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Magazine - Year 1972 - Version 2

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दिव्य दृष्टि का बहुमूल्य संयंत्र - आज्ञाचक्र

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चमड़े की आँखों से जो दीखता है जो देखा जा सकता है वह बहुत स्वल्प है। यदि इतनी ही परिधि तक देख सकना सम्भव हो सके तो उसे बहुत ही नगण्य उपलब्धि कहा जा सकेगा।

यों देखने का काम आँखों के लेन्स ही करते हैं। पर उनकी सीमा बहुत छोटी है। कुछ ही दूरी पर उनकी सीमा समाप्त हो जाती है। स्पष्ट दीखने वाली वस्तुयें ही उनकी परख पकड़ में आती है पर यह संसार बहुत विस्तृत है। सब पदार्थों के स्वरूप दृश्यमान नहीं है। जो दीखता है उससे अनदेखा बहुत ज्यादा है। अणुओं की गतिविधियों को ही लें, वे आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों से भी अधिक संख्या में हैं और उनसे भी अधिक सक्रिय हैं। अपने शरीर में काम करने वाले परमाणुओं, जीवाणुओं, शक्तिघर के विद्युत प्रवाहों एवं क्रिया-कलापों को देख सकना, समझ सकना, सम्भव हो सके तो वह इतना ही विस्तृत, अद्भुत एवं अन्वेषण योग्य प्रतीत होगा जितना कि यह विराट् विश्व ब्रह्माण्ड। आँखें वह सब कहाँ देख पाती हैं।

प्रत्यक्ष जगत में भी-दृश्य पदार्थों में भी हमारी दृष्टि में एक छोटा सा क्षेत्र ही आता है। जाननी तो आगे की बातें भी पड़ती हैं। वह प्रयोजन चिट्ठियों से, अखबारों, तार, टेलीफोन, रेडियो आदि से पूरा होता है। आँखों की क्षमता से काम चलता न देखकर हमें जानकारी के क्षेत्र दूसरे साधनों से बढ़ाने पड़ते हैं। जिसके पास यह साधन जितने अधिक होते हैं वह उतना ही अधिक लाभान्वित होता है।

स्थूल दृष्टि की ससीमता से आगे असीम तक विस्तृत होने वाला एक और नेत्र हमारे पास है जिसे सूक्ष्म दृष्टि या दिव्य दृष्टि कहते हैं। योग साधना द्वारा कोई चाहे तो इस नेत्र को विकसित कर सकता है और चर्म चक्षुओं की परिधि से बहुत आगे की परिस्थितियों एवं घटनाओं को भली प्रकार देख सकने में समर्थ हो सकता है।

टेलीफोन के माध्यम से आवाज को सुदूर प्रदेशों तक पहुँचाने की विद्या बहुत पहले ज्ञात हो गई थी। इसके बाद रेडियो प्रणाली से परस्पर बैठे हुए व्यक्तियों का-बिना तार के ही-केवल ध्वनि कम्पनों की सहायता से वार्तालाप करना सम्भव हुआ। टेलीविजन प्रणाली में चित्रों को दूर-दूर तक भेजना सम्भव हुआ। अब उसमें एक कदम और आगे बढ़ा है। फोटोग्राफी भी इसी संचार प्रक्रिया के साथ जुड़ गई है। इसे ऐसे मानना चाहिए जैसे दर्पण और फोटो कैमरा, दर्पण के सामने खड़े होने पर चित्र दीखता है पर हटते ही वह चित्र गायब हो जाता है। कैमरे की बात दूसरी है। उसके सामने खड़े होकर फोटो उतारा जाय तो वह स्थायी बना रहेगा। टेलीविजन को दर्पण कहा जाय तो तो इस ‘विद्युत आवृत्ति संचार व्यवस्था’ को कैमरे की फोटोग्राफी मानना पड़ेगा जो क्षण भर में एक स्थान का फोटो पृथ्वी के इस छोर से उस छोर पर भेज देती है।

