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Magazine - Year 1973 - Version 2

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Language: HINDI
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मस्तिष्क की अद्भुत क्षमताएँ जिन्हें जानें और बढ़ायें

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मानवी-मस्तिष्क में जो अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं, उनमें से वह केवल कुछ की ही थोड़ी सी ही मात्रा का प्रयोग कर पाता है। सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक शिक्षण द्वारा मनुष्य की जानकारी तथा क्रिया-कुशलता बढ़ती है। उस आधार पर वह अनुभव एवं अभ्यास को बढ़ाकर तरह तरह की भौतिक सफलताएँ प्राप्त करता है। सामान्य जीवन की प्रगति इस प्रशिक्षण-जन्य मस्तिष्कीय-विकास पर ही निर्भर रहती है। यह सारा क्रियाकलाप समग्र मानसिक-क्षमता का एक बहुत छोटा अंश है। इस परिधि से बाहर इतनी अधिक सामर्थ्य बच जाती है, जिसका कभी स्पर्श तक नहीं हो पाता और अछूती क्षमताओं को प्रसूत अवस्था में पड़ी रहने की दुखद स्थिति में ही जीवन का अन्त हो जाता है।

मस्तिष्कीय-चमत्कारों में एक स्मरण-शक्ति का विकास भी है। यदि उस संस्थान को समुन्नत बना लिया जाय तो सामान्यतया जितना मानसिक श्रम किया जा सकता है, उससे कई गुना कर सकना सम्भव हो सकता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ में एक ऐसे भाषा अनुवादक थे, जो एक ही समय में चार भाषाओं का अनुवाद अपने मस्तिष्क में जमा लेते थे और चार स्टेनोग्राफ़र बिठाकर उन्हें नोट कराते चले जाते थे।

दार्शनिक जेरमी वेन्थम जब चार वर्ष के थे, तभी लैटिन और ग्रीक भाषाएँ ठीक तरह बोलने लगे थे। जर्मनी गणितज्ञ जाचारियस ने एक बार 200 अंकों वाली लम्बी संख्या का गुणा मन ही मन करके लोगों को अचम्भे में डाल दिया था। अमेरिका के एक गैरिज कर्मचारी को सैकड़ों मोटरों के नम्बर जवानी याद थे और वह उनकी शक्ल देखते ही पुरानी मरम्मत की बात भली प्रकार याद कर लेता था।

डार्ट माउथ कालेज अमेरिका में एक प्रयोग किया गया कि क्या छात्रों की पुस्तक पढ़ने की गति तीव्र की जा सकती है? मनोवैज्ञानिक व्यायामों और प्रयोगों के सहारे हर मिनट 230 शब्दों की औसत से पढ़ने वाले छात्रों की गति कुछ ही समय में बढ़कर 500 प्रति मिनट तक पहुँच गई।

छोटी आयु भी प्रगति में बाधा नहीं डाल सकती है। शर्त एक ही है कि उसे मनोयोग पूर्वक अपने कार्य में तत्पर रहने की लगन हो। डान फ्रांसिस्को कोलंबिया विश्वविद्यालय में जब प्राकृतिक इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त हुआ, तब उसकी आयु मात्र 16 वर्ष थी।

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक चार वर्षीय बालिका बेबेल थाम्पनन को गणित अध्ययन के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध किया। यह बालिका इतनी छोटी आयु में ही अंकगणित, त्रिकोणमिति और प्रारम्भिक भौतिक-शास्त्र में असाधारण गति रखती है। इस उम्र के बालक ने जिसने प्रारम्भिक पढ़ाई क्रमबद्ध रीति से नहीं पढ़ी, आगे कैसे पढ़ाया जाय? इसका निर्धारण करने के लिए शिक्षा शास्त्रियों का एक विशेष पैनल काम कर रहा है।

मद्रास संगीत एकेडेमी न्यास की ओर से रविकिरण नामक ढाई वर्ष के बालक को उसकी अद्भुत संगीत प्रतिभा के उपलक्ष में 50 रुपये प्रति मास तीन वर्षों तक अतिरिक्त छात्रवृत्ति देने की घोषणा की है। यह बालक ने केवल कई वाद्य यन्त्रों का ठीक तरह बजाना जानता है, वरन् दूसरों द्वारा गलत बजाये जाने पर उस गलती को बताता भी है।

मस्तिष्क की बनावट विचित्र है, उसकी संरचना अद्भुत है। छोटे-छोटे कणों के भीतर इतनी विशेषताएँ भरी पड़ी हैं, जिनका थोड़ा अधिक परिचय प्राप्त किया जाय तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। संसार में जितने भी अद्भुत कार्य हुए हैं और विशेष प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व प्रकाश में आये हैं, उनकी समस्त विशेषताओं की मूल उनके मानसिक विकास पर निर्भर रहती है। यह विकास कई बार तो जन्मान्तरों की मानसिक प्रगति के कारण छोटी आयु में अनायास ही हो जाता है। किन्तु इस विकास क्रम का मार्ग अवरुद्ध किसी के लिए भी नहीं है। प्रयत्न पूर्वक कोई भी अपनी मानसिक क्षमताओं का क्रमिक विकास करते हुए उन्हें उच्च स्तर तक पहुँचा सकता है।

एक विशेषज्ञ के अनुसार यदि संसार भर के विद्युतीय संयन्त्र इकट्ठे कर लिये जाएँ और उन उपकरणों को समस्त पेचीदगी इकट्ठी कर ली जाय तो वह उस पेचीदगी से कहीं कम प्रतीत होगी, जो मानवी-मस्तिष्क में भरे साढ़े चार पाव ‘ग्रेमेटर’ में भरी पड़ी है।

मस्तिष्क का सामने वाला भाग सेरेक्रम संवेदनाओं और इच्छाओं का केन्द्र है। बुद्धि, विचारशीलता और भावनाएँ भी यहीं उत्पन्न होती हैं। मस्तिष्क का पिछला हिस्सा ‘सेरेवलम’ कहा जाता है। यह शरीर के सन्तुलन को बनाये रखने की तथा विभिन्न अवयवों की गतिविधियों को स्वसंचालित रखने की भूमिका सम्पादित करता है। हमारी सहज क्रियाएं -रिएक्शन एक्शन का नियन्त्रण भी यहीं से होता है। मस्तिष्क का तीसरा भाग जिसको मेड्रला ओवलागटा कहते हैं, अंगों की स्वसंचालित प्रक्रिया का अधिष्ठाता है।

मस्तिष्क का एक और भी वर्गीकरण हो सकता है। भूरा पदार्थ बुद्धि का सफेद पदार्थ क्रिया का संचालन करता है। मस्तिष्क का दाहिना भाग शरीर के बांये भाग का और बाँया भाग शरीक के दाहिने भाग का संचालन करता है।

यह मस्तिष्कीय संरचना अपने आप में पूर्ण है। उसमें स्वावलम्बन की और घात प्रतिघात सहने की अद्भुत क्षमता मौजूद है। बाहरी पोषण से अथवा मानसिक व्यायामों से वह विकसित हो सकता है और अवरोधों का सामना करने के लिए अभ्यस्त हो सकता है। किन्तु ऐसा कुछ न भी किया जाय तो भी वह अपनी समर्थता का कई बार अनायास ही ऐसा परिचय देता है, जिसे देखकर उसकी आत्मनिर्भरता को स्वीकार करना पड़ता है। निद्रा को मस्तिष्क की खुराक माना जाता है और कहा जाता है कि यदि मनुष्य सोये नहीं तो जल्दी ही पागल हो जाएगा या मर जाएगा। पर ऐसे अनेक प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि मस्तिष्क निद्रा आदि किसी सुविधा की परवाह न करके अपने बलबूते अपना काम भली प्रकार चलाता रह सकता है।

इंग्लैंड के एक जे. डब्ल्यू. स्मिथ नामक 76 वर्षीय किसान की निद्रा उसकी 18 वर्ष की आयु में किसी बीमारी के कारण सदा के लिए नष्ट हो गई और इसके बाद वह फिर कभी भी नहीं सोया। 58 वर्ष तक बिना निद्रा के भी उसका काम बिना किसी रुकावट के चलता रहा।

स्पेन के अर्नेस्टो येअर्स कृषि-फार्म में काम करने वाले लोंर्टन मेडिना की आयु अब 70 वर्ष के लगभग जा पहुँची, पर वे गत 50 वर्ष से नहीं सोये। इससे उनकी मुस्तैदी में कमी नहीं आई। दिन भर खेत पर काम करते हैं और रात को जागते रहने के कारण वे ही चौकीदार की आवश्यकता भी पूरी करते हैं। जब थकान आती है तो थोड़ा लेटभर लेते हैं, उतने से ही उनका काम चल जाता है। स्पेन के स्वास्थ्य विभाग ने उनके मरण उपरान्त मस्तिष्क की चीर-फाड़ करके अनिद्रा के कारण और उसकी क्षतिपूर्ति होते रहने की विशेषता जानने का अधिकार प्राप्त कर लिया है।

