
शीतल आवरण से ही समस्वरता सम्भव है।
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भीतरी आग को बाहर फूट पड़ने से बचाने की प्रक्रिया ही इस संसार को सामान्य क्रम से चलने देने का आधार बनी हुई है। यदि भीतरी आग को स्वच्छन्द फूटने का अवसर मिलता रहे तो यहाँ न व्यवस्था रहेगी और न सुरक्षा। धरती के भीतर आग भरी पड़ी है। इसके ऊपर भूतल का ठण्डा और मोटा कवच चढ़ा है। यह कवच जब भी, जहाँ भी-ढीला पड़ता है, वहीं विनाशकारी भूचाल सामने आ उपस्थित होते हैं।
पृथ्वी की ऊपरी परत एक प्रकार से नारंगी के छिलके की तरह है, जिसके भीतर भूगर्भ की भयंकर ऊष्मा और उथल-पुथल पर नियन्त्रण रहता है। बहुत गहराई पर पृथ्वी का भीतरी भाग अभी भी पिघले हुए लाल लोहे की तरह है और क्रमशः ठण्डा होने की प्रक्रिया के अंतर्गत भीतर ही भीतर भारी हलचलें चलती रहती हैं। वह उथल-पुथल भीतर ही सीमित रहे। इसकी सुरक्षा पृथ्वी की ऊपरी परत पर अवस्थित वह कवच ही करता है, जो प्रायः तीन मील से लेकर 100 मील तक मोटा है। यदि यह छिलका न होता तो भीतरी हलचलें ऊपरी परत तक उभरती रहीं और भूमि पर सर्वत्र अस्थिरता रहने से कहीं कुछ भी सुरक्षित न होता।
इस कवच-परत में कहीं-कहीं कुछ छिरछिरापन है। इसलिए समय-समय पर उसमें से भीतरी हलचलें फूट पड़ती हैं और धरती पर भूचाल एवं भूकम्प होते रहते हैं। कभी-कभी तो बहुत ही विकट होते हैं। अलास्का का भूकम्प इतना विकट था कि जापान पर डाले गये अणुबम की तुलना में उसे एक करोड़ गुना शक्तिशाली कहा जा सके। उसने 7 लाख वर्ग मील भूमि को प्रभावित किया था।
भूतल के अन्तराल में होते रहने वाले परिवर्तन उसकी बाहरी सतह को प्रभावित करते हैं। हिमालय लगातार ऊँचा उठ रहा है। नीलगिरी तो प्रायः 300 मीटर ऊपर उठ चुका है। रामेश्वर का तटवर्ती जंगल समुद्र में धँस गया, बम्बई के निकट भी कुछ भूभाग जल-समाधि ले चुका है। भौगोलिक दृष्टि से भारत का दक्षिणी पठार किन्हीं भूचालों की ही देन है। भीतर की आग जब बाहर फूटती है तो समस्वरता को तोड़-मरोड़ कर रख देती है। पर्वत उठें या खड्डे पड़ें दोनों ही स्थिति में उपयोगी समतल भू-परत की उपयोगिता से तो हाथ धोना ही पड़ता है।
धरती की तरह ही मनुष्य के भीतर भी कई प्रकार की आग छिपी पड़ी है, उनमें से उपभोग और संचय की लालसा प्रमुख है। उद्धत स्वेच्छाचार की अहंकारिता भी लगभग वैसी ही है, वह मर्यादाओं को तोड़कर मनमानी करने पर उतारू रहती है। यह भी एक प्रकार की आग है। क्रोध और दर्प को भी इसी पंक्ति में बिठाया जा सकता है। वासना और तृष्णा की चिन्ता और उद्विग्नता की आग की भयंकरता से कौन परिचित न होगा? यदि इन्हें ही दबा न रहने दिया जाय-उभरने के लिए स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय तो जीवन की समस्वरता स्थिर रह नहीं सकेगी। समाज का संतुलन टिक ही न सकेगा।
शील, मर्यादा, नीति, संयम और आस्तिकता की दूरदर्शिता पूर्ण परतें ही जीवन क्रम में सज्जनता और शालीनता स्थिर रखती हैं। न्याय, धर्म और विवेक के बन्धनों में बँधा हुआ समाज ही शान्ति पूर्वक रहता और प्रगति के पथ पर बढ़ता है। अपराधी उच्छृंखलता और संकीर्ण स्वार्थपरता की दुष्टता की आग को ऊपर तक न आने देना ही बुद्धिमत्ता है। नीलकंठ शिव की तरह इस विषाक्तता को कण्ठ में रोके रहने में ही भलाई है। अन्यथा भूचाल जैसे दुष्परिणाम हमारे लिए घातक संकट उत्पन्न करेंगे।