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Magazine - Year 1973 - Version 2

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गरीबी उदार दानवीरता में बाधक नहीं

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अपने सुखों को बाँट देना, यह उदार और सहृदय लोगों से ही बन पड़ता है। निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करने के उपरान्त जो कुछ श्रम, समय, मनोयोग, कौशल एवं चिन्तन बच जाता है, उस पर समाज का अधिकार स्वीकार किया जाना ही न्यायोचित है। जो हम पाते हैं, वह वस्तुतः असंख्य लोगों के श्रम, सहयोग का ही परिणाम होता है। कृतज्ञता उच्च दृष्टि जब ऋण भार से उऋण होने की बात सोचती है तो उसका समाधान पुण्य परमार्थ की उदार सेवा-साधना में ही सन्निहित दीखता है। दान के पीछे यदि अन्धविश्वासों की मूढ़ मान्यता, विवशता और कुटिलता छिपी न पड़ी हो तो निश्चित रूप से उसके सहारे मनुष्य अपनी महानता विकसित कर सकता है और आत्म-शान्ति पा सकता है।

आमतौर से धन देना ही दान की परिधि में आता है, पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। संसार में ऐसे लोग बहुत हैं, जो अपना एवं अपने परिवार का अनिवार्य निर्वाह ही कठिनता पूर्वक जुटा पाते हैं। प्रतीक रूप से दैनिक अभ्यास में दान-प्रवृत्ति को जीवित रखने के लिए वे कुछ पैसे सत्प्रयोजन के लिए देते भी रह सकते हैं, पर बड़ी मात्रा में कुछ कर सकना उनके लिए सम्भव नहीं हो सकता है। निश्चित रूप से धनिकों की तुलना तो वे कर ही नहीं सकते। ऐसी दशा में वे अपनी निर्धनता को दान का आनन्द लेने में प्रधान बाधा मानने लगते हैं। और दुखी होते हैं।

पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। दान-अकेले धन का ही नहीं होता, बचा हुआ समय, श्रम, चिन्तन और मनोयोग लोक मंगल के लिए-विश्व-मानव की सेवा साधना के लिए किसी मात्रा में लगा रहना हर किसी के लिए सम्भव हो सकता है। विचार पूर्वक आत्मनिरीक्षण किया जाय तो अपने पास समय का बहुत सा अंश ऐसा होता है, जो आलस्य, प्रमाद, गपशप अथवा दूसरे ऐसे निरर्थक कामों में खर्च होता रहता है, जिसे यदि चाहें तो आसानी से बचाया जा सकता है। समय के अपव्यय को तीखी दृष्टि से देखा-परखा जाय तो प्रतीत होगा कि अपना ढेरों समय ऐसी बरबादी में नष्ट होता है, जिसका न अपने लिए कोई प्रयोजन है और न दूसरे अन्य किसी के लिए। समय काटने के लिए हमारे कितने ही निरर्थक काम होते रहते हैं और जो करते हैं उनमें इतनी अन्य मनस्कता एवं शिथिलता बरतते हैं, जिनके कारण कम समय में हो सकने वाला काम दूना-चौगुना समय खा जाता है। यदि इस अस्त-व्यस्तता को हटाकर मुस्तैदी की आदत डाली जाय तो सहज ही ढेरों समय ऐसा बच सकता है, जो पहले फालतू नष्ट होता रहता था। समय की यह बचत यदि परमार्थ प्रयोजनों में लगाई जाने लगे तो निर्धन व्यक्ति भी दान-वीर धनिकों की तुलना में अधिक परमार्थ साधन कर सकता है। उसे श्रमदान का ऐसा पुण्य-फल मिल सकता है, जो धन-दान से हलका नहीं, वरन् भारी ही आँका जाएगा।

विचारों की क्षमता किसी भी साँसारिक सम्पदा की तुलना में अधिक होती है। यदि हम मस्तिष्क में आदर्शवादी उत्कृष्ट विचारधारा भरे रहें। अपने में महानता के साथ जुड़ी रहने वाली सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को भर लेने की योजना बनाते रहें तो विश्व-मानव के पुनरुत्थान में अपना क्या योगदान हो सकता है? इसका ताना-बाना बुनते रहें तो हमारा वह चिन्तन अपने व्यक्तित्व को महान बनाने और सामाजिक सुख-शान्ति का पथ प्रशस्त करने में आश्चर्यजनक रीति से सहायक हो सकता है।

