Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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असन्तुष्ट रहें न विक्षुब्ध; जिन्दगी हँस-हँस कर जियें
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आत्म विकास, दीर्घ जीवन, आत्म विश्वास एवं आनन्द प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि हम पूर्ण रूप से मानसिक रोगों से मुक्त रहें। असन्तोष तथा विक्षोभ जैसे मानसिक उद्वेग, मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति में बाधक होते हैं। प्रसन्नता, संतोष और अन्य सतोगुणी सम्पदायें मानसिक रूप में मनुष्य को स्वस्थ रखती हैं इससे वह अपने लक्ष्य की ओर तत्परता से बढ़ता हुआ चला जाता है। लौकिक जीवन भी सुखमय बना रहता है और पारलौकिक ध्येय में भी अनस्थिरता नहीं आती।
स्वर्ग यहीं पर है। यह सर्वत्र बिखरा पड़ा है। जहाँ भी उद्वेग रहित मस्तिष्क, शुद्ध हृदय और पवित्र अन्तःकरण है वहाँ स्वर्ग है। यह समस्त संसार आनन्द से ओत-प्रोत है किन्तु जो तृष्णा, असन्तोष तथा आत्म-ग्लानि के बोझ से दबे जा रहे हैं वे न इसे देख सकते हैं न सुन सकते हैं। उसमें भाग लेकर अपने जीवन को उल्लासमय रखने के लिये यह स्वर्ग आप को प्रति क्षण पुकारता रहता है। कोई व्यक्ति न तो स्वर्ग से वंचित है और न हठात् किया जाता है। परेशानी केवल इतनी है कि अपने मानसिक संस्थान में क्षोभ और असन्तोष की आग भड़का कर लोग स्वयं ही उससे सम्बन्ध विच्छेद किये रहते हैं। इस अवाँछनीय स्थिति को दूर कीजिये। प्रसन्नता आपकी सहचरी है उसे प्राप्त कीजिये। जिन्दगी घुट-घुट कर नहीं हंस-हँस कर मस्ती में बिताने के लिये है। जब हम अपने मस्तिष्क को उद्वेग-ग्रन्थियों से उन्मुक्त कर देंगे, सर्वत्र आनन्द ही आनन्द फैला दिखाई देगा।
जो मनुष्य संशयों से व्याकुल है, जो राग में फँसा है, जो केवल शारीरिक भोगों का ध्यान करता है, उसकी तृष्णा बढ़ती जाती है। ऐसा पुरुष अपनी जंजीरों को कसता जाता है। स्वयं ही दुःखों में जकड़ता जाता है। परन्तु जिस मनुष्य ने अपने संशय दूर कर लिये हैं, जो सावधान है, जिसे थोड़ा मिले तो भी सन्तुष्ट रहे, वह भोगों के अशुभ गुणों पर विचार नहीं करता, उसका जीवन सुखी रहता है और पाप-बन्धनों से वह मुक्त हो जाता है।
कई लोगों का जीवन ऐसा नहीं होता। धन की अतृप्त तृष्णा उन्हें सताती है, भोगों की ओर जी लगा रहता है, यश पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की हवस उन्हें हर घड़ी नाच-नचाती रहती है। वे समझते हैं उनके क्लेश का कारण कोई और है, इसी से उनके मन में बराबर खीझ बनी रहती है। धन न होना कोई अभिशाप नहीं है। वास्तव में दरिद्री वही है जिसमें भारी तृष्णा है। जहाँ मन सन्तुष्ट रहता है वहाँ धनवान और निर्धन होने की असमानता का विचार भी नहीं होता। सन्तोषी सबसे बड़ा धनी है। धन की इच्छा होगी तो दीनता उत्पन्न होगी ही। कमाई अधिक कर ली तो उससे अभिमान जरूर बढ़ेगा फिर यदि वह नष्ट हो गया तो शोक बढ़ना स्वाभाविक है इसलिये जो निस्पृह है सन्तोषी है, वही सुख में रहता है।
