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Magazine - Year 1972 - Version 2

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शीत हमारा मित्र है - ताप शत्रु

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सर्दी मनुष्य के लिए कितनी उपयोगी है, इसे बहुत कम लोग जानते हैं। आमतौर से लोग ठण्ड से बचने के लिए कपड़ों के लबादे लादे रहते हैं। ठण्ड लगने से जुकाम, निमोनिया आदि हो जाने के भय से डरते रहते हैं। वस्तुतः शीत लाभदायक है-हानिकारक नहीं। हानिकारक उनके लिए है जिन्होंने अमीरी के चोंचले में फँसकर अपनी त्वचा को ऋतु प्रभाव से बचाते हुए उसकी सहन-शक्ति को नष्ट कर दिया है। दुर्बल के लिए तो दैव भी घातक हो जाता है। सर्दी-गर्मी तो क्या रोटी, पानी भी उनके लिए विपत्ति सिद्ध हो सकती है। ऐसे अपवादों को छोड़ दें तो शीत के उपयोगी प्रभाव को ही स्वीकार करना पड़ेगा।

ठण्डे देशों के निवासी गरम प्रदेशों के निवासियों की तुलना में अधिक स्वस्थ, सुन्दर और दीर्घजीवी होते हैं। उत्तरी ध्रुव के निवासी नितान्त हिमाच्छादित प्रदेशों में स्वल्प साधनों से निर्वाह करते हैं और साधन सम्पन्नों की अपेक्षा अधिक जीवनी-शक्ति युक्त पाये जाते हैं। शीत ऋतु में अपेक्षाकृत भूख अधिक लगती है, पाचन अच्छा रहता है और गिरा हुआ स्वास्थ्य भी सँभल जाता है।

सिद्ध पुरुषों की तप-साधना सदा हिमालय में होती रही है। प्राचीन काल में सप्त ऋषियों की तथा अन्यान्य तपस्वियों की तपश्चर्यायें वहीं होती थी। योगेश्वर शिव का स्थान हिमाच्छादित कैलाश है। देवताओं का निवास सुमेरु पर्वत पर बताया गया है यह सुमेरु गंगोत्री, गोमुखी से 200 मील आगे है। देव उद्यान-नन्दन वन-गंगा के उद्गम गौमुख से थोड़ा ही आगे है। पाण्डवों ने जिस स्थान पर स्वर्गारोहण किया था-व्यास जी को त्वरा लेखक बनाकर गणेश जी ने जिस स्थान पर महाभारत लिखा था वह व्यास गुफा वसोधरा बद्रीनारायण से आगे है। श्रीकृष्ण भगवान ने रुक्मिणी सहित तपश्चर्या बद्रीनारायण तीर्थ में की थी। भगवान राम अयोध्या का राज्य लव-कुश को देकर स्वयं देव प्रयाग तप करने के लिए चले गये थे। यह सब स्थान हिमालय में ही है। आध्यात्मिक तपश्चर्याओं का तीन चौथाई इतिहास हिमालय की शीत प्रधान भूमि से ही सम्बन्धित है।

मन की एकाग्रता, अन्तःकरण की पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, समाधि की तन्मयता, दिव्य प्रकाश की प्रखरता जैसे लाभ हिमालय में जितनी सुविधापूर्वक सम्भव हैं उतने अन्यत्र नहीं। वहाँ अभी भी आश्चर्यजनक आयुष्य वाले सिद्ध योगी पाये जाते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व गंगोत्री में स्वामी कृष्णाश्रम जी का स्वर्गवास हुआ है। उनकी आयु के सम्बन्ध में संपर्क वाले व्यक्ति 200 वर्ष से अधिक बताते हैं। नग्न और मौन स्थिति में वे इस हिमाच्छादित प्रदेश में ही रहा करते थे। ऐसे विदित योगी कई हैं। अविज्ञात सिद्ध पुरुष तो कितने ही उस क्षेत्र में अत्यधिक आयुष्य वाले हैं। हिमालय की तपश्चर्या आत्म-शक्ति, दिव्य दृष्टि जैसी सिद्ध विभूतियाँ ही नहीं अक्षय स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन भी प्रदान करती हैं। हिमालय विश्व चेतना का हृदय है। जिस प्रकार पृथ्वी के केन्द्र ध्रुव हैं उसी प्रकार भूलोक के इस उत्तरायण वर्ग का चेतना ध्रुव हिमालय है। यहाँ वे लाभ सहज ही मिल जाते हैं जो अन्यत्र तप साधना करने वालों को दीर्घकाल में भी मिल सकने कठिन हैं।

