• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • बनाने की सोचिये, बिगाड़ने की नहीं
    • संगीत की महिमा
    • प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता
    • दिव्य दृष्टि का बहुमूल्य संयंत्र - आज्ञाचक्र
    • Quotation
    • मंत्रविद्या और उसकी सुनिश्चित सामर्थ्य
    • Quotation
    • याद रखो
    • योग विद्या का वैज्ञानिक विश्लेषण
    • प्रार्थना का स्वरूप, स्तर और प्रभाव
    • आयु नहीं योग्यता
    • हमारे आदर्शवादी उपदेष्टा एवं सद्गुरु ऐंजाइम
    • छिपा हुआ धन-नया प्रमाण सनातन दर्शन
    • दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्ची ईश्वर उपासना है
    • तीसरी आँख लेकर परकाया प्रवेश तक
    • धर्मनिष्ठा आज की सर्वोपरि आवश्यकता
    • Quotation
    • अन्धविश्वास-सृजेता को भी खाता है।
    • शीत हमारा मित्र है - ताप शत्रु
    • चीन के महान तत्वदर्शी कन्फ्यूशियस
    • मधु वर्षा किसने की?
    • Quotation
    • रोगी न मारा जाय केवल रोग ही मरे
    • Quotation
    • एक हाथ में माला-एक हाथ में भाला के मंत्र दाता
    • श्रेष्ठता अपनाएं-प्रशंसा के योग्य बनें
    • सभ्यता और फैशन के नाम पर विषाक्त भोजन
    • तुम्हारी जड़ें ही खोखली हो गई थी
    • रासायनिक खाद बनाम भूमि की बरबादी
    • Quotation
    • भारतीय संस्कृति ही विश्व संस्कृति है।
    • सनातन सभ्यता का अभ्युदय अत्यन्त सन्निकट
    • Quotation
    • सच्ची हज
    • देश रक्षा के लिये कर्त्तव्यनिष्ठा की आवश्यकता
    • ईश्वर पर विश्वास
    • कुण्डलिनी और गायत्री साधना परस्पर पूरक
    • Quotation
    • गुरुदेव और उनकी दिव्य अनुभूतियाँ
    • मनुष्य जीवन में सुख-दुःख
    • साँस का सन्देशा
    • साँस का सन्देशा (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • बनाने की सोचिये, बिगाड़ने की नहीं
    • संगीत की महिमा
    • प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता
    • दिव्य दृष्टि का बहुमूल्य संयंत्र - आज्ञाचक्र
    • Quotation
    • मंत्रविद्या और उसकी सुनिश्चित सामर्थ्य
    • Quotation
    • याद रखो
    • योग विद्या का वैज्ञानिक विश्लेषण
    • प्रार्थना का स्वरूप, स्तर और प्रभाव
    • आयु नहीं योग्यता
    • हमारे आदर्शवादी उपदेष्टा एवं सद्गुरु ऐंजाइम
    • छिपा हुआ धन-नया प्रमाण सनातन दर्शन
    • दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्ची ईश्वर उपासना है
    • तीसरी आँख लेकर परकाया प्रवेश तक
    • धर्मनिष्ठा आज की सर्वोपरि आवश्यकता
    • Quotation
    • अन्धविश्वास-सृजेता को भी खाता है।
    • शीत हमारा मित्र है - ताप शत्रु
    • चीन के महान तत्वदर्शी कन्फ्यूशियस
    • मधु वर्षा किसने की?
    • Quotation
    • रोगी न मारा जाय केवल रोग ही मरे
    • Quotation
    • एक हाथ में माला-एक हाथ में भाला के मंत्र दाता
    • श्रेष्ठता अपनाएं-प्रशंसा के योग्य बनें
    • सभ्यता और फैशन के नाम पर विषाक्त भोजन
    • तुम्हारी जड़ें ही खोखली हो गई थी
    • रासायनिक खाद बनाम भूमि की बरबादी
    • Quotation
    • भारतीय संस्कृति ही विश्व संस्कृति है।
    • सनातन सभ्यता का अभ्युदय अत्यन्त सन्निकट
    • Quotation
    • सच्ची हज
    • देश रक्षा के लिये कर्त्तव्यनिष्ठा की आवश्यकता
    • ईश्वर पर विश्वास
    • कुण्डलिनी और गायत्री साधना परस्पर पूरक
    • Quotation
    • गुरुदेव और उनकी दिव्य अनुभूतियाँ
    • मनुष्य जीवन में सुख-दुःख
    • साँस का सन्देशा
    • साँस का सन्देशा (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1972 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