आज जब कि राजनैतिक, सामाजिक शैक्षणिक, आर्थिक, सामरिक, औद्योगिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों में सतर्कता व लगन से काम करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं तब भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू उपेक्षित-सा पड़ा है वह है मनुष्य को स्वस्थ तथा हँसी खुशी का जीवन जीना सिखाने की योजना। उद्योग और अर्थ विकास के साथ-साथ मनोविकास होना भी आवश्यक है अन्यथा बढ़े हुये साधनों से मनुष्यों को कोई प्रसन्नता नहीं मिलेगी वह केवल क्षुब्ध और असन्तुष्ट ही बना रहेगा। साधन जितना बढ़ेंगे आवश्यकतायें भी उतना ही बढ़ती रहेंगी और सारे मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट कर डालेंगी। ऊपर से वह सम्पन्न दिखाई देगा किन्तु आन्तरिक जीवन में कोई सरसता न होगी।
दैवी हृदय के मनुष्य शोक और यातना विहीन होते हैं। मनुष्य का सच्चा जीवन प्रचुर और अमिश्रित सुख है-इस बात को समझकर वे कभी असन्तुष्ट या विक्षुब्ध नहीं होते। हतोत्साह, निराशा, शोक ये आनन्दजन्य उद्वेग स्वार्थपरायणता तथा कामना के प्रतिबिम्बित पक्ष हैं। इन दुर्गुणों का परित्याग कर दे, तो ये परिणाम स्वयं ही दूर हो जाते हैं। तब केवल दैवी आनन्द शेष रह जाता है। जो कुछ अभी होने वाला है, उसके सम्बन्ध में चिन्ता न करें। जो कुछ हो चुका उसको बार-बार याद करना भी भूल है। जो कुछ वर्तमान है उसे केवल आत्म-विकास का साधन समझिए और उसी शस्त्र से जीवन संग्राम लड़िए। परिस्थितियों के हाथ अपना जीवन वैभव मत बेचिए।
संसार के सभी प्राणी यदि किसी बात में एक स्वर से सहमत हैं तो वह केवल ‘दुःख से छुटकारा पाने की चेष्टा’ करना ही है। क्या बूढ़े, क्या बालक, क्या मनुष्य, क्या पशु-पक्षी दुःख के नाम से सभी घृणा करते हैं। प्रयत्न करने पर भी मनुष्य आपत्ति के चंगुल से बच नहीं पाता। इस का कारण भी जीवन में निर्द्वन्दता का अभाव होना है। दुःख निरा घृणास्पद ही है पर उसका मूल कारण असन्तोष की वृत्ति ही इस बात की जिम्मेदार है, अतः जीवन में प्रसन्नता को ओत-प्रोत होने देने के लिए हमारा जीवन कामना शून्य, सन्तुष्ट वृत्ति का होना चाहिये।
आप सुख के लिये निर्मित हुये हैं। आप स्वर्ग के पुत्र हो। शुद्धता, विवेक , प्रेम, प्रचुरता, आनन्द तथा शान्ति ये वस्तुयें इस संसार की चिरन्तन यथार्थतायें हैं, वे मनुष्य के लिये दैवी वरदान हैं पर मानसिक संतृष्णाओं में रहकर आप उनसे वंचित ही बने रहेंगे। अपने विचार जगत को इस तरह स्वच्छ करने का प्रयत्न करें कि उसमें कोई धब्बा शेष न रह जाय। व्यावहारिक जगत में यह बात कुछ कठिन-सी लगती है। आजीविका-व्यापार में ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब मनुष्य के विचार शुद्ध नहीं रहते। उनमें कोई न कोई विकार आ टपकता है, और सारी मनोभूमि को गन्दा करके रख देता है। अन्धकार घनीभूत हो रहा हो तो प्रकाश की एक किरण उसे मिटा डालती है। मनोविकारों का अन्धकार सन्तोष के दैवी प्रकाश से ही दूर होता है। सन्तोष अंतर्जगत में ऐसे वातावरण की सृष्टि करता है जिससे सारे मनोविकार आकर धुल जाते हैं।
मनुष्य सन्तुष्ट होकर जीना सीख जाय तो फिर उसके लिये संसार में कोई दुःख शेष न रहे। प्रत्येक वस्तु को सुख तथा आनन्द में रूपांतरित कर लेना मुख्यतः दैवी मनुष्यों का ही कार्य तथा कर्तव्य है। प्रत्येक वस्तु को दरिद्रता तथा विपत्ति के रूप में देखना यह असन्तोष का लक्षण है जिसका अनुसरण साँसारिक वृत्ति के मनुष्य अचेतन होकर किया करते हैं। सन्तोष एक शक्ति है जो प्रत्येक वस्तु को शक्ति तथा सौंदर्य के रूप में परिणत कर देती है। यह दरिद्रता में भी प्रचुरता, दुर्बलता में भी शक्ति , कुरूपता में भी सुडौलता, कटुता में भी मधुरता, अन्धकार में भी प्रकाश उत्पन्न करता है तथा अपने प्रभाव से कमजोर परिस्थितियों में भी आनन्द पूर्ण स्थिति बना लेता है।