Magazine - Year 1965 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मानव समाज को अखण्ड-ज्योति परिवार का अभिनव उपहार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गुरुपूर्णिमा में दस हजार युग-निर्माताओं द्वारा एक लाख व्यक्तियों का प्रशिक्षण
गत 13 जुलाई को गुरुपूर्णिमा पर्व अखण्ड-ज्योति परिवार की उत्कृष्टता एवं गौरव गरिमा में चार चाँद लगाने आया। यों इस संगठन ने विगत 25 वर्षों में इतना कुछ किया है जिसे चिरकाल तक भुलाया न जा सकेगा पर पर्व भी और यह परिवार भी एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक तथ्य बन गये हैं।
नव निर्माण का प्रयोजन पूर्ण करना तभी संभव है जब जन-साधारण की कार्य पद्धति निकृष्ट न रह कर श्रेष्ठ बने। कार्यों की श्रेष्ठता का नाम ही तो स्वर्ग है। जहाँ सज्जनता का व्यवहार होता है सब लोग सत्कर्मों में संलग्न रहते हैं वहाँ सुख, शान्ति, प्रगति और समृद्धि की सुरसरि प्रवाहित होती है। मनुष्य यदि एक-दूसरे से प्रेम, उदारता, सहयोग एवं सज्जनता बरतने लगे, कोई किसी का अहित अनिष्ट न करे तो फिर इस धरती पर स्वर्ग अवतरित होने में क्या देर रह जायगी? सज्जन, सुसंस्कृत और सहृदय व्यक्ति ही तो देवता कहलाते हैं। जहाँ ऐसे लोगों का बाहुल्य होगा उसे सुरलोक ही तो कहेंगे। किसी समय भारत भूमि ऐसी ही विशेषताओं में भरीपूरी थी, अतएव उसे समस्त विश्व की जनता धरती का स्वर्ग मानती थी। अपनी उन विशेषताओं को छोड़ देने के कारण ही हम पतन के नरक में गिरे। अब फिर जबकि आध्यात्मिक नव-निर्माण का पाञ्चजन्य बजा है तब हमें मानव जाति की गतिविधियाँ श्रेष्ठता और सज्जनता की दिशा में मोड़नी हैं। इस संदर्भ में जितनी ही सफलता मिलती जायगी हम उतने ही कृतकार्य होते जायेंगे।
निकृष्ट और निरर्थक कृत्य में संलग्न जन-समुदाय को किस प्रकार श्रेष्ठता और सज्जनता की दिशा में मोड़ा जाय? इस प्रश्न, का एक मात्र उत्तर यही हो सकता है कि—उसके विचार बदलें। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि विचारों के बीज ही समयानुसार कार्य रूप में परिणत होते हैं। बीज छोटा ही क्यों न हो, पर वृक्ष की उत्पत्ति उसी पर निर्भर रहती है। भले या बुरे जैसे भी कार्य लोग करते हैं, पहले वे उनकी विचार भूमिका में अवतरित होते हैं। वहाँ धीरे-धीरे जड़ जमाते और पनपते हैं। यह आन्तरिक प्रक्रिया भले ही आँखों से दिखाई न पड़े पर वस्तुतः व्यक्तियों की कार्य-पद्धति का निर्माण उसी भूमिका में होता है। अचानक न कोई भला काम बन सकता है न बुरा। विचारों द्वारा जो पृष्ठ भूमि अन्तःप्रदेश में विनिर्मित होती रहती है उसी को समयानुसार हम कार्य रूप में परिणत होते देखते हैं। जिस प्रकार कोई वृक्ष समयानुसार अपना फल देता ही है उसी प्रकार मन क्षेत्र में जो विचार जमते और पलते रहते हैं वे कालान्तर में भले या बुरे कार्य बनकर सामने आते हैं। आज यदि दुष्कर्मों का, दुष्प्रवृत्तियों का बाहुल्य है तो उसका एक मात्र कारण यही समझना चाहिए कि जन-साधारण की मनोभूमि में निकृष्ट एवं दुष्ट विचारों ने अड्डा जमा लिया है।
