
मंत्रविद्या और उसकी सुनिश्चित सामर्थ्य
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मन्त्र विद्या में दो तत्वों का समावेश है। (1) शब्द शक्ति का सूक्ष्म चेतना विज्ञान के आधार पर उपयोग (2) व्यक्ति क्षमता का समन्वय। इन दोनों के मिलन से एक तीसरी ऐसी अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती है जो कितने ही बड़े भौतिक साधनों से उपलब्ध नहीं हो सकती।
मशीनें टूटती-फूटती रहती हैं। उनकी साज-सँभाल के लिए कुशल कारीगर नियुक्त करने पड़ते हैं। ईंधन के बिना उन यन्त्रों का चलना सम्भव नहीं। पर मनुष्य-शरीर का यन्त्र जितना सशक्त है उतना ही सरल भी। इसके चलाने के लिए न कारीगर की जरूरत है न रोटी-पानी की स्वाभाविक प्रक्रिया के अतिरिक्त किसी विशेष ईंधन की। उसे खरीदने को पूँजी चाहिए न लगाने जमाने के लिए फैक्टरी। वह जितना सस्ता और सरल है उतना तुच्छ नहीं। महत्तायें, सिद्धियाँ, और विभूतियाँ उसके रोम-रोम में भरी पड़ी हैं। इस यन्त्र का भौतिक उपयोग सभी जानते हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन जैसे प्रयोजनों के लिए पशुओं की तरह मनुष्य भी उसका उपयोग करते हैं। पर आत्मिक उपयोग कोई विरले ही जानते हैं। इसे न जानने के कारण इस मानव काया का नगण्य सा ही उपयोग हो पाता है। जो कुछ दिव्य है उस अधिकाँश का तो न ज्ञान होता है न उपयोग। योग विद्या इस हानि से बचाने के प्रक्रिया का ही नाम है।
साधारणतया वाणी का उपयोग बात-चीत करने के-ज्ञान वृद्धि के-एवं जानकारियों के आदान-प्रदान के लिए होता है। यह उसका अति स्थूल प्रयोग है। शक्ति की सूक्ष्म शक्ति और उसके उपयोग की विधि को जाना जा सके तो उसका जितना लाभ आमतौर से उठाया जा सकता है उससे असंख्य गुना उठाया जा सकना सम्भव हो सकता है। मन्त्र विद्या को वाणी की सूक्ष्म शक्ति का उपयोग करने की वैज्ञानिक प्रक्रिया ही समझा जाना चाहिए।
शब्द कितना समर्थ है? वाणी की क्षमता कितनी अद्भुत प्रयोजन पूरे करती है? उसके साथ जुड़ा हुआ विद्युत प्रवाह कितना प्रचण्ड है। इसे पदार्थ विज्ञान वेत्ता जानते हैं और उस ज्ञान के आधार पर रेडियो, टेलीविजन, राडार आदि यन्त्रों का निर्माण, संचालन करते हैं। मनुष्य के शरीर की विचारणा की भाव स्थिति की त्रिविधि क्षमताओं का समन्वय करके जो विद्युत प्रवाह प्रस्तुत होता है उसकी क्षमता को अध्यात्म तत्ववेत्ताओं ने समझा और उसी आधार पर मन्त्र-विद्या का आविष्कार किया।
आवाज को मुँह से निकलने वाली ‘हवा’ मात्र न समझा जाये। वह एक शक्तिशाली पदार्थ की तरह है जिससे कितने ही तरह के प्रयोजन पूरे किया जा सकते है।
