
बलिदान से दुर्भिक्ष निवारण
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
उन दिनों विकट दुर्भिक्ष पड़ा था। प्रजा भूख से तड़प कर प्राण त्याग रही थी। देवताओं से विपत्ति निवारण करने वाली वर्षा करने के लिए पूजा-परिचर्या के साथ अनुनय-विनय की गई। पर वे टस से मस नहीं हुए।
उन दिनों ढर्रा कुछ ऐसा ही चल पड़ा था। लोग स्वार्थों में निरत थे। परमार्थ में किसी को रुचि नहीं थी। बलिदान की बात सुनकर कँपकँपी आती थी। इस दयनीय दुर्बलता से ग्रसित लोगों के भू-भर को धरती पर से हल्का करने के लिए दुर्भिक्ष उतरा था। लोग बेतरह मर रहे हैं। बिलखती-तड़पती मरणोन्मुख प्रजा के करुण-क्रन्दन से आकाश प्रतिध्वनित हो रहा है।
बलिदान से देवताओं को प्रसन्न करके दुर्भिक्ष-निवारण का उपाय लोगों को मालूम तो था, पर इसके लिए साहस कौन करे।
एक ब्राह्मण परिवार में रोज ही बलिदान का साहस करने की चर्चा होती। उस परिवार में तीन पुत्र थे। क्या हम लोग देव-समाधान के लिए आगे बढ़ सकते हैं? अशक्ति वृद्धि की हतवीर्य काया से देवताओं की रुचि नहीं। उन्हें तरुण-रक्त चाहिए।
उस रात चर्चा बहुत समय तक चली। ब्राह्मण दम्पत्ति अपने पुत्रों की बलि देने की चर्चा करने लगे। माता ने कहा-छोटा मुझे बहुत प्यारा है, उसे मैं किसी भी कीमत पर नहीं दूँगी। पिता ने कहा बड़ा कमाऊ है, उसे हाथ से नहीं जाने दिया जा सकता। कम महत्व का बीच वाला शुनिशेप ही था।
न जाने क्यों उस खुसपुस में शुनिशेप को नींद नहीं आई। वह उनींदा ऐसे ही पड़ा रहा और सब कुछ ध्यान पूर्वक सुनता रहा। मन ही मन उसने सोचा-जब माता-पिता की आवश्यकता को छोटे और बड़े भाई पूरी कर सकते हैं तो मैं पीड़ित-प्रजा के काम आने से क्यों झिझकूं? दूसरों जैसी कायरता से मरा मन मोह-ग्रस्त नहीं है तो बलिदान का प्रयोजन पूरा करके देव-अनुग्रह क्यों न प्राप्त करूँ? उसने मन ही मन निश्चय कर लिया।
प्रभात होते ही उसने अपनी आकांक्षा बलिदान के लिए व्यक्त की। बिना उत्तर आदेश की प्रतीक्षा किए वह उस यज्ञ भूमि में जा पहुँचा -जहाँ बलि के अभाव में यज्ञ की अग्नि ठण्डी पड़ चुकी थी। स्वेच्छा बलिदान के लिए उपयुक्त पात्र मिलने पर सर्वत्र प्रसन्नता का वातावरण छा गया और यज्ञायोजन की शिथिल पड़ी प्रक्रिया पुनः गतिशील हो गई। शुनिशेप देव-प्रयोजन में समर्पित होने के लिए अपने जीवन को सार्थक मान रहा था। प्रजा उसकी साहसिकता का भार भरे अश्रु-कणों के साथ अभिनन्दन कर रही थी।
बलि का समय निकट आ गया। ब्राह्मण-शरीरधारी वरुण, यज्ञ-भूमि में उपस्थित हुए। उनने कहा-परमार्थ-परायणता से विमुख प्रजा को अगणित संकटों का सामना करना ही पड़ता है। यह देश अपनी भीरुता का दण्ड-भोग रहा है। शुनिशेप ने उस कलंक को धो दिया। बलि का अर्थ-मरण नहीं, समर्पण है। बलिदानी शुनिशेप आगे बढ़ा तो स्वभावतः अनेकों उसके अनुयायी बनेंगे और संसार में परमार्थ की प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करेंगे। देवता उसी की प्रतीक्षा में थे। उनका क्रोध अब शाँत हो गया। आज से ही प्रबल वर्षा होगी और दुर्भिक्ष मिट जाएगा।
वैसा ही हुआ भी। शुनिशेप प्रजा की परमार्थ परायण और संगठित बनाने में जुट गया। देवताओं ने भरपूर वर्षा की और दुर्भिक्ष का संकट टल गया। बलि दानी का देश दुखी रह भी कैसे सकता था।