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Magazine - Year 1965 - Version 2

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अमर हो तुम, अमरत्व को पहचानो

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पिता के वंश, ऐश्वर्य, गुण शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप बालक अपने जीवन स्तर का निर्माण प्रारम्भ करता है। उसके स्वाभिमान, रहन-सहन, खान-पान, वेष-भूषा में पिता की आत्म-स्थिति का अधिकाँश प्रभाव होता है। धनी पिता का पुत्र सुन्दर वस्त्र पहनता है, अच्छा खाना खाता है, चलने, यात्रा करने में भी उसकी शान-शौकत अन्यों से भिन्न होती है। जैसा बाप करता है प्रायः उसी का अनुकरण बेटे किया करते हैं।

भिखारी के बेटे को स्थिति भिखारी जैसी होती है। फटे कपड़े अस्त-व्यस्त बाल, रूखा शरीर सब कुछ ठीक भिखारियों जैसा। इससे अधिक शान का जीवन बिताना भला वह भिखारी का बालक क्या जान सकता है जिसने जीवन में न अच्छा भोजन देखा हो, न अच्छे वस्त्र पहने हों और न आलीशान मकान में रहने का सौभाग्य ही मिला हो। शील, गुण और आचरण अधिकाँश व्यक्तियों को पैतृक सम्पत्ति के रूप में ही मिला करते हैं।

यह उत्तराधिकार मनुष्य को भी ठीक इसी रूप में मिला है। परमात्मा का पुत्र होने के नाते उसे वह सारी निधियाँ मिली हैं जिनसे वह साँसारिक जीवन सुख, सुविधा और शान के साथ बिता सकता है। परमात्मा के जो गुण और शक्तियाँ बताई जाती है वह मनुष्य में—आत्मा में भी ठीक उसी तरह सन्निहित हैं। ऐसे कोई अधिकार शेष नहीं जो ईश्वर ने अपने युवराज को न दिये हों। वह अपने बेटों को निराश्रित, निरीह और निर्बल कैसे देख सकता था। अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का अनुदान उसने अपने बेटे - मनुष्य को दिया ताकि वह इस संसार में उल्लास का जीवन जी सके। स्वयं सुख भोगकर आने वालों को भी वैसा ही उत्तराधिकार सौंपता हुआ जा सके।

आत्मदर्शी ऋषियों की लेखनी आत्मा की महत्ता प्रतिपादित करते हुये थक गई पर कथानक पूरा न हो पाया। शक्तियों की सीमा को “नेति-नेति” कहकर पुकारना पड़ा क्योंकि वे वर्णन भी कब तक करती। कुछ वर्षों के जीवन में यही हजार, दो हजार पुस्तकों में आत्म-सत्ता की महत्ता लिख जाते इससे अधिक और हो भी क्या सकता था? अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा का गुणानुवाद आखिर कब तक गाया जाता।

किन्तु आज के मनुष्य की दीन-हीन स्थिति देखकर लगता है शास्त्रकार अतिशयोक्ति कर गये हैं, कुछ का कुछ लिख गये हैं। परमात्मा पूर्ण वैभव सम्पन्न है पर मनुष्य के पास पेट भरने के और सुख से रहने के भी साधन नहीं। परमात्मा विश्वदर्शी है पर मनुष्य अपने आपको भी नहीं जानता। परमात्मा असीम शक्तिशाली है पर मनुष्य तो छोटे-छोटे कार्यों के लिये भी औरों का मुँह ताकता है। किसी भी गुण राशि में तो उसका और परमात्मा का मेल नहीं खाता, फिर विश्वास कैसे किया जाय कि मनुष्य परमात्मा का पुत्र है, अमृत-तत्व का उत्तराधिकारी युवराज है।

वस्तुतः आपकी शक्ति अपार है, आपके गुण अनन्त है, आपकी क्षमता असीम है पर यह है उत्तराधिकार रूप में ही। परमात्मा सम्पूर्ण विश्व का पालनकर्त्ता, सर्व-रक्षक सबका भरण-पोषण करने वाला है इसलिये उसे भी यह सतर्कता बरतनी पड़ी कि वह अपनी शक्तियाँ योग्य हाथों में सौंपे और उसे भले कार्यों में प्रयुक्त हुआ देखे। जब कोई ऐसा उत्तराधिकारी व्यक्ति उसे दिखाई दे जाता है तो अपनी तिजोरी की चाबी भी उसे सौंप देता है। अयोग्य व्यक्तियों को वह अपनी शक्तियाँ देकर उनका दुरुपयोग होता कैसे देख सकता था? उत्तराधिकार तो किसी अच्छे व्यक्ति को ही दिया जाता है।