हिमालय की विशेषता अन्य सूक्ष्म एवं आध्यात्मिक कारण तो हैं ही। प्रत्यक्ष कारणों में उसकी शीत प्रधानता भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। विज्ञान अब इस निष्कर्ष पर जा पहुँचा है कि शीत की सहायता से कायाकल्प भी सम्भव है। और शरीर सहित हजारों वर्ष तक जीवित रहा जा सकता है।

कुछ समय पूर्व नोबेल पुरस्कार लब्धकर्त्ता डॉक्टर कैरल ने यह प्रतिपादित किया था कि शीत की सहायता से मानवीय आयुष्य में आशातीत वृद्धि की जा सकती है। इस संदर्भ में प्रयोग निरन्तर चलते रहे और अब यह प्रमाणित कर दिया गया है कि प्राणियों को बर्फ की तरह जमाकर सुरक्षित रखकर न केवल उनके शरीर को वरन् प्राणों को भी सुरक्षित रखा जा सकता है।

उत्तरी ध्रुव की खोज में गये हुए अन्वेषकों के मृत शरीर सैकड़ों वर्ष बाद ज्यों के त्यों बिना किसी विकृति के इस स्थिति में पाये गये मानों अभी जल्दी ही उनकी मृत्यु हुई है। अन्य हिम प्रदेशों में मृत शरीर चिरकाल तक सुरक्षित रहने की बात तो लोगों को पहले से ही विदित थी। पर अब यह भी सम्भव हो गया है कि न केवल शरीर को वरन् प्राण को भी शीत में जमाया जा सकता है और फिर सुविधानुसार सजीव एवं सक्रिय किया जा सकता है।

शुक्राणु शीत में जमा दिये जाते हैं और तब उनकी हरकत बन्द हो जाती है पर जब गर्मी पहुँचाई जाती है तो वे सन्तानोत्पादन के उपयुक्त बन जाते हैं। यह तथ्य अब चिकित्सा शास्त्र के सभी विद्यार्थी जानते हैं। म्यूनिख विश्वविद्यालय के वे प्रयोग भी अब पुराने हो गये जिनमें चींटियों का एक समूह जमा दिया गया था और वे दस दिन बाद पिघलाये जाने पर फिर जीवित होकर सामान्य जीवन जीने लगीं।

कुछ दिन पूर्व यह घटना समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी कि मिस अंग को शीत की सहायता से नव-जीवन प्रदान किया गया। उक्त महिला ने आत्म-हत्या की। उसने विष खा लिया। डॉक्टरों ने उसके प्रधान अवयव निष्क्रिय पाये। यकृत बेकार हो चुका था। गुर्दे घुलकर बह चले थे। हृदय में नाम मात्र का स्पन्दन था। इस मरणासन्न लाश को उच्च विज्ञान वेत्ता लेम्पेल ने शीत में जमा दिया और एक काँच के बर्तन में बयालीस दिन तक सुरक्षित रखा। इसके बाद गर्मी दी गई तो उनमें सजीवता के चिह्न दीखे। उपचार के बाद उनका शरीर आत्महत्या से पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा हो गया। उनमें नवयौवन फूट पड़ा और उस अधेड़ महिला को अपना विवाह करने के लिए विवश होना पड़ा।

इस सफलता के बाद उपरोक्त उच्च वैज्ञानिक ने दावा किया है कि कायाकल्प का यह प्रामाणिक उपाय है। कुछ समय के यदि मनुष्य को शीत में जमा दिया जाय तो उसके थके हुए अंग-प्रत्यंगों को पूर्ण विश्राम मिल सकता है और इस विभिन्न से शरीर नवजात बालक की तरह फिर तरोताजा एवं जीवनी शक्ति से भरपूर हो सकता है। इस प्रकार हर पचास वर्ष बाद कुछ दिन का शीत विश्राम दिया जाता रहे तो मनुष्य दो हजार वर्ष तक जीवित रह सकता है।

डॉक्टर लेम्पेल का तर्क है कि सृष्टि के समस्त जीव जितना समय बचपन से लेकर युवा होने में लगाते हैं उससे प्रायः पन्द्रह गुना पूर्ण जीवन माना जाता है। गाय दो वर्ष में युवा होती है उसकी पूर्ण आयु तीस-पैंतीस वर्ष मानी जाती है। मनुष्य यदि 25 वर्ष में तरुण होता है तो उसे स्वभावतः लगभग 400 वर्ष जीना चाहिए। यदि इससे कम आयु में मरना पड़े तो समझना चाहिए कि जीने की विधि व्यवस्था में कोई भारी भूल रह गई। उसी से अकाल मृत्यु का ग्रास होना पड़ा। उनकी शोधों का निष्कर्ष यह है कि शीत जीवन का मित्र है और ताप शत्रु। ताप से जितना बचा जा सके और शीत से जितना सान्निध्य रखा जा सके उतनी ही शरीर की सुरक्षा बनी रहेगी।

यह प्रयोग पशु शरीरों पर जारी है। साधारणतया 98 डिग्री से तापमान घटने पर शरीर के कल-पुर्जे शिथिल होने लगते हैं पर बछड़ों के भीतरी अवयवों को एक सीरम रसायन से उत्तेजित किया गया और उस उत्तेजित स्थिति में ही उसे जमा दिया गया। इस स्थिति में आरम्भ से जीवन एक दिन तक ही रह सका पर पीछे प्रयोग करते-करते वह अवधि एक महीने तक बढ़ गई है। इस प्रकार विश्राम प्राप्त जानवर न तो बीमार पड़ता है न कमजोर होता है वरन् पहले से भी अधिक स्वस्थ रहने लगता है।

अन्तरिक्ष अनुसंधान की सुविस्तृत योजना अमरीकी वैज्ञानिकों ने मनुष्य सहित अन्तरिक्ष यान प्लूटो ग्रह पर भेजने की बनाई है। अनुमान है कि चन्द्रयान वाली चाल के रॉकेट को वहाँ तक पहुँचने में 2 वर्ष लगेंगे। इतना ही समय लौटने में भी चाहिए। इतने दिन मनुष्य जीवित कैसे रहेगा। इसका समाधान इसी प्रकार ढूंढ़ा गया है कि प्लूटो यान के यात्री को शीत से जमा दिया जाय। यान के यन्त्र निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचा कर जमे हुए यात्री को गरम कर दें। वह सक्रिय होकर अपनी खोज करे और फिर वापसी में निर्धारित यन्त्र की सहायता से स्वयं जम जाय और पृथ्वी पर अपनी नींद खोले?

योग समाधि में लगभग यही प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। उसमें शीतल वातावरण तो सहायक होता है इसलिए इस तरह की साधनायें हिमालय में अधिक सफल होती हैं। फिर भी उसमें शीत के द्वारा शरीर को जमा देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संकल्प बल और प्राण शक्ति की सहायता से भीतरी अवयवों को बन्द या मन्द कर दिया जाता है। फलतः श्वास-प्रश्वास रक्ताभिषरण, पाचन-क्रिया, मल विसर्जन आदि सारे आन्तरिक क्रिया-कलाप बन्द हो जाते हैं। मस्तिष्क की बौद्धिक क्षमता अचेतन केन्द्र में लय हो जाती है। समाधि कितने समय की लेनी है इसका प्रमाण सन्देश अचेतन चित्त को दे दिया जाता है। चित्त आज्ञाकारी सेवक की तरह उस आदेश का पालन करता है और समाधि नियत अवधि पर खुल जाती है। इस समाधि क्रिया का वही लाभ होता है जो उच्च वैज्ञानिक के शीत परीक्षण द्वारा मरणासन्न महिला तथा कई जानवरों पर प्रयोग करके सम्पन्न किया गया है।

मनोबल, आत्म-बल, साधना, तपश्चर्या की अपनी शक्ति है। हिमालय-चेतना उद्गम का हृदय-ध्रुव-होने से इन प्रयोगों प्रयोजनों के लिए अति उपयोगी है। यह आध्यात्मिक प्रयोग हुआ। साधारणतया सामान्य जीवन में भी शीत की उपयोगिता समझी और स्वीकारी जानी चाहिए। अमीर लोग ग्रीष्म ऋतु में काश्मीर आदि शीत प्रधान स्थान में चले जाते हैं और स्वास्थ्य लाभ करते हैं। यह अमीरी की बात हुई। हम गरीब लोग भी शीत ऋतु का लाभ उठाने के लिए-शीत वातावरण में आवास-निवास सम्भव बनाने के लिए-शीतल प्रदेशों की तीर्थ यात्रा या वहाँ कुछ समय रहने की बात सोचें वैसी व्यवस्था बनायें तो यह स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। मानसिक लाभ उठाने की साधना भी यदि उसमें जुड़ी रहे तो फिर उसे सोना और सुगन्ध की उपमा दी जा सकेगी।

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