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Magazine - Year 1972 - Version 2

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मनुष्य को अपना मूल्य स्वयं मालूम नहीं होता, इसलिए वह दूसरों से अपनी बाबत पूछता रहता है। औरों की राय जानना चाहता है। और जब वे निन्दा करने लगते हैं तब बुरा प्रतीत होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसकी अपने बारे में अपनी कुछ राय नहीं है और है तो उसकी कुछ कीमत नहीं है। दूसरे लोगों ने जिन्हें कि उसके बारे में बाहरी, अधूरी और सुनी सुनाई बातों के आधार पर जो राय कायम की है वह उतनी सही या महत्वपूर्ण नहीं हो सकती कि उसे वजनदार माना जाय और किसी ने जो कुछ जल्दबाजी में कह दिया उसी को सही मानकर प्रसन्न हुआ जाय या अप्रसन्नता व्यक्त की जाय।

हमें अपने बारे में अपनी राय आप करनी चाहिए और उसी को सही तथा वजनदार मानना चाहिए। यदि हम अच्छे हैं नीयत के साफ हैं, और सही राह पर चल रहे हैं तो फिर कोई कारण नहीं कि किसी अजनबी या दूरवर्ती की - ना समझी से की हुई निन्दा का दुख माना जाय। इसी प्रकार यदि हम बुरे हैं, बुरे विचारों से ग्रसित हैं, ईमान गँवा चुके हैं और गलत रास्ते पर चल रहे हैं तो उन चापलूस या गुमराह लोगों की क्या कीमत हो सकती है जो इतने पर भी प्रशंसा करते हैं। ऐसे प्रशंसकों की कीमत धूलि की बराबर भी नहीं समझी जानी चाहिए जिन्होंने या तो किसी बहकावे में आकर हमारी असलियत को पहचान नहीं पाया या फिर कोई मतलब गाँठने के लिए स्याह को सफेद कहने की धूर्तता कर रहे हैं। ऐसे लोगों की प्रशंसा की भी क्या कीमत जो बिना सचाई को तलाश किये ऐसे ही चाहे जो मानने लगते हैं या चाहे जो कहने लगते हैं।

बात का वजन उसकी का होता है जो स्वयं वजनदार हो। सौ मूर्खों की प्रशंसा की अपेक्षा समझदार की निंदा अच्छी, जिसने बात को गहराई तक समझा और तब अपनी राय कायम की। इसी प्रकार सौ मूर्खों की निन्दा की परवा न करके उस एक समझदार आदमी की प्रशंसा को महत्व देना चाहिए जो वास्तविकता का पता लगाता है और विचार व्यक्त करने से पहले इंसाफ और सचाई को ध्यान में रखकर ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है। ऐसे आदमी दुनिया में कम हैं, जिनमें वास्तविकता समझने की तीक्ष्ण बुद्धि हो। ऐसे लोग भी कितने हैं जो जैसा समझते हैं वैसा ही कहने का साहस कर सकें? होता यह है कि विरोध मोल न लेने की कायरता या भय से कड़ुई सच्चाई को कहने से डरते हैं और बुरे को बुरा कहने को तैयार नहीं होते, जबकि असफल व्यक्ति का मजाक कोई भी उड़ा सकता है और उसे बेवकूफ बना सकता है। भले ही वह असफलता उसकी गलती से नहीं, परिस्थितियों की पेचीदगी से तथा लोगों की दगाबाजी से उपस्थित हुई है। झूठे को झूठ कहने वाले कम हैं। अपना उल्लू सीधा होता दीखे तो लोगों को सच के लिए झूठ और झूठ के लिए सच कहने में देर नहीं लगती। जब ऐसे कमजोर लोगों से दुनिया भरी पड़ी हो तब किसी की राय की कीमत ही क्या हो सकती है।

हमें दूसरों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए उत्सुक नहीं रहना चाहिए और न किसी के द्वारा व्यक्त की गई निन्दा से दुःख मानना चाहिए। अपने बारे में अपनी राय कायम करना ठीक है। क्योंकि उसी से वास्तविकता होती है। अपने बारे में जितना हम स्वयं जानते हैं उतना और कौन जान सकता है? किसी के मन की बात किसी दूसरे को क्या पता है? किये हुए भले-बुरे कामों में से हर एक की किसे जानकारी होती है। कोई किसी की पूरी बातें जानने के लिए समय कहाँ से लाये? और क्यों किसी को अपना कच्चा चिट्ठा बताने के लिए सिर खपाये? फिर भला काम किस छिपी हुई बुराई की पूर्ति के लिए किया गया? या दीखने में बुरी लगने वाली बात किस अच्छे उद्देश्य के लिए करनी पड़ी, इसका अंदाज बाहर वाले ठीक तरह लगा ही नहीं सकते। जिनकी परिस्थिति ही सही बात जानने की नहीं है। उनकी राय को महत्व देना बेकार है।

