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Magazine - Year 1972 - Version 2

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धर्मनिष्ठा आज की सर्वोपरि आवश्यकता

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कटुता, भ्रान्ति, सन्देह, भय और संघर्षों से भरे आज के इस संसार का भविष्य अनिश्चित और अन्धकारमय ही दीख रहा है। विज्ञान ने जिन अस्त्रों का आविष्कार किया है वे पृथ्वी की-चिर संचित मानव-सभ्यता को बात की बात में नष्ट करने में समर्थ हैं। कच्चे धागे में बँधी लटकती तलवार की तरह कभी भी कोई विपत्ति आ सकती है और कोई भी पागल राजनेता अपनी एक छोटी सी सनक में इस सुन्दर धरती को ऐसी कुरूप और निरर्थक बना सकता है जिसमें मनुष्य क्या किसी भी प्राणी का जीवन असम्भव हो जाय।

इस सर्वनाशी विनाश से कम कष्टकारक वह स्थिति भी नहीं है जिसमें बौद्धिक अन्धकार, नैतिक बर्बरता की काली घटनायें तिल-तिल जलने और रोने, सिसकने की परिस्थितियों से सर्वत्र अशान्ति उत्पन्न किये हुए हैं। संसार एक अचेतन मूर्छना के गर्त में दिन-दिन गहरा उतरता जाता है। हमारा आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक जीवन मानो ऐसी शून्यता की ओर चल रहा है जिसका न कोई लक्ष्य है न प्रयोजन। पथ भटके बनजारे की तरह हम चल तो तेजी से रहे हैं पर उसका कुछ परिणाम नहीं निकल रहा है। कई बार तो लगता है, प्रगति के नाम पर अगति की ओर पीछे लौट रहे हैं और उस आदिम युग की ओर उलट पड़े हैं जहाँ से कि सभ्यता का आरम्भ हुआ था।

कई व्यक्ति सोचते हैं कि इस व्यापक भ्रष्टाचार का अन्त बड़े युद्धों द्वारा होगा। आज जिन लोगों के हाथ में राजनैतिक, बौद्धिक तथा आर्थिक सत्ता है यदि वे अपने छोटे स्वार्थों के लिए समाज के विनाश की अपनी वर्तमान गतिविधियों को रोकते नहीं है और अपने प्रभाव तथा साधनों का दुरुपयोग करते ही चले जाते हैं तो उन्हें बलात् पदच्युत किया जाना चाहिए। इसके लिये चाहे सशस्त्र क्रान्ति या युद्ध ही क्यों न करना पड़े।

इस प्रकार सोचने वालों की बेचैनी और व्यथा तो समझ में आती है पर जिस उपाय से वे सुधार करना चाहते हैं वह संदिग्ध है। कल्पना करें कि आज के प्रभावशाली लोग-समाज बदलने के लिए अपने को बदलने की नीति अंगीकार नहीं करते और उन्हें युद्ध या शस्त्रों की सहायता से हटाया जाता है तो यही क्या गारण्टी है कि शस्त्रों से जिस सत्ता को हटाया गया है उसी को वे नये शस्त्रधारी न हथिया लेंगे। मध्य पूर्व और पाकिस्तान में सैनिक क्रान्तियों का सिलसिला चल रहा है। नये शासन से भी हर बार वैसी ही थोड़े हेर-फेर के साथ शिकायतें शुरू हो गई जैसी पहले वालों से थी। सत्ता और साधनों में कोई त्रुटि नहीं है, दोष उनके प्रयोगकर्त्ताओं का है। तो हमें ऐसे प्रयोगकर्त्ताओं का निर्माण करना चाहिए जो शक्ति का उपयोग स्वार्थ की परिधि से बाहर रखकर लोक मंगल के लिए प्रयुक्त कर सकने के लिए विश्वस्त एवं प्रामाणिक सिद्ध हो सकें।