प्रार्थना का स्वरूप, स्तर और प्रभाव

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
प्रार्थना ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्वव्यापी और परमदयालु है, उसे हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। यह परमपिता और परम दयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा आवश्यकता पूरी करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहता है। फिर परमपिता और परम दयालु होने पर वह क्यों हमारी आवश्यकता को जानेगा नहीं। वह कहने पर ही हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनाई को समझे, यह तो ईश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुई। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों की अयाचित आवश्यकता भी पूरी करता है तब अपने परम प्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा? वस्तुतः प्रार्थना का अर्थ याचना है ही नहीं। याचना अपने आपमें हेय है क्योंकि वह दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसमें जुड़ी हुई है जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही है। चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय या भगवान के सामने झोली फैलाई जाय, बात एक ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में की जाय चाहे भगवान के घर मन्दिर में-बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया-चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिए शोभा नहीं देती।

वस्तुतः प्रार्थना का प्रयोजन अपने आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि वह इसका पात्र बने कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुरूप सहज ही मिल सकें। यह अपने मन की खुशामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है। आत्म-जागरण है। आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, हे शक्ति पुँज तू जागृत क्यों नहीं होता अपने गुण, कर्म स्वभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता। तू सँभल जाय तो सारी दुनिया सँभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्मलता खिंचती हुई अपने पास चली आये। अपनी सामर्थ्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाय तो दीन-हीन अभावग्रस्तों की पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहे।

प्रार्थना के माध्यम से हम विश्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिष्ठ संपर्क स्थापित करते हैं। आदर्शों की, भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भाव विह्वलता को सजग करते हैं। तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्म विस्मृति ने अपना स्वरूप एवं स्तर ही हेय बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिये अपने प्रसुप्त अन्तःकरण से प्रार्थना की जाय कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार हो जाय। अन्तःज्योति की एक किरण उग पड़े तो पग-पग पर ठोकर लगने के निमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाय जिसने शोक-संताप की विडम्बनाओं को सब ओर से आवृत्त कर रखा है।

‘परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है। पर उसके जिस अंश की हम उपासना प्रार्थना करते हैं वह सर्वात्मा एवं पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिए ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना तृष्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते हैं। इस भव बन्धन से मोह, ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म-स्तर से परमात्मा से यही प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करे जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार-दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।

लघुता को विशालता में-तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विशाल व्यापक बनकर परमात्मा के रूप में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से ऊँचा उठकर जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो उसे प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म-समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अपने को समर्पण करना ही ईश्वर के हमारे प्रति समर्पित होने की विवशता का एक मात्र तरीका है। ‘शरणागति’ भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया है। गीता में भगवान ने आश्वासन दिया है कि जो सच्चे मन से मेरी शरण में आता है उसके योग क्षेम की - सुख-शान्ति और प्रगति की जिम्मेदारी मैं उठाता हूँ। सच्चे मन और झूँठे मन की शरणागति का अन्तर स्पष्ट है। प्रार्थना के समय तन, मन, धन सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित करने की लच्छेदार भाषा का उपयोग करना और जब वैसा करने का अवसर आवे तो पल्ला झाड़कर अलग हो जाना झूठे मन की प्रार्थना है। आज इसी का फैशन है। जिस तरह व्यभिचारी किसी भोली लड़की को फँसाने के लिए लम्बे-चौड़े सब्ज-बाग दिखाता है और यह जानते हुए भी कि यह आश्वासन मुझे पुरे करने नहीं है, बढ़े-चढ़े विश्वास दिलाता है, कसमें खाता है। उसी प्रकार झूठे मन से की हुई प्रार्थना ईश्वर को ठगने बहकाने के लिए होती है। समर्पण शरणागति जैसे दिव्य स्तर का जो अर्थ समझता होगा वह इतना भी जानता होगा कि उसका तात्पर्य अपनी लिप्साओं को भगवान की इच्छाओं में परिणत कर देने-गतिविधियों को तृष्णा, विचारणा तथा आदर्शवादी क्रिया की इच्छानुसार उत्कृष्ट विचारणा तथा आदर्शवादी क्रिया पद्धति से अपने वर्तमान ढाँचे को बदलना ही होता है। जो इसके लिए तैयार होकर समर्पण शरणागति की बात करे उसी को सच्चे मन से प्रार्थना करने वाला कहा जायगा।