अन्य पदार्थों की तरह आवाज भी एक ऐसा पदार्थ सिद्ध हो गया है जिसकी नाप-तौल की जा सकती है और तस्वीर खींची जा सकती है। प्लेट रिकार्डों और टेप रिकार्डों के द्वारा मनुष्य की आवाज को अंकित कर लेना और उसे बार-बार सुनाते, दुहराते रहना तो रोज ही देखा जाता है। लाउडस्पीकर और टेपरिकॉर्डर किन्हीं गीत वाद्यों सम्बन्धी रिकार्ड की हुई ध्वनियों को आये दिन सुनते रहते हैं।
अब आवाज की किसी के अभिभाषण के प्रमाण रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। इससे पहले ऐसी बात न थी। टेप रिकार्ड अदालतों में प्रामाणिक नहीं माने जाते हैं। उनकी गवाही को मान्यता नहीं मिलती थी। क्योंकि अभियुक्त अक्सर उस आवाज को अपनी मानने से मुकर जाते थे। कोई दूसरे की आवाज की नकल भी कर सकता है। इस सन्देह में उन रिकार्डों को प्रामाणिक नहीं माना जाता था।
अँगूठे की और उँगलियों की छाप ही अब तक पूर्ण प्रामाणिक मानी जाती थी क्योंकि संसार में किन्हीं दो व्यक्तियों के अँगूठे की रेखायें एक सी नहीं होती। दस्तखत तो जाली बन सकते है पर अँगूठा की छाप की नकल असम्भव है। इसी प्रकार संसार में दो व्यक्तियों की आवाज भी एक सी नहीं होती अब ध्वनि अंकन को भी वही मान्यता प्राप्त हो गई है। यह आविष्कार डॉ. कर्स्टा न्यू जर्सी के ब्वायस प्रिन्ट प्रयोगशाला ने किया है। इस पद्धति के अनुसार आवाज को तीन कोणों से अंकन किया जाता है। आड़ा अंकन समय की लम्बाई बताता है। खड़ा - ध्वनि की गति और बुलन्दी का अंकन नक्शे जैसी रेखाओं के रूप में होता है। इस प्रक्रिया के आविष्कर्त्ता डॉ. कर्स्टा का कथन है कि बच्चा जब बोलना सीखता है तब उसके होंठ, दाँत, जीभ, तालु, जबड़ा, कण्ठ आदि की माँसपेशियों के सिकुड़ने फैलने का ढंग दूसरों से सर्वथा नहीं मिलता। उसमें कुछ भिन्नता विशेषता रह जाती है। इसलिए हर व्यक्ति की आवाज में दूसरों की अपेक्षा अन्तर रहता है इस अन्तर को अंकित करके आवाज की अपने ढंग की एक तस्वीर ही बन सकती है।
इस आविष्कार के आधार पर कितने अभियुक्तों को पकड़ा जा सका है और कितने ही अपराधी दण्ड के भागी हुए हैं जिस प्रकार अँगूठे की छाप या अपने फोटो से कोई इनकार नहीं कर सकता उसी प्रकार अपनी आवाज के अंकन से इनकार करना भी अब सम्भव नहीं रहा। अब यह प्रमाणित हो गया है कि ध्वनि तरंगों के रूप में फैलती रहने वाली आवाजों को भी स्वरूप एवं पदार्थ के रूप में परिणत किया जा सकता है।
आवाज निस्सन्देह एक पदार्थ है। वाणी दूसरों पर प्रभाव डालती है। विद्यालयों में ज्ञान वृद्धि का माध्यम वाणी ही है। भावनाओं को उभारने और तरंगित करने का काम संगीत कितनी अच्छी तरह करता है यह सभी को विदित है। अपमान सूचक शब्द प्रयोग करने से दूसरों को कैसा क्रोध आता है और फलस्वरूप कितना अनर्थ होता है उसका उदाहरण द्रौपदी द्वारा थोड़े से अपमानजनक शब्द कह देने से महाभारत का होना प्रसिद्ध है। यह रोज ही देखा जाता है कि कटुवचन से मित्रों को शत्रु और मधुर वाणी से शत्रुओं को मित्र बनाया जा सकना सम्भव होता है। दुःखद, शोक-संताप की घटना सुनकर कैसा बुरा हाल हो जाता है। शब्दों की भावोत्तेजक क्षमता स्पष्ट है।