युग परिवर्तन के हमारे महान अभियान की सफलता इसी एक बात पर निर्भर है कि जन-साधारण की वर्तमान विचारधारा बदलने और पलटने में हम किस हद तक सफल होते हैं। विचारों में उचित परिवर्तन हुए बिना भी बाहरी लीपा-पोती से अच्छे कार्यों के प्रचलन का प्रयत्न किया जा सकता है पर उसका परिणाम क्षणिक एवं प्रदर्शन मात्र होता है। श्रम दान से सामूहिक सुख-सुविधाओं की वृद्धि का प्रयास जहाँ-तहाँ होते देखा जाता है पर वह रहता प्रदर्शन मात्र ही है। बेमन से, यश-प्रशंसा या दबाव से लोग थोड़ी-सी लकीर एक-दो दिन पीट देते हैं, फोटो खिंच जाने पर फिर श्रमदान भी पूरा हुआ समझ लेते हैं। इसी प्रकार अन्य सत्कर्म कभी-कभी लोग करते ही हैं पर उनकी आड़ में अपने पाप छिपाने या सस्ती वाहवाही लूट कर जनता से अन्य कोई लाभ उठाने की मनोवृत्ति काम करती रहती है। नये वैद्य और नये वकील आमतौर से कितने ही लोग, सार्वजनिक संस्थाओं में प्रवेश करते देखे जाते हैं, अपना परिचय बढ़ाते हैं और जैसे ही लोगों की सहानुभूति का लाभ मिलने लगा, अपना धन्धा जम गया वैसे ही लोकसेवा का बाना उतार देते हैं। कितनी ही संस्थाओं में काम करने वाले बहुधा स्वल्प श्रम से अधिक प्रतिष्ठा और अधिक आजीविका कमाने के लिये आते हैं। उसी से वे लाभदायक पदों को अपने लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं, दूसरों के लिए जगह खाली नहीं करते। इसी बात को लेकर गुटबन्दी होती है और संस्थाएँ नष्ट हो जाती हैं। धर्म और परमार्थ का आवरण ओढ़कर अगणित व्यक्ति अपना उल्लू सीधा करते हैं और भोली जनता को लूटते खाते रहते हैं। बाहर से देखने में उनका कार्यक्रम धर्मयुक्त, लोक सेवा जैसा लगता है पर वास्तविकता परखने पर ढोल की पोल स्पष्ट हो जाती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि ऊपरी प्रयत्नों से अच्छे काम कराये भी जाने लगे और भीतरी स्तर को बदला न गया तो उससे कोई वास्तविक प्रयोजन सिद्ध न होगा। विचारों में श्रेष्ठता और उत्कृष्टता की मात्रा एवं आस्था जितनी परिपक्व होगी, उतना ही श्रेष्ठ सत्कर्म बन पड़ना संभव होगा। युग परिवर्तन दिखाई तब देगा जब श्रेष्ठ सत्कर्मों का बाहुल्य परिलक्षित हो और यह स्थिति तब आवेगी जब अन्तःकरण के गहन स्तर तक विचारों में परिवर्तन हो। लोग अनुचित को छोड़कर उचित को हृदयंगम करने लगें तो फिर श्रेष्ठ सत्कर्मों की अभिवृद्धि में कोई बाधा नहीं रह जाती। फिर सतयुग सामने ही तो उपस्थित होगा।
भारत का प्राचीन गौरव और वर्चस्व पुनः वापिस लाना हो तो उसी समय जैसी उत्कृष्ट विचारधारा को भी व्यापक बनाना होगा। हमारा प्रधान कार्यक्रम यही है। इसे विचार क्रान्ति, बौद्धिक क्रान्ति, हृदय परिवर्तन आन्दोलन, जो कुछ भी नाम दिया जाय, हमारा प्रयोजन यही है। सड़ी गली दुनिया के स्थान पर सर्वांग सुन्दर संसार का निर्माण करना इस एक ही तरीके से संभव हो सकता है कि लोगों के विचार करने का वर्तमान ढंग उलट-पलटकर रख दिया जाय। स्वार्थ, संकीर्णता, वासना और तृष्णा की आसुरी महत्वाकाँक्षाओं को संयम, सदाचार, स्नेह, सौजन्य सेवा एवं सज्जनता में परिवर्तित कर दिया जाय तो बदला हुआ युग उपस्थित होने में फिर कोई अड़चन शेष न रह जायगी।