हमारे मस्तिष्क में अनावश्यक और अवांछनीय विचारों की घटाएँ घुमड़ती रहती हैं और वह महत्वपूर्ण संस्थान ऐसे सोच-विचार में उलझा रहता है, जिसका कोई अर्थ नहीं। ऐसी महत्त्वाकाँक्षाएँ जिनका आज की परिस्थितियों के साथ कोई तालमेल नहीं-यदि मस्तिष्क में घुमड़ती रहती है तो उन्हें शेखचिल्ली जैसी बेपर की उड़ानें ही कहा जा सकता है। वर्तमान परिस्थितियों के साथ जिन कार्यों का सीधा सम्बन्ध है। यदि उतना ही सोचें और अधिक उपयुक्त समय आने पर आगे की योजनाएँ बनाने की व्यवहार वादी नीति अपनाएँ तो हमारी मस्तिष्कीय क्षमता का एक बहुत बड़ा भाग उस निरर्थक चिन्तन में नष्ट होने से बच सकता है।

इसी प्रकार चिन्ताओं, आशंकाओं और भविष्य में घटित हो सकने वाली दुर्घटनाओं की डरावनी कल्पनाएँ हमारे स्वभाव अभ्यास में समाविष्ट होकर चिन्तन की बर्बादी करती रहती हैं। इतना सोच-विचार यदि आशंकाओं के निराकरण का उपाय सोचने में लगता तो भी एक बात थी, पर वैसा होता नहीं। अशुभ सम्भावनाओं की बढ़ा-चढ़ा कर देखने से केवल मानसिक सन्तुलन ही बिगड़ सकता है और हड़बड़ी ही पैदा हो सकती है। द्वेष और प्रतिशोध से प्रेरित होकर विपक्षी को नीचा दिखाने की बात हम सोचते भर हैं। साहस और साधन के अभाव में वैसा कुछ कर नहीं पाते। अस्तु उस असफलता पर खीजते, हाथ मलते भर रह जाते हैं। इन उलझनों में उलझे रहने के साथ पर यदि समस्याओं का स्वस्थ और सम्भव समाधान भर ढूँढ़ने तक मस्तिष्क को सीमाबद्ध रखें तो उपयोगी निष्कर्ष भी निकल सकते हैं और चिन्तन का अनावश्यक अपव्यय भी रुक सकता है। समय की ही भाँति चिन्तन की बर्बादी को भी रोका जा सके तो आत्मोत्कर्ष और लोकमंगल के अनेक आधार ढूँढ़ निकालने और उन्हें कार्यान्वित करने की रीति-नीति ढूँढ़ी और अपनाई जा सकती है। उस बचत को परमार्थ प्रयोजनों में लगाकर हम दानवीरों जैसी प्रसन्नता प्राप्त करने के अधिकारी बन सकते हैं।

शरीर और मस्तिष्क के उपरान्त तीसरी ईश्वर-प्रदत्त विभूति है-सद्भावना इसे अपने लिए और दूसरों के लिए ठीक तरह प्रयुक्त किया जा सके तो उसका प्रतिफल भलाई का निर्झर बनकर प्रवाहित हो सकता है। अपने प्रति करुणा प्रदर्शित कर सकना यदि हमारे लिए सम्भव हो सके तो निस्सन्देह आत्मसुधार और आत्म-निर्माण की सर्वप्रथम और सर्वोपरि आवश्यकता सामने आ खड़ी होगी और प्रतीत होगा कि आहार-विहार में विचार-व्यवहार में -क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को अपनाने से जीवन का निकृष्ट स्वरूप बनता है। यदि विवेक और दूरदर्शिता का आश्रय लेकर गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत बना लिया जाय तो उसका परिणाम निखरे हुए व्यक्तित्व के रूप में सामने आ सकता है और हम क्षुद्र से महान बन सकते हैं।

आमतौर से नर-पशु स्तर के लोग पेट और प्रजनन भर की बात सोचते रहते हैं। वासनाओं और तृष्णाओं के अतिरिक्त उन्हें और कुछ सूझता ही नहीं। लोभ और मोह के इर्द-गिर्द ही सारी अभिलाषाएँ चक्कर काटती रहती हैं। ममता के परिधि-परिवार के थोड़े से सदस्यों के आगे बढ़ ही नहीं पाती। इन संकीर्ण स्वार्थों की परिधि में जकड़ा हुआ मायाबद्ध जीवधारी आदि से अन्त तक सड़ी कीचड़ में बुदबुदाते रहने वाले कीड़ों से बढ़कर कोई अच्छी स्थिति सामने आने ही नहीं देते। भजन भी मनोकामना की पूर्ति अथवा स्वर्ग, मुक्ति की शौक-मौज में उलझा रहकर निकृष्ट स्तर का ही बना रहता है और उस पर कभी भी आत्म-कल्याण अथवा आत्म-शान्ति का फल नहीं लगता।