इतना ही नहीं उनमें वह सामर्थ्य भी विद्यमान है जो अपने आपको-दूसरों को और समस्त सूक्ष्म जगत को प्रभावित कर सके। मन्त्र विज्ञान द्वारा यही सम्भव होता है। सितार के तारों पर क्रमबद्ध उँगलियाँ रखने से जिस प्रकार विभिन्न प्रकार की स्वर लहरियाँ निकलती हैं उसी प्रकार शब्दों के उच्चारण का एक लयबद्ध क्रम रहने से उसमें भी एक विशेष प्रकार के - विशेष शक्तिशाली - और विशेष प्रभावोत्पादक कंपन उत्पन्न होते हैं। मन्त्रों में केवल शब्दार्थ का ही महत्व नहीं है। शिक्षा तो गद्य-पद्य से और भी अच्छी तरह दी जा सकती है। मन्त्रों में अक्षरों के क्रम का तथा उनके उच्चारण की विशेष विधि व्यवस्था का ही अधिक महत्व है। कण्ठ, तालु, दाँत, ओठ, मूर्धा आदि जिन स्थानों से शब्दोच्चारण होता है उनका सीधा सम्बन्ध मानव-शरीर के सूक्ष्म संस्थानों से है। षट् चक्र, उपात्मक एवं दिव्य वादियों, ग्रन्थियों का सूक्ष्म शरीर संस्थान अपने आपमें अद्भुत है। इन दिव्य अंगों के साथ हमारे मुख यन्त्र के तार जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार टाइपराइटर की चाबियाँ दबाते चलने से ऊपर अक्षर टाइप होते चलते हैं ठीक उसी प्रकार मुख से उच्चारण किये हुए-विशेष वैज्ञानिक प्रक्रिया के साथ विनिर्मित मन्त्र गुम्फन का सीधा प्रभाव उपरोक्त संस्थानों पर पड़ता है और वहाँ तत्काल एक अतिरिक्त शक्ति तरंगों का प्रवाह चल पड़ता है। यह प्रवाह मन्त्र विज्ञानी को स्वयं लाभान्वित करता है। उसकी प्रस्तुत क्षमताओं को जगाता है। भीतर गूँजते हुए वे मन्त्र कम्पन यही काम करते हैं और जब वे बाहर निकलते हैं तो वातावरण को प्रभावित करते हैं। सूक्ष्म जगत में अभीष्ट परिस्थितियों की संभावनाओं का सृजन करते हैं और यदि किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित करना है तो उस पर भी असर डालते हैं। मन्त्र विद्या इन तीनों प्रयोजनों को पूरा करती है।
राडार (रेडियो डिक्टेशन एण्ड रेंजिंग) शब्द का संक्षिप्त नामकरण है। ध्वनि तरंगें ठोस वस्तुओं द्वारा परावर्तित होती हैं। प्रत्येक ध्वनि प्रतिध्वनि उत्पन्न करती है देखा जाता है कि किसी बड़ी इमारत, गुम्बज, पक्का कुँआ आदि की तरफ मुँह करके जोर की आवाज की जाय तो उसकी प्रतिध्वनि होती है और कुछ देर बाद वह वहीं लौट आती है जहाँ से कि वह उत्पन्न हुई थी, इस ध्वनि के उच्चारण और वापिस के समय का अन्तर यदि ठीक प्रकार ज्ञात हो सके तो दूरी की गणना हो सकती है। इस प्रकार वेग, प्रतिध्वनि के उतार-चढ़ाव के आधार पर उस पदार्थ के स्वरूप एवं अन्तराल को जाना जा सकता है जिससे टकरा कर वह वापिस आई। रेडियो तरंगें भी तरंगों की तरह ही परावर्तित होती है। इनके आधार पर ‘राडार’ यन्त्र का आविष्कार हुआ है।