विचार क्रान्ति के लिए यों छुट पुट प्रयत्न होते ही रहते हैं, पर उनका आधार राजनैतिक एवं सामाजिक स्तर एक सीमित रहने से तात्कालिक छोटी-मोटी सफलताएँ ही मिलकर समाप्त हो जाती हैं। जिन लोगों ने स्वराज्य आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर काम किया था, सत्ता हाथ में आने पर उनमें से कितने ही स्वार्थ साधन में लग गये। बात यह थी कि उनमें उथले स्तर के राजनैतिक प्रयोजन भर तक के विचार थे। यदि वे आध्यात्मिक स्तर तक उतर गये होते तो फिर वे आजीवन राष्ट्र निर्माण को ऊँची कक्षा में ही कार्य करते हुए दृष्टिगोचर होते। जो ऐसे स्वतन्त्रता सैनिक थे वे आज भी सर्वोदय या दूसरे रचनात्मक कार्यों में संलग्न है। प्रयत्न यही होना चाहिए कि विचार क्रान्ति का आधार धर्म और अध्यात्म रहे ताकि उन्हें अपनाने वाला अपनी आन्तरिक महानता विकसित करते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता भरे आदर्श उपस्थित करता रहे।
अखण्ड-ज्योति द्वारा संचालित विचार क्रान्ति का युग निर्माण आन्दोलन इसी स्तर का है, इसलिए उसके प्रतिफल-स्वर्ग को धरती पर उतरने के रूप में निश्चित है। अपने प्रयास जितने तीव्र होंगे लक्ष्य की पूर्ति उतनी ही सरल एवं शीघ्र सम्मुख आती दिखाई देगी। इस गुरुपूर्णिमा से यह अभियान अत्यन्त सुव्यवस्थित रूप से आरम्भ हो गया है। यों छुट-पुट प्रयत्न तो गत 26 वर्षों से चल रहे थे, अब उसे पूर्णतया सुचारु रूप से चलाने की पद्धति जिस उत्साह एवं जिस तत्परतापूर्वक आरम्भ की गई है उससे हर उज्ज्वल भविष्य की आशा करने वाले आस्थावान् व्यक्ति की आँखें चमकने लगी हैं।
परिवार के प्रबुद्ध परिजनों पर इस बात के लिए जोर डाला गया है कि उन्हें अखण्ड-ज्योति के पाठक मात्र न रह कर अपने आप को युग निर्माता के रूप में परिणत करना चाहिए। एक घंटा समय और एक आना दैनिक इस ज्ञान यज्ञ के लिए समर्पित करते रहने का व्रत लेना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि यह अनुरोध परिजनों ने ध्यानपूर्वक सुना और भावनापूर्वक समझा है। प्रेम का अर्थ ही त्याग है। जो व्यक्ति देश, धर्म, समाज और संस्कृति को सच्चा प्यार करता होगा उसे अपने इन आराध्यों के लिए कुछ त्याग भी करना ही पड़ेगा। जो त्याग की बात सुनते ही घबराता और पीछे हटता है वह प्रेमी नहीं कहा जा सकता। आदर्शवाद का पौधा त्याग बलिदान की खाद, पानी पाये बिना पनप ही नहीं सकता, मानव जीवन की श्रेष्ठता का निखार सोने की तरह तपाये, काटे और घिसे जाने पर ही संभव है। जो दीपक की तरह जलना नहीं चाहता वह प्रकाशवान भी नहीं हो सकता। यह तथ्य जिन लोगों ने विगत कई वर्षों में निरन्तर सीखे हैं, उनके लिए यह तनिक भी कठिन नहीं था कि युग की चुनौती के रूप में यदि कोई छोटा कार्यक्रम सामने रखा गया है तो उसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लें। हुआ भी यही है। परिवार के अधिकाँश परिजनों ने अपने आपको अब विचार क्रान्ति के अग्रदूतों के रूप में परिणत कर लिया है। वे सच्चे, कर्मठ एवं आदर्शवादी युग निर्माता की तरह अपने कंधों पर आये हुए उत्तरदायित्वों का पालन करेंगे।
