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Magazine - Year 1973 - Version 2

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धरती की हत्या करके बचेंगे हम भी नहीं

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धन की तरह बुद्धि का भी एक नशा होता है। आवश्यकता से अधिक जो भी चीज जमा हो जाती है-पेट में भरे हुए अनावश्यक अन्न की तरह अपच और सड़न उत्पन्न करती है। बुद्धि का भी यही हाल है। थोड़ी सी सफलताएँ मिलने पर हमारा ओछापन इतराने पर उतारू हो जाता है और नगण्य सी समर्थता को सर्वशक्तिमत्ता मान बैठता है। विज्ञान के क्षेत्र में मिली यत्किंचित् सफलताओं ने लगता है कि अपनी पीढ़ी की बुद्धिमत्ता को अहमन्यता के उस स्तर पर पहुँचा दिया है, जिसे ‘विक्षिप्तता’ कहा जा सकता है।

प्रकृति हमारी माँ है, उसे बछड़े की तरह दुहने की मर्यादा में रहें, तो ही लाभ है। अन्यथा सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे निकालने की बात सोचने वाले लालची की तरह अपनी भी दुर्गति ही होती है। प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का उद्धत स्वप्न अन्ततः अपने ही पैर में आप कुल्हाड़ी मारने की तरह घातक सिद्ध होगा।

धरती को ही लें-वह हमारी माँ है। माँ से सत्कार पूर्वक दूध पीकर जीव जगत मुद्दतों से अपना निर्वाह करता चला आ रहा है। पर स्वाभाविक क्रम का उल्लंघन करने के लिए उतारू होंगे तो पायेंगे कम, खोयेंगे अधिक। सृष्टि का एक सन्तुलित क्रम है, उसे यथावत चलने देने से ही हमारी जीवन-रक्षा होगी। प्रगति की एक सीमा है, उसी में हमें रहना चाहिए। विशेषतया धरती-आकाश को जीतकर उन्हें मन चाहे प्रयोग के लिए तो विवश नहीं ही करना चाहिए। धरती के साथ इन दिनों अगले ही दिनों विघातक विभीषिका बनकर सामने प्रस्तुत होगा।

‘लिविंगसाइल’ (जीवित मिट्टी) पुस्तक की विद्वान लेखिका- ईवबलफर ने लिखा है-मनुष्य की काया मिट्टी से बनी है। मिट्टी ही उसे पालती-पोसती है। इसलिए सच्चे अर्थों में वह उसकी माँ है। यदि इस मिट्टी माता को मारेगा तो न केवल खुद मरेगा, वरन् संसार से अन्य जीवों का भी अस्तित्व मिटा देगा।

देखने में मिट्टी नगण्य लगती है- न उसका कुछ मूल्य है, न महत्व। चाहे जितनी मात्रा में, चाहे जितनी चाहे जहाँ पड़ी-बिखरी मिल सकती है और आवश्यकतानुसार मुफ्त में भी उसे पाया जा सकता है। पैरों के नीचे कुचलती और हवा में उड़ती हुई पाई जाती है, पर थोड़ी गहराई से उसे परखें तो प्रतीत होगा कि यह एक बहुमूल्य ऐसा रासायनिक सम्मिश्रण है, जिसके ऊपर प्राणियों की जीवन धारण क्षमता का सार-तत्व भरा पड़ा है। उसे चाहे तो मिनिरल राँक खनिज-रसायनों की चट्टान कह सकते हैं। दह्यूमस-सेन्द्रिय खाद तत्व तथा माइक्रोआरगेनिजम्स-अति सूक्ष्म जीवाणुओं के सम्मिश्रण से मिट्टी बनी है। अति सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा गोबर तथा घास-पात जैसी चीजों को सड़ाने पर जो डी. कम्पोजिशन बनता है, वही खाद-तत्व मिट्टी को प्राणवान बनाता है।

कार्बन दस भाग और नाइट्रोजन एक भाग के सम्मिश्रण से सेन्द्रिय खाद बनता है। वह जब फर्मेन्टेशन सड़न की प्रक्रिया से बने, तभी अधिक समर्थ होता है। उसी से भूमि की उर्वरा-शक्ति बढ़ती है।

‘फार्मर्स आव फारटीन्थ सेंचुरी नामक पुस्तक के लेखक -डा. किंग ने लिखा है-अमरीकी किसान जिन्हें प्रगतिशील कहा जाता है, चार सौ वर्षों के भीतर ही अपनी जमीन को बंजर बना रहे हैं। जबकि चीन और जैसे प्रतिगामी पुरातन-पंथी समझे जाने वाले खेतिहर अपनी भूमि को कम से कम जीवित तो बनाये हुए हैं। कृषि-विद्या का मूल सिद्धान्त यह है कि धरती से उत्पन्न होने वाली चीजें उपयोग करने के बाद उसी को वापिस लौटा दी जाय। मनुष्यों और पशुओं को जो आहार-अन्न फल, शाक, घास आदि के रूप में प्राप्त होता है, स्वभावतः उसे मल-मूत्र और कूड़े-कचरे के रूप में फिर धरती को वापिस किया जाना चाहिए, तभी उसकी उर्वरा-शक्ति जीवित रहेगी और उत्पादन का चक्र यथाक्रम चलता रहेगा।

