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Magazine - Year 1965 - Version 2

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बालकों का विकास इस तरह होगा।

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बच्चों के विकास की समस्या यदि देखा जाये तो उन प्रमुख समस्याओं में से है जिनसे राष्ट्र का निर्माण होता है। यह उत्तरदायित्व प्रत्येक माता पिता का है कि उनके बालक सभ्य सुसंस्कृत तथा प्रतिभावान् हों। इस जिम्मेदारी का, उदारता पूर्वक धैर्य और विवेक के साथ पालन न किया जाय तो बालकों का दुर्गुणी होना-स्वाभाविक है। चरित्र का संगठन बालक की अबोधावस्था से ही प्रारम्भ होना चाहिये।

प्रायः एक वर्ष की अवस्था से ही बालक अपने मनोवेग प्रदर्शित करने लगते हैं। इसी अवस्था में वे अपने समीपस्थ लोगों के हावभाव बड़ी जिज्ञासा पूर्वक देखते हैं। डाँटने, धमकाने आदि की प्रतिक्रिया भी उनमें उठने लगती है, अनुकरण की प्रवृत्ति भी प्रायः इसी अवस्था से प्रारम्भ हो जाती है। उनकी निजी उमंग और दूसरों के क्रिया-कलापों का अनुकरण-इन दो बातों का निरीक्षण इन दिनों भली भाँति न किया जाय और उन्हें अधम तरीके से रखा जाय तो उनके चरित्र में ओछापन आ सकता है। गौर कीजिये आपका बालक इस अवस्था में कुछ सीखने लगता है कृपया कोई गन्दी बातें न प्रदर्शित किया कीजिये।

बालक की रुचि इस बात में नहीं होती कि उसके प्रति आपकी भावनायें क्या हैं। संतान के प्रति दुर्भावनायें प्रायः लोगों में होती भी नहीं किन्तु इस समय बालक आपके-व्यवहार की प्रतीक्षा करता है और आचरण से सीखने का प्रयास करता है। एक प्रोफेसर साहब जब पुस्तकें पढ़ते थे तो अपने बच्चे का मन बहलाने के लिये कभी कभी पुस्तक की तसवीरें दिखाने का प्रयत्न करते थे। बच्चा इसमें तो अपनी रुचि प्रदर्शित नहीं करता था किन्तु वह खड़ा होकर किताब के पन्ने पलटने लगता था। चित्र दिखाने की भावना को इस उम्र में समझना कुछ कठिन है किन्तु प्रोफेसर साहब पुस्तक पढ़ते समय जो बार बार पेज पलटते थे वह क्रिया बालक के मन को अधिक प्रभावित कर सकी। तात्पर्य यह है कि इस उम्र में बालक आपके व्यवहार और आचरण का अनुकरण करते हैं भावनाओं का नहीं यह एक बात हुई। मुख्यतया बालकों के सामने गन्दे हाव-भावों का प्रदर्शन बिलकुल नहीं करना चाहिये।

एक वर्ष की उम्र हो जाने से बालक अपनी उमंगें, अपने संस्कार भी प्रदर्शित करने लगता है। सूक्ष्मता से निरीक्षण कीजिये कहीं उसमें खीझने के, खाने पीने के या गुम सुम रहने के लक्षण तो नहीं हैं यदि ऐसा हो तो बच्चे को डराइये नहीं, ऐसी क्रियायें कीजिये जिससे उसकी प्रसन्नता बढ़े। खाने से अरुचि उत्पन्न न हो और वह क्रिया शील रहने लगे। पर यदि बालक में प्रसन्न रहने, खेलने कूदने तथा किसी वस्तु को बड़े गौर से देखने की आदत हो तो उसके इन गुणों पर अपनी प्रसन्नता भी मिलाइये। हाथ ऊँचा उठाकर बच्चे को आशीर्वाद दीजिये, बढ़ावा दीजिये ताकि उसकी स्वाभाविक उमंग को बल मिल सके। दूसरी बात हुई बालक की प्रतिभा का स्वाभाविक विकास।

उसकी स्वाभाविक उमंगों और घर के सदस्यों के हाव-भाव और क्रिया कलापों में सुन्दर सामंजस्य होने दीजिये ताकि बालक का विकास न रुकें। छोटा पौधा लगाते हैं तो दो काम करते हैं उसको बढ़ने की उमंग न रोकना, अपनी ओर से थोड़ा खाद पानी देकर उसे बढ़ने देना। यह दोनों सिद्धान्त ठीक इसी तरह बालकों पर भी लागू होते हैं उनके विकास की ये दो शर्तें प्रमुख हैं।

बालक की यह स्थिति परिपक्व होने लगती है। उनकी मानसिक शक्ति का विकास होने लगता है। अतः प्रारम्भिक काल में बच्चे को मारने पीटने, डाँटने-डपटने धमकाने-डराने और उन्हें कठोर नियंत्रण से बचाने का प्रयत्न करना चाहिये अन्यथा उसका अन्तर्मार्ग जटिल ग्रन्थियों से ग्रसित हो जायगा। पौधे को झाड़-झंखाड़ों से दबाकर रखें तो बौना हो कर रह जाता है। बच्चे का मस्तिष्क भी बौना होकर रह जायगा अगर आपने उसके मनमें भय उत्पन्न कर दिया। यह अवस्था बच्चे के लिये स्नेह, प्यार और दुलार की होती है। आप उसे दुराव-दुत्कार देकर निराश न होने दीजिये। अन्यथा उस के मस्तिष्क का उपजाऊपन बैठ जायगा।