एक पिता की कई सन्तानें होती हैं। कोई कपटी, कोई चोर, कोई लवार। कई उनमें से शील स्वभाव, गुणवान् और आज्ञाकारी भी होते हैं। पिता बड़ी सावधानी से उन सबका निरीक्षण करता रहता है और जिसे योग्य समझता है उसे गृहस्थी का भार सौंपने, सारा धन दे जाने में प्रसन्नता अनुभव करता है। जो उसकी शान, ऐश्वर्य और वंश परम्परा से विमुख होकर अकृत्य करता है उसे देता तो कुछ नहीं, उल्टे उसे दण्ड और भुगतना पड़ता है।

साधारण मनुष्यों की जब यह दशा होती है तो परमात्मा को अधिक कड़ाई, अधिक सावधानी रखना आवश्यक थी, क्योंकि उसका कार्य क्षेत्र भी तो बहुत बड़ा है सारे संसार में उसी के बेटे तो विचरण कर रहे हैं।

साधारण मनुष्य का बेटा जब अपने पिता की सम्पत्ति का स्वामित्व पाता है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। सब के सामने अकड़ कर, शान के साथ चलता है। न उसे किसी का भय होता है और न कोई अभाव। तो फिर जिसे परमात्मा का उत्तराधिकार मिल जाय तो उसकी प्रसन्नता, निर्भयता, वैभव तथा ऐश्वर्य का तो कहना ही क्या। वह चाहे तो सारे संसार के सामने ऐंठ कर, अकड़कर चल सकता है। उसे भय और अभाव हो भी कहाँ सकता है?

मनुष्य स्वभावतः अधोगामी है इस दृष्टि से यह नियन्त्रण रखना जरूरी भी था। पर ईश्वर न्यायकारी भी है उसने आत्म-कल्याण का मार्ग किसी के लिये भी अवरुद्ध नहीं किया। वह साधन सबको समान रूप से मिले जिनके माध्यम से मनुष्य, अपने लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के उद्देश्य पूरे कर लेता।

वायु, जल, प्रकाश, मेघ आदि का उपभोग सब समान रूप से करते हैं। पापी विचार, अनुभव, स्मृति, दर्शन, श्रवण आदि के साधन भी प्रायः सभी को एक समान ही मिले हैं। इनके द्वारा मनुष्य यदि चाहता तो आत्म-विकास कर सकता था, पर उसने किया कहाँ? सब कुछ देखते हुये भी मनुष्य अज्ञानी बना रहा। घटनायें कई बार घटीं, घटती रहती हैं पर उसने कभी विचार करना नहीं चाहा। इसी कारण वह अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठ भी नहीं सका।

लोग कहा करते हैं कि जीव जब माता के गर्भ में बन्दी की-सी स्थिति में बड़ा होता है तब यह परमात्मा से अनेक प्रकार की विनती करता है। वह चाहता है कि इस जन्म-मरण के फन्द से जितनी जल्दी छुटकारा मिले, बन्धन मुक्ति मिले उतना ही अच्छा है। इसके लिये वह तरह-तरह की प्रार्थनायें करता है किन्तु जन्म लेने के बाद इस संसार की हवा लगते ही वह सब भूल जाता है और फिर वही शिश्नोदर परायण जीवन जीने में लग जाता है।

लोगों की भूल यह है कि वे अपने आप को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार करना नहीं चाहते। विज्ञान का सहारा लेकर लोग प्रत्यक्षवाद की दुहाई देते हैं किन्तु यह खुला हुआ संसार क्या कम प्रत्यक्ष है, मृत्यु जन्म की घटनायें कम प्रत्यक्ष हैं? जन्म जरा और यौवन का पाना और खो देना भी किसी को विचार प्रदान नहीं कर सकता क्या?