इन दिनों रासायनिक-खादों का धूम है। इससे तुरन्त लाभ होता है और अधिक उत्पादन होता है। यह बड़ा आकर्षक भी है। किन्तु कुछ ही वर्षों में दुष्परिणाम सामने आता है कि भूमि की शक्ति किस बेतरह घटी और नष्ट हुई। इतना ही नहीं, इस प्रकार दुर्बल बनाई गई भूमि की रोग प्रतिरोधक शक्ति भी क्षीण हो जाती है और फिर फसलों पर तरह-तरह के कीड़े हमला बोलते हैं और उत्पादन को चट कर जाते हैं। फसल को कीड़ों से बचाने के लिए उस पर जहरीली दवाओं के घोल छिड़का जाते हैं। कीड़े मारने का तात्कालिक लाभ मिल जाय तो भी वे विष घुमा-फिराकर मनुष्यों और पशु-पक्षियों के पेट में पहुँचते हैं। इससे उनके रुग्ण होने और असमय में ही मरने का संकट उत्पन्न होता है।

जैम्फ एण्ड हाइड की ‘रेप आव दी अर्थ’ नामक पुस्तक में धरती पर होने वाले अत्याचार और उसके दुष्परिणाम पर रोमांचकारी प्रकाश डाला है और आँकड़ों सहित बताया गया है कि अमेरिका में साइल इरोजन भू-क्षरण की समस्या कितनी विकट होती चली जा रही है। रासायनिक खाद किस तरह धरती को अनुर्वर बना रहे हैं। उसकी जल धारण करने की क्षमता नष्ट हो रही है और मरी हुई धरती रेगिस्तान बन रही है।

मिट्टी और मनुष्य का स्वास्थ्य एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है। धरती यदि कमजोर या बीमार होती चली गई तो उसका बुरा प्रभाव निश्चित रूप से मनुष्य को भी भुगतना पड़ेगा। मनुष्य ही क्यों, अन्य प्राणी भी उस अस्वस्थता की लपेट में आये बिना न रहेंगे। मिट्टी स्वस्थ होगी तो घास, अनाज, शाक फल स्वस्थ होंगे, उन पर निर्वाह करने वाले प्राणी स्वस्थ रहेंगे। किन्तु यदि बीमारी जड़ में ही घुस गई तो पत्तों को सूखते-झड़ते क्या देर लगती है , आहार का मूल-स्रोत धरती में है, वहीं विकृति घुस पड़ी तो उसका परिणाम वे सभी भुगतेंगे- जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपना आहार भूमि के उत्पादनों से ग्रहण करते हैं। क्या शाक, क्या माँस-उसका उत्पादन तो मूलतः धरती से ही होता है। माँसाहारी-शाकाहारियों को खाते हैं। शाकाहारियों का खाद्य धरती ही तो उपजाता है। इस तरह कीड़ों-मकोड़ों और मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी तक सभी को भूमि ही निर्वाह प्रदान करती है। जलचर भी उस क्षेत्र से बाहर नहीं। समुद्रों तथा जलाशयों में जीवन तत्व हैं, वह धरती से ही बहकर पहुँचता है। जलचरों को आहार उसी मिलता है, जल-अकेला जल ही है। धरती से समुद्र को मिलने वाला यह अनुदान यदि विकृत होगा तो उसका प्रभाव जलचरों पर भी पड़े बिना न रहेगा।

मैकूकेरिसन ने चूहों को कई तरह की भूमियों में उत्पन्न हुए गेहूँ के अलग-अलग प्रयोग क्षेत्रों में रखा और देखा कि उसका क्या परिणाम होता है , सेन्द्रिय खाद की जमीन में उपजे गेहूँ खाकर चूहे पूरी तरह परिपुष्ट हुए, जबकि रासायनिक-खादों से उगायें गये गेहूँ खाने वाले चूहों का बुरा हाल था।

पाश्चात्य देशों में स्वास्थ्य-रक्षा की दिशा में बहुत कार्य हुआ है। सरकार इस पर बहुत खर्च करती है। चिकित्सा-विज्ञान का विकास हुआ है। फलस्वरूप छूत के रोग घटे हैं। स्त्रियों का प्रसूति-मरण भी धातु-विद्या के विकास से काफी कम हुआ है। किन्तु डीजनरेटिव डिसिजेस-शरीर को क्षीण करने वाले रोग बेहिसाब बढ़े हैं और वे इतने उग्र हैं कि डाक्टर उनके सहारे अपना धन्धा तो चलाते हैं, पर नियन्त्रण कर सकने में असमर्थ हैं। इन बढ़ते हुए क्षीणताकारी रोगों का एक मात्र कारण है-दोषयुक्त आहार। रासायनिक-खादों का उत्पादन वजन और आकार में तो बड़ा होता है, पर उसमें पौष्टिकता के स्थान पर स्वास्थ्य को क्षीण करने वाली विकृतियाँ भरी होती हैं। इस तथ्य पर एड्रीनल की ‘मेन आव दि फील्डस’ में तथ्य और तर्क प्रस्तुत करते हुए बताया गया है।