तीन वर्ष के बाद बालक अभिभावकों की भावनायें समझने लगता है। पूर्व में जो अनुभव तथा संवेदनायें प्राप्त हुई थीं अब वे क्रिया शील होने लगती है और बच्चा इनमें अपनी रुचि दिखाने लगता है। प्रत्येक परिस्थिति को वह समझने भी लगता है। जब तक केवल अनुकरण की बात थी तब तक वह स्थायी नहीं थी किन्तु समझ कर करने से कर्म में स्थायित्व आने लगता है अर्थात् उसका स्वभाव पुष्ट होने लगता है। इसलिये अब यह देखना चाहिये कि वह जो कुछ कर रहा है उसमें उस के विचारों की दिशा क्या है। बालक की सामर्थ्य अल्प होती है इसलिये अपने विचारों को वह कार्य में तो पूर्ण रूप से परिणित नहीं कर सकता पर उसकी चेष्टाओं से उसकी—अंतर्भावनायें व्यक्त हो जाती हैं। इसलिये अब उसके सामने रुचिकर, शिक्षात्मक और सुबोध प्रसंग उपस्थित करना चाहिये। बच्चा चित्र देखना चाहता है तो उसे सुन्दर भाव भंगिमा वाले चित्र दिखाइये। शिक्षात्मक पशु पक्षियों की कहानियाँ, गाने आदि में उसे पर्याप्त रस मिलता है। पर सावधान, अब उसकी बुद्धि भी क्रियाशील हो उठी है इसलिये ध्यान रखिये कहीं आप उसे अश्लील चित्र, भद्दी कहानियाँ और बुरे गाने तो नहीं सुनाते। इनका दूषित प्रभाव बच्चे के कोमल अन्तःकरण पर पड़ता है इसलिये आप जो भी करते हैं उसमें रुचि, सद्भावना और कोमलता का ध्यान जरूर बनाये रखिये।

इस उम्र में प्रायः बालक हठीले हो जाते हैं। अभिभावक उन पर बेतरह झुँझलाते और मार-पीट करने लगते हैं। इसमें दोष उन बच्चों का नहीं होता वरन् उनके माता पिता ही उन्हें ऐसा बना देते हैं। अनावश्यक प्यार जताकर उन्हें ऐसा कर दिया जाता है या बार बार डाँट-डपट कर उन्हें जिद्दी प्रकृति का बना दिया जाता है।

इस उम्र में बच्चों का उत्साह बढ़ाना चाहिये और छोटी-मोटी आदतों से स्वावलम्बन सिखाने का कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिये। योग्य शिक्षा के अभाव में—बालक का व्यक्तित्व अविकसित रह जाता है उसमें स्वयं के मस्तिष्क की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाने का भय बना रहता है। एडम मान्टसरी का कथन तो यह है कि इस उम्र में आने तक बच्चों की योग्यता इतनी बढ़ा देनी चाहिये कि वह स्कूली शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाय। सचमुच यह कोई असंभव बात भी नहीं है। बालकों का मस्तिष्क बिलकुल स्वच्छ तथा निर्मल होता है। विद्या का प्रभाव उस पर तात्कालिक होता है। यदि रुचि उत्पन्न कर दी जाय तो यही बालक आगे चलकर बड़े मेधावी और प्रतिभावान बन सकते हैं। ज्यों-ज्यों बालक की उम्र बढ़ती चले त्यों-त्यों उसके ज्ञान को बढ़ाते चलिये। परिस्थितियों की जानकारी तथा प्रत्येक विषय को सरल बनाकर समझाने की पद्धति का विकास करते जाइये।

बच्चे को अक्षर ज्ञान हो जाय और वह पाठशाला जाने लगे तो आपकी जिम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं। उसे अब ठीक तरह से कपड़े पहने की आदत डालनी चाहिये। हाथ, पाँव, मुँह, नाक, दाँत आदि से लेकर उसके कपड़ों को तथा बिस्तर की सफाई की ओर भी उसका ध्यान आकृष्ट करते रहिये। यहाँ भी उसे डराकर या धमकाकर मानसिक आघात पहुँचाने की आवश्यकता नहीं है।

जिस तरह स्वभाव की शिक्षा चलती है उसी तरह ज्ञान संवर्द्धन तथा भावनात्मक परिष्कार के लिये उसे छोटी-छोटी साहसिक, शिक्षाप्रद और चरित्र निर्माण की कथा कहानियाँ भी पढ़ाना चाहिये। बच्चों के मासिक निकलते है उनसे भी उसका ज्ञान विकास होता है। पौराणिक कथाओं में भी बालकों के निर्माण की बड़ी सामग्री है। चित्रकारी, मिट्टी के खिलौने बनाने की कला, संगीत, सुन्दर स्थानों पर भ्रमण, फूलों का परिचय, ज्ञान और उनकी ओर बालक का मानसिक झुकाव पैदा करना, पक्षियों के नाम इत्यादि बता कर उसका मन भी बहलाना चाहिये और इससे उनके ज्ञान प्राप्त करने की तृष्णा भी तृप्त होती है।

चौदह वर्ष की अवस्था बालक की प्रौढ़ावस्था मानी गई है इस उम्र तक बालक में ज्ञान की पिपासा, सदाचार, संयम, सेवा आदि के संस्कार परिपक्व कर देने चाहिये ताकि वह अपने शेष जीवन में इनको पूर्ण रूप से विकसित करता हुआ एक योग्य नागरिक बन सके। मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालकर बालक को संस्कारवान बनाने का उत्तरदायित्व प्रत्येक माता पिता को है इसे पूर्ण लगन और तत्परता के साथ निभाया जाना चाहिये।

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