आडम्बर, आलस्य और अकर्मण्यता के द्वारा उस शक्ति को छिन्न-भिन्न कर देता है। कालान्तर में जब आन्तरिक-प्रकाश की शक्ति क्षीण पड़ जाती है तो दुःख और द्व्रन्द के बखेड़े बढ़ जाते हैं। तब मनुष्य को औरों की भलाई करना तो दूर अपना ही जीवन भार रूप हो जाता है। परमात्मा की अन्तःकरण से वियुक्ति ही कष्ट और क्लेश का कारण, बन्धन का कारण है।

मनुष्य बड़ी बुद्धि विवेक और विचार वाला प्राणी है पर खेद है कि वह अपनी इन शक्तियों का उपयोग लौकिक कामनाओं और इन्द्रिय भोगों तक ही सीमित रखता है। इस अज्ञानान्धकार में ग्रसित मनुष्य को बड़ी शक्तियों का आभास भी नहीं होता इसीलिये वह कोल्हू के बैल की तरह एक सीमित दायरे का ही चक्कर काटता रहता है। उसे इतना भी पता नहीं होता कि हमारे शीश पर बड़ी शक्तियों का हाथ है और उनसे जीवन को सफल बनाने का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है।

मनुष्य समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे अपनी गुप्त शक्तियों का आभास भी नहीं होता या वे उन्हें जानना ही नहीं चाहते यह एक बड़े आश्चर्य की बात है। अपनी दुर्बलताओं का भार लादे हुये जानवरों की तरह जीना ही उन्हें पसन्द होता है। घोड़े, बैल, हाथी या बकरी की पीठ पर अच्छी-अच्छी वस्तुयें लाद कर एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर ले जाते हैं पर बेचारे जानवरों को क्या पता कि उनकी पीठ पर कोई बहुमूल्य वस्तु रखी है। उनके लिये पीठ पर रखी कोई भी वस्तु भार-समान ही है और इसी रूप में वे उसे ढोते रहते हैं। अज्ञान में फँसे मनुष्य की भी स्थिति ठीक ऐसी ही होती है उनके लिये विचार, वाणी या विवेक का उतना ही महत्व है, जितना पीठ पर कीमती सामान रखने वाले घोड़े या हाथी की दशा होती है।

मनुष्य को असीम शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आत्मिक सम्पदाओं से सुसज्जित कर इस भूतल पर भेजा गया है पार अपने प्रयोग का ढंग विपरीत हो जाने, उद्देश्य बदल जाने के कारण उन शक्तियों से लाभ तो कुछ मिलता नहीं अशान्ति, भय, घबराहट, चिड़चिड़ापन अस्थिरता, राग, द्वेष, घृणा स्वार्थ और ईर्ष्या का वातावरण और तैयार कर लेता है। आत्मविकास के लिये अपनी क्षमताओं को ईश्वरीय रूप में देखना था और उनका प्रयोग दिव्य तेज और स्फूर्ति की प्राप्ति के लिये किया जाना चाहिये था। ऐसा करने वाले मनुष्य का अपना जीवन सार्थक होता और दूसरों को भी आत्म-कल्याण की प्रेरणा मिलती।

आप अपनी मानसिक दुर्बलताओं का विश्लेषण किया कीजिये। देखिये क्या यह कामनायें और वासनायें अन्त तक आपका साथ देंगी। आप इस

पर जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही वे तुच्छ प्रतीत होंगी और उनके प्रति आप के जी में घृणा उत्पन्न होगी। मानसिक दुर्बलतायें रुकेंगी तो आन्तरिक शक्तियों का प्रस्फुरण तीव्र होगा, आपके अन्दर का ईश्वरीय अंश बढ़ेगा।

ईश्वर दिव्य है वह आपके अन्दर दिव्यता लाना चाहता है। वह सत् है और वैसी ही प्रतिक्रिया आपके अन्दर चलाने की उसकी इच्छा होती है। आपके मन का मैल दूर ही तो आपका जीवन ईश्वरीय मनमोहकता, दिव्यता का आकर्षण केन्द्र बन जाय और उसकी सुवास से आपका सारा वातावरण महक जाय।

अपने भीतर समाविष्ट अमिट सत्य को पहचानिये, यह सत्य आपको संकीर्णता से मुक्त कर देगा। संसार की बदलती हुई गतिविधियों से, शरीर के नाना प्रकार के रूपों से तब आप दुःखी और विक्षुब्ध न होगे। आपका जीवन हास्ययुक्त, चहकता और दमकता हुआ रहेगा। मूल बात आत्म-चेतना को पहचानना है जिससे आप मन को तमोगुण से बचा सकते हैं और मनुष्य जीवन को आनन्दमय बना सकते हैं।

वह परमात्मा तेजस्वी, प्रकाशवान् और सम्पूर्ण मानसिक पीड़ाओं को नष्ट करने वाला है। उसे विकसित करने में ही आपका कल्याण है। भगवान् कृष्ण ने कहा है—

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमद्र्जितमेव वा। तत्तदेवावगच्छ त्वं मन तेजोऽशसम्भवम्॥

(गीता10 । 41)

हे अर्जुन! इस जगत में जो कुछ भव्य, तेजस्वी तथा ऐश्वर्यवान् प्रतीत होता है वह मेरे ही तेज का अंश है। जो अपने अन्दर मुझ दैवी चेतना का अनुभव करते है मैं उनके बन्धन काट देता हूँ।”

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