Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
बड़ों के सम्मान में भूल न करें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
“आशीर्वाद” प्राप्त कर लेना हिन्दू धर्म में परम सौभाग्य तथा विजय का सूचक माना गया है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अपने से बड़े-बुजुर्ग, माता-पिता एवं गुरुजनों से आशीर्वाद मिलने से मनुष्य का मनोबल बढ़ता है और उससे एक प्रकार की शक्ति अनुभव की जाती है। इसलिये प्रत्येक मंगल कार्य, उत्सव, पर्व तथा किसी भी शुभ कार्य के आरम्भ में अपने से बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। यह बड़ों के प्रति सम्मान प्रकट करने और आत्मबल सम्पन्न होने का लक्षण है। जो ऐसा नहीं करता उसे नीच प्रकृति का उच्छृंखल व्यक्ति माना जाता है। वाल्मीकि रामायण में बताया गया है—
मातरं पितरं विप्रमाचार्यं चावमन्य वै।
स पश्यति फलं तस्य प्रेतराज दशं गतः॥
अर्थात्—जो माता, पिता, ब्राह्मण तथा गुरु देव का सम्मान नहीं करता वह यमराज के वश में पड़कर पाप का फल भोगता है।”
किसी के प्रति सम्मान प्रकट करने या प्रणाम करने से मनुष्य छोटा नहीं हो जाता वरन् इससे श्रेष्ठत्व की प्रतिष्ठा ही होती है और उस उच्च भावना का लाभ भी मिले बिना रहता नहीं। शुद्ध अन्तःकरण से किया हुआ नमन आन्तरिक शक्तियों को जगाता है इसलिये श्रेष्ठ पुरुषों ने सदैव ही इस मर्यादा का पालन किया है। भगवान् राम और आचार्य रावण में पारस्परिक प्रतिद्वन्दिता थी। राम रावण की कुटिलता को जानते थे किन्तु पाण्डित्य और श्रेष्ठता के प्रति उनके हृदय में जो श्रद्धा भावना थी उसके वशीभूत होकर ही उन्होंने विपरित परिस्थिति में भी इस नैतिक मर्यादा का पालन किया था। रामायण में लिखा है—
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा।
विप्र चरण पंकज सिर नावा॥
“इस प्रकार रणोद्यत राम ने अपना रथ आगे बढ़ाया और रावण के सम्मुख पहुँचकर उसके चरण-कमलों में अपना शीश झुकाया।”
सैद्धान्तिक मतभेद के बावजूद भी व्यवहारिक जीवन में बड़ों को सम्मान देने का उच्चादर्श भारतीय संस्कृति की अपनी निजी विशेषता है। वह आत्मा ही बलवान होता है जो प्रभु सत्ता के समक्ष अपने आपको बिलकुल लघु मानता है और तुलसीदासजी के शब्दों में “सियाराम मय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि युग वाणी” की भावना रखने वाला ही सच्चा कर्मयोगी होता है। अनावश्यक अभिमान मनुष्य को पतित बनाता है। इसका उदय न हो इसलिये बड़ों के समक्ष सदैव विनम्र होकर रहने की शिक्षा हमें दी गई है। महाभारत में अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जब विपक्षी पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य को अर्जुन आदि पाण्डव चरण स्पर्श करते और उनका शुभाशीष प्राप्त करते हैं। शिष्य की निष्ठा से द्रवीभूत गुरु उनकी जय कामना करते हैं और वैसा होता भी है। यदि यह मान लें कि विजय का हेतु उनकी शक्ति थी गुरुजनों का वरदान नहीं तो भी यह बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि जो शक्ति अभिमान के वशीभूत न हो वह श्रेष्ठ तो होगी ही और उस श्रेष्ठता से लाभान्वित होने का लाभ तो उन्हें अनायास मिला ही।
सम्मान से प्रत्येक व्यक्ति को एक प्रकार की आध्यात्मिक तृप्ति मिलती है, उसे प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। आपको भी सम्मान मिले इसके लिये इस आदि सभ्यता की परम्परा को जीवित रखना चाहिये। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आधुनिक शिक्षा-धारी व्यक्तियों में अहंकार इतना बढ़ रहा है कि बड़ों को सम्मान देना वे अनावश्यक समझते हैं। इसे वे छोटापन मानते हैं। कई व्यक्ति तो माता-पिता को मारने पीटने और उन पर रौब दिखाने में ही अपना बड़प्पन मानते हैं। यह हमारी संस्कृति के नाम पर कलंक ही है कि लोग अपने जन्म-दाताओं को त्रास दें। गुरु-परम्परा तो प्रायः समाप्त-सी होती जा रही है और इनके प्रति उनकी भावनायें भी बिलकुल ओछी हो गई हैं। सामयिक अनुशासन को बनाये रखने के लिये और आत्म सम्मान प्राप्त करने का भी यही मार्ग है कि हम भी अपनों से बड़ों के साथ वैसा ही व्यवहार करें। दार्शनिक सुकरात ने कहा है—”अच्छा सम्मान पाने का मार्ग यह है कि तुम भी सम्मान करो। तुम जैसा प्रतीत होने की कामना करते हो वैसा बनने का प्रयास करो।”