आज-कल अखबारों में जो विश्वभर की महत्वपूर्ण घटनाओं के फोटो दूसरे ही दिन आते हैं इसका कारण यही प्रणाली है। ‘टैलिक्स’ प्रणाली से भी यह अधिक बारीकियों से भरी हुई है। भारत में ऐसा संचार केन्द्र पूना के पास ‘आर्वी’ में छोटी पहाड़ियों के बीच बना हुआ है। इसे ‘इंटेल्साट-3’ कहते हैं। इनकी संचार तरंगें बम्बई के स्टील टावर में पहुँचती है। वहाँ फ्लोरा फाउण्डेशन के निकट बना हुआ अठारह मंजिल वाला संचार भवन उन तरंगों को ग्रहण करता है और फिर शक्तिशाली उपकरणों के माध्यम से अभीष्ट स्थानों पर भेज देता है। प्रेषण जैसी ही ग्रहण व्यवस्था भी इन ‘संयन्त्रों’ में है। विदेशों से आने वाले फोटो यहीं ग्रहण किये जाते हैं और उनकी अनेक प्रतियाँ छपकर तत्काल अखबारों को अथवा सम्बन्धित सरकारी विभागों को भेज दिये जाते हैं। फोटो ही नहीं-महत्वपूर्ण नक्शे, कागजात, पत्र आदि भी तत्काल इसी पद्धति के माध्यम से भेजे और ग्रहण किये जाते हैं। अन्यत्र भेजे जाने वाले फोटो एक बड़े बेलन पर चिपका दिये जाते है। यह बेलन 6 चक्कर प्रति मिनट के हिसाब से घूमता है। साथ ही प्रति इंच 100 रेखायें भी गतिशील करता है। प्रकाश का एक केन्द्रित पुञ्ज उस फोटो पर डाला जाता है, परावर्तित प्रकाश एक लेंस की सहायता से प्रकाश कोशिका पर केन्द्रित होता है। यहाँ प्रकाश की विविधता-विविध विद्युत कम्पनों में बदल जाती है। रंगों के उतार-चढ़ाव के हिसाब से इन विद्युत कम्पनों में अन्तर हो जाता है। सफेद रंग के लिए 15 साइकल, काले रंग के लिए 23 भूरे रंग के लिए, 18 साइकल प्रति सेकिण्ड आवृत्ति होती है। अब इन कम्पनों को दुनिया के किसी भी कोने में रेडियो संचार प्रणाली के अनुसार विश्व के किसी भी कोने पर भेज दिया जा सकता है। जहाँ इन चित्रों को पकड़ा जाता है वहाँ भी रेडियो ध्वनि ग्रहण करने जैसे यन्त्र लगे रहते हैं वे यन्त्र उन विद्युत कम्पनों को पकड़ कर उन्हें चित्र रूप में पुनः परावर्तित कर लेते हैं। अपने देश में ऐसे 24 रेडियो फोटो चैनल है, जिनका सम्बन्ध संसार के 34 प्रमुख देशों से हैं।

इस संचार उपग्रह पद्धति की रूसी प्रणाली ‘डार्विटा’ कहलाती है। अमेरिका की अपनी प्रणाली है। सन् 69 से लेकर अब तक अमेरिका ने लगभग 600 से अधिक अन्तरिक्ष यान छोड़े जिनमें से 550 से अधिक अभी भी पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में घूम रहे हैं। रूस हर साल 50 और 100 के बीच इस प्रकार के उपग्रह भेजते रहे हैं। यह कृत्रिम अन्तरिक्ष उपग्रह मौसम शोध से लेकर खगोलीय परिस्थितियों की जानकारी अपने मूल केन्द्र में भेजते रहते हैं। ऐसे ही उपग्रह इस रेडियो फोटो संचार पद्धति को संचालित रखने में सहायता करते हैं। इस ‘इंटेसाल्ट उपग्रह पद्धति का विकास करके शब्द संचार की तरह चित्र संचार की सुविधा भी सरल बनाई जा सकती है और हम घर बैठे विश्व की महत्वपूर्ण घटनाओं को सिनेमा के पर्दे पर देखी जाने वाली फिल्मों की तरह प्रत्यक्ष देख सकते हैं। टेलीविजन में अभी जो छोटे दायरे से ही काम करने की कठिनाई है वह भी इस प्रणाली से दूर की जा सकती है।

यह दूरदर्शन का कार्य टेलीविजन यन्त्र करते हैं। चित्रों को दूर तक भेजने वाली यह रेडियो फोटोग्राफी भी काम में आ रही है। टेलिस्कोप, माइक्रोचिप आदि सूक्ष्मदर्शी और सुदूरदर्शी यन्त्र भी नेत्र शक्ति की ससीमता को बढ़ाकर विस्तृत और व्यापक बनाते हैं। यह साधन जिनके पास हैं वे इन यन्त्रों की मर्यादा के अनुरूप लाभ उठा लेते हैं।

भगवान का दिया हुआ एक ऐसा ही यन्त्र मनुष्य के पास भी है जिसे दृष्टिवर्धन के अद्यावधि आविष्कारों की सम्मिलित उपलब्धियों से भी कहीं अधिक समर्थ और व्यापक कहा जा सकता है। न इसे खरीदना पड़ता है और न इसके संचालन की कोई बड़ी शिक्षा लेनी पड़ती है। भ्रूमध्य भाग में अवस्थित आज्ञा चक्र अपना तीसरा नेत्र है। इसे खोलने की साधना करने से वह अन्तर्ज्योति विकसित

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