एक शराबी ने नशे में धुत होकर किसी के हाथों अपना मकान सस्ते दाम में बेच डाला होश आया तो अदालत में अर्जी दी कि नशे में होश-हवास ठीक न होने के कारण वह बिक्री की थी। अब होश में आने पर उस इकरारनामे से इनकार करता हूँ। पूजा, प्रार्थना के समय लोग न जाने क्या-क्या स्तुति, प्रार्थना करते हैं। मैं तेरी शरण में आया हूँ, तेरा ही हूँ, तेरे चरणों में पड़ा हुआ हूँ, मेरा तो तू ही है। तेरे सिवा मेरा कौन है।” आदि-आदि। वे इन शब्दों का अर्थ भी नहीं समझते और न फलितार्थ। जो शब्द कहे जा रहे हैं यदि वे समझ-बूझकर-होश-हवास में कहे गये होते तो जरूर उस स्थिति के अनुरूप जीवन क्रम ढालने और विचारों तथा कार्यों में उनका समावेश करने का प्रयत्न किया गया होता। पूजा स्थल से निकलते ही-जब उस प्रार्थना कथन को कार्यान्वित होने की आवश्यकता अनुभव होती है तब सब कुछ बहुत कठिन प्रतीत होता है। होश में आये हुए शराबी की तरह तब उस कथनी को करनी में परिणत न कर सकने की हिम्मत होने से यही कहना पड़ता है उस इकरारनामे से इनकार करता हूँ जो पूजा के समय सब कुछ भगवान को समर्पण करने वाली शब्दावली के साथ कहा गया था।

प्रार्थना में यही कामना जुड़ी रहनी चाहिए कि परमात्मा हमें इस लायक बनाये कि उसके सच्चे भक्त अनुयायी एवं पुत्र कहला सकने का गौरव प्राप्त करें। परमेश्वर हमें वह शक्ति प्रदान करे जिसके आधार पर भय और प्रलोभन से मुक्त होकर-विवेकसम्मत कर्त्तव्य-पथ पर साहसपूर्वक चल सकें और इस मार्ग में जो भी अवरोध आवें उनकी उपेक्षा करने में अटल रह सकें। कर्मों के फल अनिवार्य हैं। अपने प्रारब्ध भोग जब उपस्थित हों तो उन्हें धैर्य पूर्वक सह सकने और प्रगति के लिए परम पुरुषार्थ करते हुए कभी निराश न होने वाली मनःस्थिति बनाये रह सकें। भगवान हमारे मन को ऐसा निर्मल बना दें कि कुकर्म की ओर प्रवृत्ति ही उत्पन्न न हो और हो भी तो उसे चरितार्थ होने का अवसर न मिल पाये। मनुष्य-जीवन की सफलता के लिए गतिशील रहने की पैरों में शक्ति बनी रहे ऐसी उच्च स्तरीय प्रार्थना को ही सच्ची प्रार्थना के रूप में पुकारा जा सकता है, जिसमें धन, सन्तान, स्वास्थ्य, सफलता आदि की याचना की गई हो और जिसमें अपने पुरुषार्थ कर्त्तव्य के अभिवर्धन का स्मरण न हो ऐसी प्रार्थना को याचना मात्र कहा जायगा। ऐसी याचनाओं का सफल होना प्रायः संदिग्ध ही रहता है।

परा मनोविज्ञान वेत्ता डॉ. एमेली केडी ने लिखा है प्रार्थना, मात्र ईश्वर को धन्यवाद देने या उससे कुछ याचना करने की प्रक्रिया का नाम नहीं है। वरन् यह वह मनःस्थिति है जिससे व्यक्ति शंका और सन्देहों के जंजाल में से निकलकर श्रद्धा की भूमिका में प्रवेश करता है। अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धत मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना है। जिसमें यह संकल्प भी जुड़ा रहता है कि भावी जीवन परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार पवित्र और परमार्थी बनाकर जिया जायगा। ऐसी गहन अन्तस्तल से निकली हुई प्रार्थना जिसमें आत्म-परिवर्तन की आस्था जुड़ी हुई हो भगवान का सिंहासन हिला देती है। ऐसी प्रार्थना के परिणाम ऐसे अद्भुत होते हैं जिन्हें चमत्कार कहने में कुछ हर्ज नहीं है।

चिकित्सा शास्त्र पर नोबेल पुरस्कार विजेता एवं फ्रान्स के लियो विश्व विद्यालय के प्राध्यापक डॉ. कैरल ने अपनी प्रत्येक सफलता के पीछे ईश्वर की अनुकम्पा को छिपा हुआ देखा है। वे कहते थे तुच्छ मानव-प्राणी उन्नति के उस स्तर पर नहीं पहुँच सकता जहाँ साधारण लोग आमतौर से नहीं पहुँचते। इन विशिष्ट साधन, विशिष्ट परिस्थितियों और विशेष सूझ-बूझ के पीछे उन्होंने सदा यही कहा-यह वाहन अन्तरंग से निकलने वाली भाव भरी प्रार्थना की प्रतिक्रिया है उन्होंने अपनी चिकित्सा पद्धति के साथ औषधियों से अधिक प्रार्थना को महत्व दिया। वे हर रोगी से कहते थे सच्चे मन से प्रार्थना करो- अपनी भूलों के लिए पश्चाताप और भविष्य में निर्मल जीवन जीने की प्रतिज्ञा के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो वह जरूर सुनी जायगी। सच्चा इलाज तो पश्चाताप है और ईश्वर के चरणों में अपना समर्पण, जो ऐसा कर सकेगा वह शारीरिक ही नहीं आन्तरिक रोगों से भी छुटकारा पा लेगा।