कुछ समय पूर्व फसलों में कीड़े लगने की घटनाएँ बहुत कम देखने में मिलती थीं। दीमक, चूहे, टिड्डी तो फसलों को बिगाड़ते थे, पर जिस तरह, तरह-तरह के कीड़े लगने से अब फसलें बर्बाद होने लगी हैं, वैसा पहले नहीं होता था। यह नया उपद्रव भावी-संकट की सूचना देने वाली चेतावनी समझी जानी चाहिए। कम्पोस्ट खादों की अपेक्षा-रासायनिक खादों की भरमार धरती की जीवनी-शक्ति घटाती है। उसमें फसल को निरोग उत्पन्न करने व रोगों के आक्रमण से जूझ सकने की क्षमता घटती है। उस सामर्थ्य से रहित पौधे सहज ही कीड़ों के आक्रमण से ग्रसित हो जाते हैं। ऊपर से कीड़े मारने के जो विष-घोल छिड़कते जाते हैं, उससे फसल की रही-सही पौष्टिकता भी नष्ट हो जाती है। देखने में अनाज अथवा शाक-फल रंग-रूप में सामान्य लगते हैं, पर उनकी जीवनी शक्ति को नाप-तोला जाय तो प्रतीत होगा कि आहार की उपयुक्तता एवं पौष्टिकता बुरी तरह गंवा दी गई है। ऐसा खाद्य खाकर प्राणियों की निरोगता कैसे अक्षुण्ण रह सकती है। प्राकृतिक-खाद के अभाव में केंचुऐ जैसे धरती को पोला करने और उसकी सजीवता बढ़ाने वाले कीड़े भी नष्ट होते चले जा रहे है। उसका भी बुरा प्रभाव उर्वरता घटने के रूप में सामने आ रहा है। मामूली जानवर इस अन्तर को समझते हैं। यदि कम्पोस्ट खाद और रासायनिक खाद से उगाए हुए चारे पशुओं के सामने रखे जाएँ तो वे अपनी सहज बुद्धि से प्राकृतिक-खाद वाले चारे को ही रुचि पूर्वक स्वीकार करेंगे।

इंग्लैण्ड में श्रीमती ऐलिस हेबनहम ने प्राकृतिक ढंग से खेती करने का और रासायनिक खाद के खतरों को समझने का एक व्यवस्थित आन्दोलन ही चलाया और उनने अपने प्रतिपादन के पक्ष में अनेक तर्क और तथ्य प्रस्तुत किये। अब इस प्रयोजन के लिए ‘सौइल ऐसोसिएशन’ नामक संस्था का ही गठन हो गया है, जिसकी शाखाएँ संसार के प्रायः सभी प्रमुख देशों में हैं। संस्था ने अपने घोषणा-पत्र में धरती के शोषण को एटम-बम से भी बड़ा खतरा बताया है और कहा है-इतिहासकार हमारी पीढ़ी को मृत्यु-कार्यों में इतनी कार्य-व्यस्त लिखेंगे, जिसका जीवन-तत्वों को सुरक्षित रखने की ओर ध्यान ही न था। देश पर आक्रमण होने पर सभी देशवासी मिलकर उसका मुकाबला करते हैं। धरती पर होने वाले आक्रमण को बचाने के लिए उन सभी धरती वासियों को एक होना चाहिए, जिन्हें अपनी और अपनी सन्तानों की जिन्दगी से लगाव और प्यार है।

कान्वेस्ट आव नेचर का ‘प्रकृति पर विजय’ का नारा थोथा है। प्रकृति को सन्तुलित रहने दें-तो ही हमारा अस्तित्व बचा रह सकता है। प्रकृति के प्रति हमें विनम्र होना चाहिए, उससे लाभ उठाये सो ठीक। पर वह लाभ एक अण्डा हर रोज देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर सारे अण्डे एक बार में निकालने वाले की कहाने जैसी मूर्खता नहीं करनी चाहिए। प्रकृति के सन्तुलन में इन तुच्छ जीवाणुओं का भी योगदान है, जो हमारी धरती को जीवित रखे हुए हैं।

‘सवाइबल आव दी फिटैस्ट’ जैसे उद्धत सिद्धान्तों का अनुसरण करके हम पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने चलेंगे तो उसका जीवन भी नष्ट करेंगे और हम स्वयं भी नष्ट होंगे।

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