आज की समस्याओं का यही सबसे सही समाधान है कि ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़े जो निजी स्वार्थों की अपेक्षा सार्वजनिक स्वार्थों को प्रधानता दें और इस संदर्भ में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वैसी जीवन प्रक्रिया जीकर दिखायें जिसे सत्ताधारियों के लिए आदर्श माना जा सके। यह कार्य आज की स्थिति में भी हर कोई कर सकता है। यह गुंजाइश प्रत्येक के लिए खुली पड़ी है कि वह अपनी वर्तमान सुविधाओं एवं उपलब्धियों को व्यक्तिगत कार्यों से बचाकर लोक मंगल के लिए प्रयुक्त करना आरम्भ करे। भावनाओं की प्रबलता के अनुसार परिस्थितियाँ सहज ही बन जाती हैं। यदि लोगों में समाज के हित साधन की उतनी ही ललक हो जितनी अपने शरीर या परिवार के लिए रहती है तो कोई कारण नहीं कि गई-गुजरी स्थिति का व्यक्ति भी कुछ ऐसे प्रयत्न करने में सफल न हो सके जो लोगों में समाज हित के लिए कुछ त्याग एवं श्रम करने की अनुकरणीय चेतना न उत्पन्न कर सकें। व्यक्तिगत जीवन-क्रम के बारे में भी यही बात लागू होती है। विचारणीय है कि क्या जिन बातों को हम सत्य मानते हैं उन्हें आचरण में लाते हैं और जिन्हें अनुचित समझते हैं उन्हें अपने चिन्तन तथा कर्तव्य में से अलग हटाते हैं। इस प्रकार की दुर्बलता आज व्यापक हो गई है कि उचित की उपेक्षा और अनुचित से सहमति का अवाँछनीय ढर्रा चलता रहता है और उसे बदलने की हिम्मत इकट्ठी नहीं की जाती। यदि सच्चाई को अपनाने के लिए बहादुरी और हिम्मत इकट्ठी की जाने लगे तो हर किसी को अपने जीवन-क्रम में भारी परिवर्तन लाने की गुंजाइश दिखाई पड़ेगी। यदि उस गुंजाइश को पूरी करने के लिए साहसपूर्वक कदम उठाये जायें तो आज नगण्य जैसा दिखने वाला व्यक्ति कल ही अति प्रभावशाली प्रतिष्ठित और प्रशंसित सज्जनों की श्रेणी में बैठ सकता है और उसके इस प्रयास से अगणितों को आत्म-सुधार की प्रेरणा मिल सकती है।

शक्ति से शक्ति को हटा देना उतना कठिन नहीं है जितना कि यह प्रबन्ध कर लेना कि उस रिक्त स्थान की पूर्ति कौन करेगा? मध्यकाल में शासकों के बीच अगणित छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ हुई हैं और उनमें से प्रत्येक आक्रमणकारी ने कोई न कोई कारण ऐसा जरूर बताया है कि अमुक बुरी बात को-या अमुक व्यक्ति को हटाकर सुव्यवस्था लाने के लिए उसने युद्ध आरम्भ किया। उस समय यह कथन प्रतिपादन उचित भी लगा पर देखा गया कि विजेता बनने के बाद उसने उस पराजित से भी अधिक अनाचार आरम्भ कर दिया, जिसे कि अनाचारी होने पर अपराध में आक्रमण का शिकार बनाया गया था। मूल कठिनाई यही है। इस तथ्य में सन्देह नहीं कि प्रभावशाली पदों पर अवाँछनीय व्यक्तियों का अधिकार बढ़ता चला जाता है। यह भी ठीक है कि यदि वे चाहते हैं तो अपनी कुशलता का उपयोग विघातक न होने देकर मनुष्य जाति को सुखी, समुन्नत बनाने के लिए रचनात्मक दिशा में कर सकते थे और उनके दृष्टिकोण एवं कार्यक्रम में उपयुक्त परिवर्तन हो जाने से आज की विपन्नता को बहुत कुछ सुधारा जा सकता है; पर सत्ता और लालच का दुरुपयोग रुक नहीं रहा है। इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय? इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यदि उन्हें किसी प्रकार पदच्युत भी कर दिया जाय तो उनके स्थान की पूर्ति कौन करेगा?

आज जो लोग आलोचना करते हैं और अपने को इस लायक बनाते हैं कि उस स्थान की पूर्ति कर सकते हैं तो उन पर भी भरोसा कैसे किया जाय? वचन और प्रतिपादन अब एक फैशन जैसे हो गये हैं, समय से पूर्व बढ़-चढ़कर बातें बनाना और जब परीक्षा की घड़ी आये तो फिसल जाना यह एक आम-रिवाज जैसा हो गया है। पहले जमाने में जब लोग वचन के धनी होते थे तब प्रतिपादन और प्रामाणिकता दोनों एक ही बात मानी जाती थी पर अब वे दो पृथक बातें बन गई हैं और एक से दूसरी का निश्चयात्मक सम्बन्ध नहीं माना जाता।

विभिन्न क्षेत्रों में सत्ताधारी बने हुए अवाँछनीय व्यक्तियों को पदच्युत करने की बात ठीक है। जिनने अपने उपलब्ध साधनों का दुरुपयोग किया वे इसी लायक हैं कि उनकी कलंक कालिमा को जनसाधारण के सामने इस प्रकार लाया जाय कि वे लोक घृणा से दबकर अपने आपको कुँभी पाक नरक में घिरा और वैतरणी नदी की कीचड़ में धँसा इसी जीवन में पायें और जो लाभ उठाया उससे हजार गुनी धिक्कार की प्रताड़ना सहें। यह प्रताड़ना और बहिष्कृति इसलिये भी आवश्यक है कि दूसरे लोग उस घृणित मार्ग का अवलम्बन न करें। समाज को संकट में डाल देने वाले राजनेता, साहित्यकार, कलाकार, धर्माधिकारी, विद्वान, विचारक, धनपति आदि के प्रति आज के आकर्षण और सम्मान का अन्त किया ही जाना चाहिए और उनके द्वारा किस प्रकार मानव-जाति को संकट में फँसा दिया गया उसका नंगा चित्र सबकी आँखें में लाया ही जाना चाहिए।