महात्मा गाँधी ने अपने एक मित्र को लिखा था - “राम नाम मेरे लिए जीवन अवलम्बन है जो हर विपत्ति से पार कराता है।” जब तुम्हारी वासनायें तुम पर सवार हो रही हों तो नम्रता पूर्वक भगवान को सहायता के लिए पुकारो, तुम्हें सहायता मिलेगी।”

जब मन दुर्बल हो रहा हो-मनोविकार बढ़ रहे हों और लगता हो कि पैर अब फिसला। तो सच्चे मन से प्रभु को पुकारना चाहिए। गज को ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान-पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल आर्त भक्त की पुकार अनसुनी नहीं करते हैं और उस मनोबल के रूप में अन्तःकरण में उतरते हैं जिसे गरुड़ कह सकते हैं और जो पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों को उदरस्थ करते रहने का अभ्यासी है।

भगवान को आत्म-समर्पण करने की स्थिति में जीव कहता है-तस्यैवाहम् (मैं उसी का हूँ) तवैवाहम् (मैं तो तेरा ही हूँ) यह कहते कहते उसी में इतना तन्मय हो जाता है-इतना घुल-मिल जाता है कि अपने आपे का विसर्जन, विस्मरण ही कर बैठता है और अपने को परमात्मा का स्वरूप ही समझने लगता है। तब वह कहता है-त्वमेवाहन् (मैं तो तू ही हूँ) शिवोऽहम् (मैं ही शिव हूँ) ब्रह्माऽस्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ)।

भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाया होने की अनुभूति, की जब इतनी प्रबलता उत्पन्न हो जाय कि उसे कार्य रूप में परिणत किये बिना रहा ही न जा सके तो समझना चाहिए कि समर्पण का भाव सचमुच सजग हो उठा। ऐसी शरणागति व्यक्ति को द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती है और यह गतिशीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता समेत भक्त के चरणों में शरणागत होना पड़ता है। यों बड़ा तो भगवान ही है पर जहाँ तक प्रार्थना, समर्पण और शरणागति की साधनात्मक प्रक्रिया का संबंध है इस क्षेत्र में भक्त को बड़ा और भगवान को छोटा माना जायगा क्योंकि अक्सर भक्त के संकेतों पर भगवान को चलते देखा गया है।

First 9 11 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • बनाने की सोचिये, बिगाड़ने की नहीं
  • संगीत की महिमा
  • प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता
  • दिव्य दृष्टि का बहुमूल्य संयंत्र - आज्ञाचक्र
  • Quotation
  • मंत्रविद्या और उसकी सुनिश्चित सामर्थ्य
  • Quotation
  • याद रखो
  • योग विद्या का वैज्ञानिक विश्लेषण
  • प्रार्थना का स्वरूप, स्तर और प्रभाव
  • आयु नहीं योग्यता
  • हमारे आदर्शवादी उपदेष्टा एवं सद्गुरु ऐंजाइम
  • छिपा हुआ धन-नया प्रमाण सनातन दर्शन
  • दरिद्रनारायण की सेवा ही सच्ची ईश्वर उपासना है
  • तीसरी आँख लेकर परकाया प्रवेश तक
  • धर्मनिष्ठा आज की सर्वोपरि आवश्यकता
  • Quotation
  • अन्धविश्वास-सृजेता को भी खाता है।
  • शीत हमारा मित्र है - ताप शत्रु
  • चीन के महान तत्वदर्शी कन्फ्यूशियस
  • मधु वर्षा किसने की?
  • Quotation
  • रोगी न मारा जाय केवल रोग ही मरे
  • Quotation
  • एक हाथ में माला-एक हाथ में भाला के मंत्र दाता
  • श्रेष्ठता अपनाएं-प्रशंसा के योग्य बनें
  • सभ्यता और फैशन के नाम पर विषाक्त भोजन
  • तुम्हारी जड़ें ही खोखली हो गई थी
  • रासायनिक खाद बनाम भूमि की बरबादी
  • Quotation
  • भारतीय संस्कृति ही विश्व संस्कृति है।
  • सनातन सभ्यता का अभ्युदय अत्यन्त सन्निकट
  • Quotation
  • सच्ची हज
  • देश रक्षा के लिये कर्त्तव्यनिष्ठा की आवश्यकता
  • ईश्वर पर विश्वास
  • कुण्डलिनी और गायत्री साधना परस्पर पूरक
  • Quotation
  • गुरुदेव और उनकी दिव्य अनुभूतियाँ
  • मनुष्य जीवन में सुख-दुःख
  • साँस का सन्देशा
  • साँस का सन्देशा (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj