
बुद्धि पर धर्म का अंकुश रखा जाय
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विज्ञान-बुद्धि से हम चित्र की लम्बाई-चौड़ाई नाम सकते हैं, उसमें लगे रंगों का विश्लेषण कर सकते हैं। यही उसकी सीमा समाप्त हो जाती है। चित्र में जो सौंदर्य है, जो भाव-अभिव्यंजना है-उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत कर सकने का कोई माप-दण्ड विज्ञान के पास नहीं है। ऐसी दशा में चित्रों का मूल्याँकन-क्या उसमें प्रयुक्त हुए पदार्थों को नाप-तौल कर करना ही ठीक रहेगा?
आँसुओं के पानी का वैज्ञानिक विश्लेषण पानी, खनिज श्लेष्मा, क्षार, प्रोटीन का सम्मिश्रण भर किया जा सकता है। प्रयोगशालाएँ आँसुओं का स्वरूप इतना ही बता सकेंगी। ऐसी दशा में क्या उनके साथ जुड़े हुए-स्नेह ममता, करुणा, व्यथा, वेदना आदि के अस्तित्व से इनकार कर दिया जाय? अथवा इन संवेदनाओं को इस लिए अमान्य ठहरा दिया जाय, क्योंकि उसका कोई प्रमाण पदार्थ विश्लेषण द्वारा उपलब्ध नहीं हो सका।
मनुष्य का शरीर विज्ञान की दृष्टि से कुछ रासायनिक पदार्थों का सम्मिश्रण मात्र है। उसकी गतिविधियों का आधार अन्न-जल और वायु से मिलने वाली ऊर्जा है। मस्तिष्कीय-चिन्तन को शरीरगत संवेदनाओं से प्रभावित आवेश मात्र कहकर विज्ञान दूर जा बैठता है। आत्मा का-निष्ठा का-भाव संवेदना का-आदर्शों के लिए कष्ट सहने का-त्याग करने की उमंगों का-विज्ञान के पास कोई समाधान नहीं? ऐसी दशा में मनुष्य को, आत्मा और भावना से रहित एक रासायनिक यन्त्र कहकर संतोष कर लिया जाय?
देहात के अशिक्षित लोग अपेक्षाकृत सुखी, सन्तुष्ट और निश्चिन्त पाये जाते हैं, जब कि शिक्षित और सम्पन्न वर्ग के लोग अधिक चिन्तित, उद्विग्न और असन्तुष्ट पाये जाते हैं। इसका कारण बुद्धि का एकांकी विकास है। उसके ऊपर से आस्थाओं का आवरण हट जाने से मानसिक उछलता न केवल अचिन्त्य-चिन्तन आधार प्रस्तुत करती है, वरन् उन दुष्कर्मों को करने के लिए भी छूट देती है, जो मनुष्य के गौरव और समाज गत अनुशासन को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देते हैं। उद्धत महत्त्वाकाँक्षाएँ मनुष्य को एक प्रकार से ऐसा अर्ध-विक्षिप्त बना देती हैं, जो कामना-पूर्ति के लिए उचित-अनुचित का भेद त्याग कर कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पर हो जाता है। असीम उपयोग की ललक सीमित क्षमता और सामान्य परिस्थिति में पूर्ण नहीं हो सकती। असीम उपलब्धि के साधन नहीं जुटते, ऐसी दशा में हर समय मनुष्य पर खीज चढ़ी रहती है और उसकी अभिवृद्धि से मनः क्षेत्र विषाक्त हो जाता है। ऐसे लोग अपराध-कृत्यों में निरत, उद्धत, अशान्त और हत्या अथवा आत्महत्या के लिए उतारू दीखते हैं, उन्हें अपने चारों ओर का वातावरण प्रतिकूल दीखता है। प्रतिकूलता को पचा सकने का सन्तुलन भी आध्यात्मिक विवेक-दृष्टि से ही बनता है, चूँकि दर्शन को पहले ही तिलाञ्जलि दी जा चुकी थी। इसलिए तथा-कथित मरघट के प्रेत-पिशाचों से भी गई-गुजरी मनःस्थिति में लोगों को अपने दिन गुजारने पड़ते हैं। शिक्षा, धन, पद, वैभव और परिवार की उपलब्धियाँ निरर्थक सिद्ध होती हैं, उनसे कोई समाधान नहीं निकलता। आकांक्षाओं के तूफान में उपलब्धियों के तिनके अस्त-व्यस्त छितराए उड़ते फिरते हैं। मनुष्य पर अभाव और असन्तोष ही छाया रहता है। हर घड़ी बेचैनी अनुभव होती है।
शान्ति, सन्तोष और विश्वास की छाया यदि देखनी हो तो पिछड़े अशिक्षित, देहाती और निर्धन क्षेत्र में किसी न किसी मात्रा में अवश्य मिल जायगी, किन्तु सुसम्पन्न वर्ग में उसके दर्शन भी होंगे। मित्रता के नाम पर चापलूसी ही बिखरी दिखाई देगी। क्या गहन घनिष्ठता, आत्मीयता एवं सघन निष्ठा के दर्शन दुर्लभ होंगे। परिवार एवं मित्र-मण्डली में मित्रता के चोंचले तो बहुत चल रहे होंगे, पर जिस वफादारी में एक दूसरे के लिए मर-मिटता है-उसका कहीं पता भी न होगा। यह बात आन्तरिक स्थिति के बारे में निश्चिन्त और निर्द्वन्द्व मनोभूमि कदाचित ही किसी को मिलेगी। मनोविकारों के तूफान उठ रहे होंगे और उनकी जलन से उद्विग्नता इस कदर बढ़ी हुई होगी कि जीवन का रस उसमें जल-भुन कर नष्ट ही हो चलेगा।