पर इतने से भी काम न चलेगा। इन स्थानों की पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्तित्व तैयार करने होंगे जो प्रतिपादन से आगे बढ़कर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर चुके हैं। ऑपरेशन करने में जितना समय, श्रम, मनोयोग और कौशल लगता है उससे अधिक घाव को भरने और अच्छा करने की अभीष्ट होता है। मुख्य समस्या यही है। समाज को प्रभावित करने वाले विभिन्न वर्गों के सत्ताधिकारी बलपूर्वक ही हटाये जाएं यह आवश्यक नहीं। हर क्षेत्र में उनकी प्रतिद्वंद्विता करने वाले सुयोग्य व्यक्ति खड़े हो जायें तो जनता तुलनात्मक दृष्टि से देखना और सोचना आरम्भ करेगी और अवाँछनीय, जन-सहयोग के अभाव और जन तिरस्कार के दबाव में अपनी मौत आप ही मर जायेंगे। श्रेष्ठता को सदा सम्मान और सहयोग मिला है। यदि श्रेष्ठता विकसित की जा सके तो निष्कृष्टता को बलपूर्वक हटाने या अपनी मौत मरने देने में से जो भी सरल हो उसे क्रियान्वित होने दिया जा सकता है।

संसार का भविष्य अन्धकार में धकेलने वाली प्रवृत्तियों का प्रतिरोध आवश्यक है। वर्तमान सर्वनाशी दुर्दशा पर कोई भावनाशील व्यक्ति विचार करेगा तो उसे सहसा इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इह विपन्नता को उत्पन्न करने वाले तथा उसे बनाये रखने के लिए जो भी तत्व उत्तरदायी हैं उन्हें हटाया जाय। जिन प्रवृत्तियों पर इस दुरवस्था की जिम्मेदारी है उनका उन्मूलन किया जाय। व्यक्ति एवं समाज को विनाश से बचाने के लिए इस प्रकार के प्रयास जितने विशाल, जितने व्यापक, जितने समर्थ और जितनी जल्दी हों उतने ही अच्छे हैं। पर यह ध्यान रहे एकाँगी प्रयत्न पर्याप्त न होंगे। अनुपयुक्त का स्थान ग्रहण कर सकने वाले उपयुक्त को समुन्नत करने की आवश्यकता और भी अधिक है। सो यह प्रयत्न किये जाने चाहिए कि सृजन की आवश्यकता पूर्ण कर सकने वाले और बदलते हुए अभिनव विश्व की जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए मजबूत कन्धे वाले और बड़े दिल वाले व्यक्तियों का निर्माण द्रुतगति से आरम्भ कर दिया जाय। वस्तुतः यही बड़ा काम है। यदि इस प्रयोजन की पूर्ति कर ली जाती है तो अशुभ का निराकरण बिना संघर्ष के भी सम्पन्न हो जायगा। प्रकाश का उदय होने पर अंधेरा ठहर कहाँ पाता है।

परिवर्तन के बिना कोई गति नहीं। यह जीवन-मरण का प्रश्न है, जिसे हल करना ही होगा। इस निश्चय के साथ ही हमें इस प्रयोजन के लिए सर्वप्रधान और सर्वप्रथम उपाय के रूप में धर्मनिष्ठा को जन-मानस में प्रतिष्ठापित करने के कार्य को भी हाथ में लेना होगा। इस अध्यात्म, सदाचार, नेकी, सज्जनता, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, मानवता, कर्त्तव्यपरायणता आदि किसी भी नाम से पुकारें इस शब्द भेद से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल प्रयोजन यदि पूरा हो सके तो शब्दों में उलझने की जरूरत नहीं रहेगी। इस भावना को व्यक्त करने के लिए चिर-परिचित और सर्वमान्य शब्द ‘धर्मनिष्ठा’ को ही यथावत् चलने दिया जाय तो हर्ज नहीं। बात इतनी भर है कि प्राण का स्थान परिधान को न मिले। साम्प्रदायिक आचार-व्यवहार और रीतिरिवाज एवं प्रथा-परम्परा के आवरण ऐच्छिक रखे जायें, उनमें से कौन किसका अनुसरण करता है इस संदर्भ को व्यक्तिगत अभिरुचि का विषय मान लिया जाय। अनिवार्य तो धर्मनिष्ठा मानी जानी चाहिए जिसका सीधा संबंध आन्तरिक जीवन की चरित्र निष्ठा और बाह्य जीवन की समाज निष्ठा में जोड़ा जाय। जो व्यक्तिगत जीवन में उत्कृष्ट विचारणा एवं पवित्र जीवन

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