बड़ों के प्रति सम्मान तथा अनुशासन होना पारिवारिक संगठन का मूल आधार है। यह संगठन प्रेम मूलक होता है। वहाँ पारस्परिक आत्मीयता होती है। एक सदस्य दूसरे सदस्य का ध्यान रखता है और अधिकार के स्थान पर कर्तव्य की प्रधानता रहती है। इस स्थिति में सुख और अमन के लिये बाह्य साधनों पर नितान्त अवलम्बित नहीं होना पड़ता। लोगों में पारस्परिक स्नेह और आत्मीयता हो तो कोई कारण नहीं कि घरेलू वातावरण कष्टप्रद लगे। पारिवारिक अनुशासन सुख और व्यवस्था का मेरुदंड है इसे अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि लोगों में बड़ों के प्रति आदर का भाव बना रहे। ऐसा होने से उस वातावरण में श्रद्धा और विश्वास में कमी नहीं होने पाती और वह संगठन सुदृढ़ स्थिति में कायम बना रहता है। जब तक यह संगठन कायम रहता है तब तक धन-धान्य की भी कमी नहीं रहती और बाहरी लोगों के आक्रमण भी सफल नहीं होते। इसीलिये इस भावना को पवित्र दैवी तत्व माना गया है। पितरों को पूजने की प्रथा बड़ों के प्रति आस्था का ही चिन्ह है।
सम्मान के पीछे मूल भावना जितनी पवित्र होगी उतना ही वह अधिक उपादेय होगा और जिसके प्रति सम्मान प्रकट किया गया है उनके हृदय से “आशीर्वाद” की बहुत-सी मात्रा खींच लाने वाला होगा। लोक व्यवहार और दिखाने के लिये प्रदर्शित सम्मान से आत्मिक अभिव्यक्ति नहीं होती और वह एक संकीर्ण विचार मात्र रहकर अपने आप में ही सिमटकर रह जाता है। सम्मान की परम्परा का प्रारम्भ आत्म विकास की मूल प्रेरणा को लेकर होता है इसलिये वह निष्काम तथा निर्लोभ होना चाहिये। वहाँ पर अहंकार, लोभ आदि आसुरी वृत्तियों का प्रादुर्भाव न होना चाहिये। इसे एक रूढ़ि मात्र भी बनकर न रह जाना चाहिये। वरन् इस भावना को अन्तरात्मा के स्पर्श की सुखानुभूति होने देनी चाहिये ताकि सम्मान आध्यात्मिक प्रशस्ति का ही साधन बना रह सके।
समय बीतने के साथ परम्परा अपने आप रूढ़ि का रूप ले लेती है। यदि उसकी मूल प्रेरणा में आत्मीयता और अनुशासन का भाव न रहे तो यह परम्परा भी वैसी ही निष्फल हो जाती है। बड़ों की समता और उनके अनुभवों का लाभ हम विनीत होकर ही पा सकते हैं। बनावटीपन के कारण तो अपने आप ही छले जाते हैं। हम जब बालक थे तो माता-पिता ने जिस तरह हमारी सेवा-सुश्रूषा की थी हमें भी अपने माता-पिता की सेवा उसी आदर भावना से करनी चाहिये। जो ऐसा नहीं करते उनकी विद्या का नाश हो जाता है और वे कृतघ्न कहलाते हैं।
वेद की आज्ञा है—
न यस्य सातुर्ज नितोरवारि,
न मातरा नू चिदिष्टौ।
अधा मित्रो न सुधितः पावको,
अग्निर्दीदाय मानुपीपु विक्षु॥
धार्मिक श्रद्धा का विकास और उच्चादर्श की प्रेरणा प्रारम्भिक वातावरण से मिलती है। छोटी अवस्था से ही इन भावनाओं का उद्दीपन होता है। हमारे बालक अपने जीवन का निर्माण हमारे स्वभाव से ही अनुकरण करके सीखते हैं। उन्हें एक विशेष प्रकार की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में ढालने के लिये और आत्म सम्मान प्राप्त करने के लिये भी हमारे आचरण में बड़ों के प्रति सम्मान का समावेश बना रहना चाहिये। धर्म, सदाचार और नैतिकता का बीजारोपण यहीं से होता है। यह परम्परा इधर कुछ समय से लुप्त हो गई है जिसके कारण हमें बड़े कष्ट मिले हैं। लोगों के जीवन क्षुद्र और अहंकारी बने, परिवार संगठन स्थिर न रह सके जिससे आर्थिक नैतिक पतन हुआ और सामाजिक जीवन में भी पारस्परिक विश्वास डाँवाडोल हो गया। अब इस गलती को दोहराना नहीं। हमें अपने जीवन की सर्वतोन्मुखी प्रगति अभीष्ट हो तो बड़ों के सम्मान में भूल न करें। माता-पिता और गुरुजनों के आशीर्वाद से जीवन संग्राम में विजय ही होती है।