पूर्वी पटेल नगर दिल्ली में बाबा राम सिंह नामक एक शतायु सज्जन बच्चों की कापी-पेंसिल जैसी चीजों की दुकान चलाते थे। उनका कथन था कि गत 22 वर्ष से एक क्षण के लिए भी नहीं सोये। इस बात की पुष्टि उस मुहल्ले के सभी लोग करते थे, जो रात-विरात उधर से निकलने पर उन्हें बैठा, गुनगुनाता या कुछ न कुछ खटपट करते देखा करते थे।

नवीनतम शोधें यह बताती हैं कि बीमारियों के कारण मात्र विषाणुओं की प्रकृति की प्रतिकूलता को अथवा आहार-बिहार की अस्त-व्यस्तता तक सीमित मान बैठना उचित नहीं। वस्तुतः रोगों का बहुत बड़ा कारण मनुष्य की मानसिक विकृतियाँ होती हैं। मनोविकारों का आरोग्य पर जितना घातक प्रभाव पड़ता है, उतना और किसी का नहीं। यदि क्रोध, चिन्ता, भय, निराशा, आशंका, ईर्ष्या जैसे आवेशों से मस्तिष्क भरा रहे तो स्वास्थ्य-संरक्षण की सारी सुविधाएँ रहने पर भी निरोग रह सकना संभव न होगा। इसके विपरीत -निश्चिंत, निर्भय साहसी और मस्त तबियत का आदमी अपनी व्यथाओं का बिना उपचार के अनायास ही आधा निवारण कर लेता है। दीर्घ-जीवन के अनेकों आधार बताये गये हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण है-जीवन इच्छा की प्रबलता। जो अपनी जिन्दगी को समाप्त हुआ नहीं मानता, देर तक जीने पर गहरा विश्वास रखता है, वह कष्ट-साध्य और असाध्य रोगों से देर तक लड़ता रह सकता है और भयावह संकट को परास्त भी कर सकता है।

मनोविज्ञानी डा. ले का कथन है -”क्रोधी और झगड़ालू मनुष्यों के शरीर में आवेश जन्य उत्तेजना से एड्रेनेलीन जहर पैदा होता है और वह रक्त में मिलकर पहले तो कई तरह की हानियाँ पहुँचाता है, पीछे नशे सेवन करने वालों की तरह वह विष ही शरीर की एक भूख बन जाता है। उसके बिना रहा ही नहीं जाता। ऐसी दशा में उस व्यक्ति की अन्तः चेतना किसी से न किसी से झगड़ा करने की प्रेरणा करता है और वह मनुष्य कोई न कोई बहाना किसी न किसी से लड़ने का ढूँढ़ निकालता है। आये दिन बातों की लातों की लड़ाई करने के लिए उसे आकुलता बनी रहती है। क्रोध के कारण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक हानियों की बात तो अलग रही, यह न छूटने वाली झगड़ने की आदत इतनी बड़ी हानि है, जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य और सन्तुलन ही नहीं, समग्र व्यक्तित्व नष्ट होता चला जाता है।”

यही बात अन्याय मनोविकारों पर लागू होती है, वे इतना अधिक अहित करते हैं, जिनकी तुलना किसी भी बाहरी शत्रु के भयानक आक्रमण से नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यदि मानसिक सन्तुलन ठीक से बना रहे तो मूर्ख मनुष्य बुद्धिमान बन सकता है और प्रगति के अवरुद्ध मार्गों को खोल सकता है।

उपेक्षा में पड़ी हर वस्तु नष्ट होती चली जाती है-मस्तिष्क के सम्बन्ध में भी यही होता है। हम चेहरे की सुन्दरता बनाये रखने के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, यदि उससे आधा प्रयास भी मस्तिष्कीय क्षमता को समझने और उसे सुसंतुलित, समुन्नत बनाने के लिए करते रहें तो निस्सन्देह हमारी अन्तर्हित क्षमताओं का सहज ही विकास हो सकता है और उस आधार पर हम अभीष्ट दिशा में आशातीत प्रगति कर रहे हैं।

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