हमें यह मानकर चलना चाहिए कि दुनिया ऐसी ही आधी-अधूरी जानकारी के सहारे अपनी राय बनाया करती है। फिर जैसा जान लिया गया है उतना ही कहने का साहस किसमें है? इन तथ्यों को समझते हुए बाहरी लोगों से निन्दा-स्तुति सुनने की अपनी इच्छा को बचकानापन मानकर उसकी ओर मुँह मोड़ ही लेना चाहिए कि आखिर हम स्वयं क्या हैं? और अपनी आंखें अपने को किस नजर से देखती है। आत्मा की अदालत में इन्साफ की तराजू पर तोले जायें तो हमारा पलड़ा बुराई की ओर झुकता है या भलाई की ओर। यदि हम अपनी कसौटी पर खरे उतरते हैं तो गुमराह लोग जो भी चाहे कहते रहें हमें इसकी जरा भी परवाह न करनी चाहिए। किन्तु यदि अपनी आत्मा के सामने हम खोटे सिद्ध होते हैं, तो सारी दुनिया के प्रशंसा करते रहने पर भी सन्तोष नहीं करना चाहिए।

हम अपने को जानने की कोशिश करें और सुधारने की भी। आमतौर से लोग दूसरों की कमियाँ और बुराइयाँ आसानी से ढूँढ़ निकालते हैं, छोटी को बड़ी बताकर कहने में मजा लेते हैं। पर अपनी जाँच करने के लिए कोई बिरला ही तैयार होता है। सबसे बड़ी हिम्मत का काम यह है कि हम अपनी बुराइयों और कमजोरियों को ढूंढ़ें और उन्हें स्वीकार करें। अपना मन आमतौर से अपने साथ पक्षपात किया करता है, अपनी गलती-तो-गलती ही नहीं लगती। पक्षपाती मन सदा अपने को निर्दोष बताता रहता है और जो गलतियाँ हम करते हैं उनका कारण दूसरे को बताने और उनका कसूर किसी दूसरे पर थोप देने की तरकीबें लड़ाता रहता है। ऐसे पक्षपाती मन के रहते कोई अपनी बुराइयाँ समझ ही कहाँ पावेगा? और जो बात समझी ही नहीं गई उसे सुधारा कैसे जायगा?

प्रशंसा का सबसे बड़ा कदम यह है कि आदमी अपनी समीक्षा करना सीखे, अपनी गलतियों को समझे-स्वीकार करें और इससे अगला कदम यह उठाये कि अपने को सुधारने के लिए अपनी आदतों से लड़ा जायगा और उन्हें हटाकर रहा जायगा। जिसने इतनी हिम्मत इकट्ठी कर ली, जो धीरे-धीरे सुधारे के रास्तों पर ही चलेगा वह एक दिन इतना नेक बन जायगा कि अपने आप अपनी भरपूर प्रशंसा की जा सके। यह प्रशंसा ही सच्ची प्रशंसा कही जा सकेगी और उसे सुनकर ही अन्तःकरण में शान्ति तथा सन्तोष का अनुभव किया जा सकेगा। फिर भले ही इस प्रशंसा करने के लिए बाहर का एक आदमी भी आगे न आये पर अनुभव यही होगा कि सारा संसार अपनी प्रशंसा कर रहा है।

दूसरों की आँखों में धूल डालकर अपने बुरे होते हुए भी अच्छाई की छाप डाल देना, चतुरता का चिन्ह माना जाता है और आजकल लोग करते भी ऐसा ही हैं। झूठी और नकली बातें अफवाहों के रूप में इस तरह फैला देते हैं कि लोग धोखा खा जाते हैं और बुरे को भी अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे बहके हुए लोगों को बहकी बातों को सुनकर थोड़ी देर का बाहरी मनोरंजन भले ही कर लिया जाय पर उससे शान्ति कभी भी नहीं हो सकती। आत्मा तो असलियत जानना ही है और वह धिक्कारता ही रहेगा। कि फरेब और जालसाजी से इस तरह की तारीफ लूटी जा रही है जिसमें कोई सच्चाई नहीं है।

लोगों के हाथों हमें अपनी प्रसन्नता-अप्रसन्नता बेच नहीं देनी चाहिए कोई प्रशंसा करे तो हम प्रसन्न हों और निन्दा करने लगे तो दुःखी हो चले? यह तो पूरी पराधीनता हुई। हमें इस संबंध में पूर्णतया अपने ही ऊपर निर्भर रहना चाहिए और निष्पक्ष होकर अपनी समीक्षा आप करने की हिम्मत इकट्ठी करनी चाहिए। निन्दा से दुःख लगता हो तो अपनी नजर में अपने कामों को ऐसे घटिया स्तर का साबित न होने दें जिसकी निन्दा करनी पड़े। यदि प्रशंसा चाहते हैं तो अपने कार्यों को प्रशंसनीय बनायें सच्ची प्रशंसा पाने का सही तरीका एक ही है कि अपने को दिन-दिन सुधारते चले जायँ और भावना तथा क्रिया की दृष्टि से उस स्तर पर जा पहुँचें जिस पर पहुँचने से आत्म-सन्तोष होता है और आन्तरिक उल्लास प्रस्फुटित होता है। अपनी दृष्टि में अपना प्रशंसित होना सारे संसार के मुँह में गाई जाने वाली प्रशंसा की अपेक्षा कहीं बेहतर है।

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