इस गुरुपूर्णिमा पर दस हजार परिजनों ने इस प्रकार की प्रतिज्ञायें ली हैं। वे नियमित रूप से एक घंटा समय विचार क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करने में लगाया करेंगे। इसमें से हर एक को न्यूनतम दस व्यक्तियों का अपना ‘सेवा क्षेत्र’ चुनना पड़ेगा। नव निर्माण के लिए जिस प्रखर विचारधारा का प्रवाह इन दिनों गतिशील किया जा रहा है, उसे कम से कम दस व्यक्तियों तक नियमित रूप से पहुँचाना होगा। अखण्ड-ज्योति, युग निर्माण योजना पाक्षिक एवं क्रान्तिकारी ट्रैक्ट माला को अपने क्षेत्र में सदस्यों को पढ़ाने या सुनाने के लिए एक घण्टा समय लगाया जाय, उनके प्रस्तुत विषयों पर चर्चा एवं विचार विनिमय करते रहा जाय तो कोई कारण नहीं कि वे विचार परिवर्तन की दिशा में उन्मुख न हो सकें।
दस हजार युग निर्माता यदि दस-दस व्यक्तियों का भी प्रशिक्षण करेंगे तो न्यूनतम एक लाख व्यक्तियों के ऊपर विचार क्रान्ति का सक्रिय प्रयोग आरम्भ हो जायगा। यों अखण्ड-ज्योति के 40 हजार सदस्यों में से केवल 10 हजार ही सक्रिय कार्यकर्ता निकले और वे केवल दस का ही प्रशिक्षण करें ऐसी बात नहीं। इससे बहुत अधिक होना है। कितने ही कर्मठ सहयोगी ऐसे हैं जो हर वर्ष 108, 240 या 1000 तक अखण्ड-ज्योति सदस्य बनाया करते हैं। क्या ऐसे लोग केवल 10 का ही प्रशिक्षण करके चुप बैठे रहेंगे? फिर इन दिनों 100 के लगभग वानप्रस्थ बने हैं वे क्या दस व्यक्तियों तक ही अपनी गतिविधियाँ सीमित रखेंगे? चालीस हजार परिजनों में से दस हजार ही सक्रिय रहें और शेष निष्क्रिय हो जाये ऐसा भी संभव नहीं। यह संख्या बढ़ेगी ही। इस प्रकार अभी दस हजार कर्मयोगियों द्वारा एक लाख व्यक्तियों को विचार क्रान्ति के छात्रों के रूप में प्रशिक्षित किया जा रहा है, यह संख्या भी कम संतोष, गर्व और हर्ष की नहीं है। एक लाख छात्रों का यह विचार क्रान्ति विश्व विद्यालय आज की परिस्थितियों में अनुपम एवं अभिनव ही कहा जा सकता है। जीवन निर्माण की कला सिखाने, विवेक सम्मत विचारधारा अपनाने, नव निर्माण के लिए त्याग, बलिदान करने के कटिबद्ध करने के लिए ऐसा प्रेरणा केन्द्र कोई था भी नहीं जो भारतीय जनता में मानसिक स्तर की अभिनव रचना कर सके। इस अभाव की पूर्ति के लिए अपना यह सत्प्रयत्न क्या महत्वपूर्ण नहीं है? आज यह प्रयास इतने विस्तृत देश को देखते हुए छोटा भले ही प्रतीत होता है पर कल उसके परिणाम दूरगामी होंगे। यह प्रशिक्षण एक लाख तक ही सीमित न रहेगा। आज के यह छात्र कल के युग निर्माण शिक्षक बनेंगे और उनके द्वारा अगली पीढ़ी की शिक्षा आरम्भ होगी। यह क्रम चक्रवृद्धि ब्याज की दर से बढ़ेगा तो कुछ ही वर्षों में समस्त संसार को, समस्त मानव जाति को आदर्शवादिता की प्रेरणा से अनुप्राणित कर सकना संभव होगा। वर्तमान कठिनाइयों और बुराइयों के प्रति क्षोभ व्यक्त करते रहने, उन्हें कोसते रहने से कुछ काम चलने वाला न था। प्रतिकार और उपचार से ही कुछ प्रयोजन सिद्ध होता है। अखण्ड-ज्योति परिवार की यह विचार क्रान्ति पद्धति ऐसी ही रचनात्मक प्रक्रिया है जिसका सुन्दर परिणाम हम थोड़े ही दिनों में प्रत्यक्ष देखेंगे।
