
अखण्ड ज्योति के चंदे में एक रुपये की वृद्धि
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इन दिनों आकाश छूने वाली महँगाई से कोई अपरिचित नहीं है। पर कागज के क्षेत्र में तो उसने सारी मर्यादाओं को ही तोड़कर रख दिया है। गतवर्ष इन्हीं दिनों कागज का जो भाव था, इन दिनों उससे दूने भाव में मिलना दुर्लभ हो रहा है, सरकारी कोटे का जो कागज मिलता था, उसकी न केवल मात्रा में भारी कमी हुई है, वरन् वह कब मिलेगा? कितना मिलेगा? यह सब भी अनिश्चित है।
सभी चीजों की महँगाई बढ़ने का प्रभाव प्रेस-कर्मचारियों की वेतन -वृद्धि के रूप में भी सामने आ गया है। न केवल ‘कागज’ के दानों में, वरन् ‘छपाई की लागत’ में भी खर्च बढ़ा है।
इन परिस्थितियों में अखण्ड-ज्योति का चन्दा बढ़ने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष नहीं रह गया है। पृष्ठ घटाकर काम चलाने की बात भी सोची गई, पर हिसाब लगाने से पता चला कि ठीक आधे पृष्ठ घटाने पर ही जमा-खर्च बराबर होगा। अब 64 पृष्ठ छपते हैं, आगे यदि 7 रुपया ही चन्दा रखना हो तो 32 पृष्ठ से अधिक न दिये जा सकेंगे। इतने कम पृष्ठों में वे ज्ञान-किरणें पाठकों तक पहुँच ही न सकेंगी, जिन्हें ‘गुरुदेव’ अपने गहन-तत्व-चिंतन को नवनीत की तरह पहुँचाने की साधना में निरत हैं।
गत वर्ष इस महँगाई ने अखण्ड-ज्योति को इतना घाटा दिया है कि इस वर्ष आर्थिक दृष्टि से उसके पैर ही लड़खड़ाने लगे हैं। अगले वर्ष भी वही स्थिति चलने दी जाय तो निश्चित रूप से उसे बन्द कर देने के अतिरिक्त और कोई मार्ग शेष नहीं रहेगा।
स्पष्ट है कि इस महँगाई का असर प्रत्येक ‘पाठक’ पर है और उसे भी अपना निर्वाह कठिन पड़ रहा है। आवश्यक खर्चों में भी कटौती करके किसी प्रकार काम चलाना पड़ रहा है। ऐसी दशा में उसे अखण्ड-ज्योति के चंदे में वृद्धि होना निश्चित रूप से भारी पड़ेगा। दूसरी ओर हमारी भी वही स्थिति है। घाटे का असह्य बोझ उठाना अपने लिये भी असम्भव है।
बहुत सोच-विचार के बाद यत्किंचित् मूल्य वृद्धि करके किसी प्रकार काम चलाने का निश्चय किया गया है और मात्र एक रुपया ही बढ़ाया गया है। अब जनवरी 74 से अखण्ड-ज्योति का चन्दा सात के स्थान पर ‘आठ रुपया वार्षिक’ कर दिया गया है, इससे महंगाई के घाटे की एक एक सीमा तक ही पूर्ति होगी। शेष कमी पूरा करने के लिये सम्भव है-कुछ पृष्ठ भी घटाने पड़ें।
यह बुद्धि हमें अखरी है। पाठकों को भी अखरेगी ही, पर विवशता ने और कोई मार्ग शेष नहीं रहने दिया, इसलिए उसे हमें स्वीकार करना ही होगा। आशा है, प्रेमी पाठक अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर उपलब्ध होती रहने वाली प्रकाश-किरणों का महत्व समझते हुए इस अतिरिक्त भार को अपनी सहज उदारता पूर्वक स्वीकार करेंगे।
खतरा एक और भी है कि यदि मूल्य वृद्धि के कारण ग्राहकों की संख्या घट गई तो घाटा ज्यों का ज्यों बना रहेगा। कम उत्पादन में लागत बढ़ने का सिद्धान्त हर कोई जानता है। इसलिए पाठकों के कन्धों पर बढ़ा हुआ ‘एक रुपया’ चन्दा और देने के अतिरिक्त एक नया उत्तरदायित्व यह भी आता है कि वे ग्राहकों-संख्या घटने न देने के लिए पिछले वर्षों की अपेक्षा अधिक प्रयत्न करें और पुराने ग्राहकों को प्रोत्साहित करने तथा नये ग्राहक बढ़ाने के लिए इन दिनों अधिक ध्यान दें और अधिक परिश्रम करें।” इस वर्ष तो यह आपत्ति-कालीन अतिरिक्त कर्तव्य विशेष रूप से पूरा करने के लिए हममें से प्रत्येक को अधिक तत्परता पूर्वक जुटना ही चाहिए।
जिन लोगों के पास ग्राहकों से चन्दा वसूल करने के लिए रसीद-बहियां भेजी गई थीं, उन्हें भी इस सम्बन्ध में पूरा ध्यान देना है। रसीद में छपे सात रुपये को काटकर हाथ से आठ रुपया बना लेना है। जिनसे सात रुपया लिया है, उनसे ‘एक रुपया’ और लेना है।
बढ़ी हुई महँगाई के कारण बढ़े हुए चंदे का अतिरिक्त भार उदारता पूर्वक उठा कर प्रेमी-पाठक अखण्ड-ज्योति के प्रति अपनी सहज श्रद्धा और सघन आत्मीयता का परिचय देंगे, ऐसी आशा है-और विश्वास भी।