इसमें निर्धनता को श्रेय, और सम्पन्नता को निकृष्ट होना कारण नहीं है, वरन् यह है कि तथा-कथित पिछड़े वर्ग के अपने विश्वासों में उन तत्वों का किसी कदर समावेश करके रखा, जिन्हें अध्यात्म के वर्ग में रखा जा सकता है। भाग्यवाद, ईश्वर पर विश्वास, सन्तोष, वचन का पालन, वफादारी का निर्वाह जैसी आस्थाएँ तथाकथित विज्ञ-समाज में दकियानूसी कही जा सकती है, पर जिनने उन्हें हृदयंगम किया है-वे अज्ञ इन विज्ञों की अपेक्षा अधिक हर्षोल्लास लेकर जा रहे होंगे। दूसरी ओर सम्पन्नता का लाभ केवल शरीर पाता है। वे सुविधा साधनों का उपयोग अधिक कर लेते हैं, इससे शारीरिक सुविधा में कमी नहीं रहती, फिर भी अन्तःकरण अतृप्त और क्षुब्ध ही बना रहता है, क्योंकि उसे आस्थाओं का आहार नहीं मिल सका। प्यार और विश्वास के अभाव में मनःस्थिति मरघट जैसी वीभत्स ही बनी रहेगी। बहिरंग सुविधा-साधन उस अभाव की पूर्ति न कर सकेंगे, भले ही वे कितने ही बढ़े-चढ़े क्यों ने हों।
देखते हैं कि आस्था खोकर सम्पन्न वर्ग ने कुछ नहीं पाया, जबकि आस्था को अपनाये रहकर तथाकथित पिछड़ा वर्ग लाभ में रहा। आस्थाएँ गँवाकर भटकाव और विक्षोभ के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। वैभव अपने साथ जो उत्तेजनाएँ लेकर आता है, उनके कारण उपलब्ध होने वाले दुर्गुणों और दुष्प्रवृत्तियों की बहुलता-न शरीर को स्वस्थ रहने देती है और न जटिल प्रतिक्रियाएँ इतनी दुर्धर्ष होती हैं कि उनके सामने हर्षोल्लास का वह वातावरण भी नहीं टिक पाता, जिसे सरल और सौम्य प्रकृति का सामान्य मनुष्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध करता हुआ अपने पिछड़ेपन को भी सराहता रहता है। सम्पन्नता और सुशिक्षा लोक और परलोक दोनों ही गँवा बैठती है, जबकि वैभव रहित व्यक्तिक्रम से कम एक तो हथियाये ही रहते हैं। हत्या और आत्महत्या जैसे कुकृत्य अनास्था के बूचड़खाने में ही होते हैं। आस्थावान् सहन भी कर लेता है और भविष्य के प्रति विश्वासी भी रहता है, पर जिसने इन निष्ठाओं को उखाड़ फेंका है-उनके लिए मन को समाधान कर सकने वाला सम्बल ही हाथ से निकल जाता है। संयम और सत्कर्म के लिए औचित्य और विवेक के लिए उन्हीं के जीवन में स्थान रहता है, जिन्होंने आस्थाओं को मजबूती से पकड़ कर रखा है। अनात्मवान् खाओ-पियो मौज करो” से आगे की कोई बात सोच ही नहीं सकता। ऐसा वर्ग जिस समाज में बढ़ता है, उसका भविष्य अन्धकारमय बनकर ही रहेगा। संशय और अविश्वास की मनोभूमि में विक्षोभ के विष-वृक्ष ही उगते हैं।
स्थिरता तभी तक रहेगी-जब तक बुद्धि और धर्म का समन्वय रहेगा। बुद्धि से शक्ति अर्जित की जाय ओर धर्म का परामर्श लेकर उसका उपयोग किया जाय तो ही दुरुपयोग से बचा जा सकता है और तज्जनित दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। बुद्धि पर से धर्म का नियन्त्रण हट जाने से ऐसी भयावह उछलता उत्पन्न होती है, जिसके सामने बुद्धि के सुखद उपार्जन का कोई महत्व ही नहीं रह जाता। विज्ञान, शिक्षा, कला, तकनीकी, शिल्प आदि के क्षेत्र में इन दिनों भारी प्रगति हुई है, किन्तु उससे मानवी सुख-शान्ति में कोई वृद्धि नहीं हुई। आन्तरिक स्तर तनिक भी नहीं बढ़ा, वरन् आदिम युग की जंगली-सभ्यता की ओर लौट पड़ा। जबकि बढ़े हुए सुविधा-साधनों के सहारे व्यक्ति और समाज को अधिक परिष्कृत स्थिति का लाभ मिलना चाहिए था। बौद्धिक-विकास और तज्जनित उपलब्धियों का परिवार भस्मासुर की तरह सर्वनाश का आयोजन करने में जुटा हुआ है। परमाणु को तोड़कर प्रचण्ड शक्ति को हस्तगत तो कर लिया गया, पर अब वही मनुष्य के अस्तित्व को चुनौती देने पर तुल गई है। बुद्धि पर धर्म का नियन्त्रण रहना इन परिस्थितियों में अनिवार्य हो गया है। निरंकुश स्वेच्छाचार तो हमें नष्ट करके ही छोड़ेगा।