ईश्वर का पुत्र होने के नाते मनुष्य असीम आध्यात्मिक शक्तियों और दैवी सम्पदाओं का स्वामी बन सकता है किन्तु वह अपने को इस स्थिति वाला मानता कब है? अपनी इस धृष्टता के कारण यह मनुष्योचित आचार से भी पतित होकर दुष्कर्म करता है अपने स्वार्थ के लिए औरों के अधिकारों का अपहरण करता है। खुद का पेट भरे दूसरे चाहे भूख से मर जायें, अपना घर भर जाय दूसरे चाहे कानी कौड़ी के लिये तरसते रहें। इतना ही नहीं वह अपने से गई-गुजरी स्थिति वालों के साथ पैशाचिक उत्पीड़न करता है, दूसरों का खून पीता और अट्टहास करता है। ऐसे दुष्ट पुत्र को परमात्मा अपनी शक्तियाँ देता कैसे? उसे तो दण्ड ही मिलना चाहिये था और वही मिलता भी है।

स्वार्थ और संकीर्णता की दुष्प्रवृत्तियों के रहते हुए मनुष्य परमात्मा का उत्तराधिकारी कैसे बन सकता है? उसे चाहिये था कि वह पैतृक गुणों को आधार मानकर चलता और अपने आप को ईश्वर का पुत्र होना स्वीकार कर ईश्वरीय आदेशों का पालन करता। ईश्वर शक्ति का स्रोत है उससे सम्बन्ध स्थापित करता तो मनुष्य का जीवन, शक्ति सम्पन्न हो जाता। परमात्मा की विशेषतायें उसमें भी परिलक्षित होतीं।

हमारा शाश्वत स्वरूप पीछे पड़ गया है और हम अपने आप को मनुष्य का शरीर मान बैठे हैं, इसीलिये शारीरिक सुखों तक ही सीमित भी हैं। शरीर में इन्द्रियों के सुख हैं सो मनुष्य उन्हें ही भोगने का हर घड़ी इच्छुक बना रहता है। सुख की इस इच्छा में वह अपने विज्ञानमय स्वरूप को भूल जाता है। जब तक शरीर रूपी साधन अपनी प्रौढ़ अवस्था में रहता है तब तक भोगों की आसक्ति में पड़े रहते हैं और इस बीच अपनी असफलता का दोष औरों के मत्थे मढ़ना सीख जाते हैं और इस तरह सन्तोष करना चाहते हैं पर शाश्वत नियम कभी बदलते नहीं। समय पर वृद्धावस्था आनी ही थी, शरीर दुर्बल पड़ना ही था, मौत को आना ही था, उस समय न किसी को दोष देते बनता है न कुछ किये होता है। दुःख की स्थिति में, अज्ञान की स्थिति में वह मर जाता है और बार-बार इसी चक्कर में पड़ा दुःख भोगता रहता है।

परमात्मा की सृष्टि में सुख ही सुख है। दुःख का नाम भी नहीं है पर सारे फसाद की जड़ यह है कि लोग अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानना नहीं चाहते। बेटा अपने धनी बाप से बिछुड़ गया है और अपने आप को निर्धन की-सी स्थिति में पड़ा हुआ अनुभव करता है। उसका शरीर, प्राण और मन सब अस्त-व्यस्त है क्योंकि वह जानता भी नहीं कि उसका बाप कितना व्यवस्थित, कितना विकसित और कितना विशाल है। अपने अमर स्वरूप को मनुष्य पहचान जाय तो यह विशेषतायें उसमें भी तत्काल परिलक्षित होने लगें।

दुधारू गाय की बछिया भी दुधारू होती है। मीठे आम की नस्ल में उत्पन्न किया हुआ आम भी उसी गुण वाला होता है। सन्तरे के पेड़ में नीबू के फल नहीं लगते। अपने अमर स्वरूप में मनुष्य भी ईश्वरीय गुणों से ओत-प्रोत है किन्तु उसकी यह महानता अज्ञानता के अन्धकार में छिपी हुई है। मनुष्य अपने पिता परमात्मा के गुण, ऐश्वर्य और वैभव के अनुरूप अपना जीवन क्रम बनाता तो उसकी शक्तियाँ भी छिपी हुई न रहतीं और वह भी अपने आप को अपने पिता के सदृश ही सत्-चित् और आनन्द रूप में पाता।

आप अपने आप को रक्त , माँस, अस्थि, मज्जा, मेदे आदि से बना हुआ क्षुद्र शरीर मत मानिये। आप आत्मा हैं। इस तथ्य को भली भाँति समझ लें। आत्मा अपने अमरत्व को पहचानने के लिये ही मनुष्य शरीर में अवतरित हुई है। उसे इस उद्देश्य को पूरा करना ही चाहिये। अमरत्व का आनन्द लूटना ही चाहिये। इस उद्देश्य के लिये वह अग्रसर हो तो सचमुच उसका यह अलभ्य अवसर पाना भी सार्थक हो।

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