इस दयनीय भाव-भूमिका को यदि ऊपर उठाया जा सके तो उसका परिणाम आत्मीयता के असीम विस्तार के रूप में सामने आयेगा। स्वर्ग इस परिष्कृत दृष्टिकोण का ही है। संकीर्णता के तुच्छ सीमा-बन्धनों को तोड़-फेंकना ही जीवन-मुक्ति है। इन दिव्य विभूतियों से लाभान्वित होने के लिए हमें सहानुभूति का विकास करना होता है। दूसरों के सुख-दुख में साझीदार होना पड़ता है। अन्न, वस्त्र, औषधि जैसे भौतिक साधनों का निर्धनों को दान करना-यह धनियों के लिए ही सम्भव है। भौतिक वस्तुएं खरीदना और देना धनवानों के ही बस की बात है। ब्रह्म-भोज तीर्थ-यात्रा अथवा व्यय-साध्य धर्मानुष्ठानों को भी वे ही लोग कर सकते हैं। मन्दिर, धर्मशाला, कुँआ, तालाब बनाना बिना पूँजी के कैसे हो सकता है? किन्तु इससे किसी निर्धन को दुखी होने की आवश्यकता नहीं। गरीबी अभिशाप नहीं, लानत की कंगाली है। कंगाल वे है, जिन्हें कृपणता, संकीर्णता ने घेर रखा है। ऐसे लोग अमीर होते हुए भी कंगाल ही कहलायेंगे। जिनकी अपनी हविस पूरी नहीं होती, जिनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं, उन्हें दीन दरिद्र के अतिरिक्त और क्या कहा जाएगा? इसके विपरीत उदार-हृदय निर्धन भी भाव-सम्पन्न होते हुए हजार गुना अधिक सराहनीय है। धन से सही-उदार भावनाओं से हम असंख्य लोगों के घावों पर मरहम लगा सकते हैं और उनके आँसू पोंछ सकते हैं

दुखियों को सांत्वना दी जा सकती है। निराशों में आशा की ज्योति जगाई जा सकती है। गिरे हुओं को उठाया जा सकता है और पिछड़े हुओं को आगे बढ़ाने में सहयोग दिया जा सकता है। स्वयं हम कोई महत्वपूर्ण कार्य आरम्भ न कर सकें। संस्थापक-संचालक का श्रेय न ले सकें तो हर्ज नहीं। संसार में इतनी सत्प्रवृत्तियाँ चल रही हैं कि उनमें योगदान देकर श्रेष्ठ सत्कार्यों को सोचने का अति महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं।

संसार में हर मनुष्य स्नेह और सहानुभूति का प्यास है। मैत्री और सदाशयता की ऐसी निर्झरिणी की हर किसी को तलाश है, जिसमें स्नान करके वह अपनी व्यथा-वेदनाओं के भार को उतार सके और अतृप्ति का तृषा का समाधान कर सके। इस आवश्यकता को निस्वार्थ, उदार और स्नेह सिक्त व्यक्तित्व ही पूर्ण कर सकते हैं। यदि हम अपनी करुणा और कोमलता की भाव-भूमिका को विकसित कर सकें तो उससे अगणित व्यक्ति लाभान्वित हो सकते हैं। धन दान की तुलना में यह भाव-दान किसी भी प्रकार कम मूल्यवान नहीं है।

आलोचना करना सरल है-किसी को दुत्कारने-फटकारने में भी कोई कठिनाई नहीं। ऐसा तो कोई मुँहफट और दुर्भाग्य-ग्रसित व्यक्ति भी कर सकता है, पर किसी भटके मनुष्य की मनःस्थिति को समझना, उसकी जलन पर सांत्वना की स्नेह-बिन्दु टपकाना और किसी की दबी हुई श्रेष्ठता को पुनर्जीवित करना-हर कसी का काम नहीं। इसे सद्भाव सम्पन्न ही कर सकते हैं। सहानुभूति का जल ही सूखी मिट्टी को गीली करके इस स्थिति में पहुँचा सकता है कि उसे अभीष्ट खिलौने की आकृति दी जा सके। यह कार्य भर्त्सना और कटु आलोचना से सम्भव नहीं, भटकाव की भूल-भुलैयों से दूसरों को निकाल सकना-उसी के लिए सम्भव है, जिसने पतितों और पिछड़े हुओं की दयनीय दुर्दशा को घृणा से नहीं, करुणा से देखने-समझने का प्रयत्न किया है।

उच्च स्तरीय सद्भाव सम्पन्न अन्तःकरण का विकास कर सकना प्रचुर धन सम्पदा एकत्रित कर लेने की अपेक्षा कहीं अधिक सौभाग्य है। धन देकर किसी का जितना भला किया जा सकता है, उसकी तुलना में भावनात्मक प्रेरणाएँ देकर दूसरों को ऊँचा उठा सकना, आगे बढ़ा सकना और समुन्नत स्तर तक पहुँचा सकना-कहीं अधिक उपयोगी गिना जाएगा। धनी न होते हुए भी हर व्यक्ति को यह सुविधा प्राप्त है कि अपने समय, श्रम, चिंतन और सद्भाव का अनुदान देकर विश्वमानव की इतनी बड़ी सेवा कर सके, जो मात्र धनी व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकती।

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