नैतिक और सामाजिक क्रान्तियाँ यों गणना की दृष्टि से अलग-अलग गिनी जा सकती हैं, पर वस्तुतः ये विचारक्रान्ति के अंतर्गत ही आती है। विचार करने का तरीका जब तक न बदलेगा तब तक लोग वर्तमान अनैतिकताओं से ही चिपके रहेंगे और कोई छोटा-मोटा समाज सुधार बाहरी दबाव से आरम्भ भी कराया गया तो लोग उसे गुप-चुप तोड़ने की तरकीबें निकाल लेंगे। इन दिनों दहेज विरोधी वातावरण बनता चला जा रहा है अतएव लालची लोग बदनामी से बचने और लालच पूरा करने के लिए गुप-चुप दहेज लेने के हथकंडे चालू कर रहे हैं। कोई वास्तविक सुधार तभी संभव है जब उस सम्बन्ध में आवश्यक तथ्य जानने, वस्तुस्थिति को मानने एवं आदर्श को अपनाने का साहस उत्पन्न हो सके। यही विचार क्रान्ति का उद्देश्य है।
यह कार्य न केवल व्यक्तियों से होगा, न केवल विचारों से, उज्ज्वल भविष्य और उत्कृष्ट विचार दोनों का समन्वय ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर सकेगा। हम उत्कृष्ट विचारधारा का सृजन कर रहे हैं, इसे कागज के पन्नों के मात्र माध्यम से जन-साधारण को हृदयंगम न कराया जा सकेगा। इन्जेक्शन की दवा को शरीर में प्रवेश कराने के लिए और पैनी सुई की जरूरत पड़ती है। हमारे विचारों को जन-साधारण के अन्तःकरण तक उतारने के लिये परिजनों का व्यक्तित्व, समय, श्रम एवं मनोयोग नितान्त आवश्यक है। हम और हमारे परिजन दोनों ही मिलकर काम करेंगे तब कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा। यह प्रौढ़ विचारधारा जिसने लाखों व्यक्तियों का जीवन क्रम उलट-पलट कर रख दिया है जब सहस्रों परिजनों के माध्यम से जन-मानस में प्रवेश कराई जायगी तो उसका प्रभाव परिणाम जादू जैसा होगा। यह स्वर्ण सुगन्ध के समन्वय का योग अब प्रस्तुत ही किया जाना चाहिये था, सो हो भी रहा है।
यह गुरुपूर्णिमा मानव जाति को, भारतीय समाज को एक अभिनव उपहार देने आई है। दस हजार अध्यापकों द्वारा एक लाख छात्रों का नव-निर्माण प्रशिक्षण साधारण घटना नहीं है। निखरा व्यक्तित्व बनाने और उत्कृष्ट विचार धारा अपनाने के लिये जिन्हें भी प्रेरणा मिलेगी वे अगले दिनों उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमकेंगे। इन्हीं के द्वारा अगले दिनों ऐसा वातावरण बनाया जा सकेगा जिसके प्रवाह में बहते हुये सामान्य स्तर के लोग भी कुछ से कुछ बन सकें।
प्रबुद्ध आत्मा वाले मनस्वी परिजनों ने इस गुरुपूर्णिमा के अवसर पर उन युग निर्माताओं की सेना में अपना नाम लिखा लिया है जिन्हें एक घण्टा समय, एक आना नकद देकर अपने समीपवर्ती क्षेत्र में प्रकाशवान वातावरण उत्पन्न करने के लिये अपना योगदान देना है। इसके लिये परिजनों को आवश्यक प्रेरणा भी दी गई है। गत अंक में इसके लिये ‘श्रद्धांजलि फार्म’ भी लगाया गया था। जिनने उसे अभी न भरा हो, उनसे यह आशा की जायगी कि वे जल्दी ही इस आह्वान को स्वीकार करेंगे और यथा संभव शीघ्र ही युग परिवर्तन की, विचार परिवर्तन की प्रक्रिया को कार्यान्वित करने के लिये अपना प्रयत्न आरम्भ कर देंगे। अभी यह विचार परिवर्तन अभियान भले ही दस हजार निर्माताओं द्वारा एक लाख सद्भावी व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के रूप में आरम्भ हुआ हो पर वह दिन दूर नहीं, जब यह मिशन विश्वव्यापी बनेगा और उसका स्वरूप एक चलते फिरते महानतम विश्व विद्यालय के रूप में परिलक्षित होगा।