एक सैकिण्ड के दस लाखवें भाग को माइक्रो सैकिण्ड कहते हैं। वायुमण्डल एवं शून्य आकाश में रेडियो तरंगें लगभग 2,95, किलो मीटर प्रति सैकिण्ड की चाल से दौड़ती हैं। रेडियो प्रेषित ध्वनि तरंगें-बहुत दूरी पर भी अपने लक्ष्य तक पहुँच कर कुछ ही माइक्रो सैकिण्डों में वापिस आ जाती हैं। इसलिए आकाश में उड़ने वाले वायुयान आदि की दूरी-चाल, स्थिति का पता आसानी से लगा लिया जाता है और यदि वह शत्रु का हो तो उससे निपटना भी सम्भव हो जाता है। इसी प्रकार इस प्रणाली से जलयानों की भी सही स्थिति का पता चल जाता है। राडार पद्धति बिना संपर्क साधे ही दूसरे जहाजों के सन्देश संकेत प्राप्त करने में, समुद्री तूफानों का पता लगाने में, ऋतु परिवर्तन, खगोल विद्या आदि कितने ही महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपनी उपयोगी भूमिका प्रस्तुत कर रही है।
राडार हमारे शरीर में भी विद्यमान है और वह भी यन्त्रों द्वारा बने हुए राडार की तरह काम करता है। उसे जागृत, सशक्त और सक्रिय बनाने के लिए मन्त्र विद्या का उपयोग किया जाता है। शब्द विद्या के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मन्त्रों के अक्षरों का चयन होता है। मन्त्र रचना कविता या शिक्षा नहीं है। शिक्षा भी उनमें हो सकती है पर वह गौण है। कविता की दृष्टि से भी मन्त्रों का महत्व गौण है। प्रसिद्ध गायत्री मन्त्र में 23 ही अक्षर हैं। जबकि छन्द शास्त्र के अनुसार उसमें 24 होने चाहिए। इस दृष्टि से उसे साहित्य कसौटी पर दोषयुक्त भी ठहराया जा सकता है। पर शक्ति तत्व का जहाँ तक सम्बन्ध है वह सौ टंच खरा है। उसकी सामर्थ्य का कोई वारापार नहीं।
शब्द मन्त्र विज्ञान में केवल जप उच्चारण ही पर्याप्त नहीं। उनकी शब्द शक्ति को ही सर्वांगपूर्ण नहीं मान लेना चाहिए। वरन् उसमें दूसरा पूरक तत्व और भी अधिक महत्वपूर्ण है। इतना अधिक महत्वपूर्ण कि उसके बिना अध्यात्म विद्या की गरिमा प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकती। वह तथ्य है मन्त्र साधक की मनोभूमि तथा आन्तरिक स्थिति। मनुष्य के तीन शरीर हैं - स्थूल-सूक्ष्म और कारण। इन तीनों का ही समन्वय होने से मन्त्र शक्ति का समुचित उद्भव होता है। स्थूल शरीर से जप, अनुष्ठान, पूजा, उपचारपरक, कर्मकाण्ड सम्पन्न किये जाते हैं। आहार-विहार, उपवास, ब्रह्मचर्य आदि की बाह्य तपश्चर्या स्थूल शरीर से होती है। यह मन्त्र विद्या का पहला आधार हुआ। दूसरा आधार है-सूक्ष्म शरीर, मन, मस्तिष्क। साधक का दृष्टिकोण उच्च और पवित्र होना चाहिए। उसकी विचारणा, आदर्शवादिता, संयमशीलता, चरित्रनिष्ठा, उदारता, सेवा बुद्धि उत्कृष्ट होनी चाहिए। सूक्ष्म शरीर के शब्द का उद्भव इसी तरह होता है। तीसरी शक्ति तीसरे शरीर से-कारण शरीर से उत्पन्न होती है। अंतःकरण से,