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Magazine - Year 1973 - Version 2

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दिव्यलोकों से बरसने वाला शक्ति-प्रवाह

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First 9 11 Last
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के उभय पक्षीय संतुलन केन्द्र बिन्दु हैं। अन्तरिक्ष का असीम विकिरण पृथ्वी के इर्द-गिर्द मण्डराता रहता है। उसका एक सीमित अंश ही भूतल को स्पर्श कर पाता है। धरती के बहुत ऊपर एक जटिल आवरण कवच चढ़ा हुआ है। प्राचीन काल में योद्धा लोग जिरह बख्तर पहन कर युद्ध में लड़ने जाते थे और शत्रु के प्रहारों से आत्मरक्षा करते थे उसी प्रकार का कवच सुदूर अन्तरिक्ष में पृथ्वी ने भी धारण कर रखा है। अंतर्ग्रहीय विकिरण उसी से टकरा कर इधर उधर छितरा जाते हैं, यदि यह आवरण न होता तो अन्तरिक्ष से बरसते रहने वाले अनियन्त्रित शक्ति प्रवाह उसे कब का नष्ट भ्रष्ट कर देते।

सौर मण्डल के अन्य ग्रह उपग्रहों में यही एक विशेष कमी-कमजोरी है कि उनके पृथ्वी जैसा आवरण कवच नहीं। अतएव उल्का उनसे टकराती रहती है। विकिरण उन्हें प्रभावित करते रहते हैं। इन्हीं आक्रमणों ने उन्हें निष्प्राण बना रखा है यदि उन्हें भी धरती जैसा कवच मिला होता तो वे भी अपनी पृथ्वी की तरह ही सुन्दर, सुरभित और सजीव बने हुए होते।

अंतर्ग्रहीय ऊर्जाएं पृथ्वी पर उत्तरी ध्रुव क्षेत्र में होकर छनी हुई उपयुक्त एवं आवश्यक मात्रा में ही प्रवेश करती है। तदुपरान्त पृथ्वी को अभीष्ट परिपोषण देने के उपरान्त दक्षिणी ध्रुव में होती हुई बहिर्गमन हो जाती है। एक सिरे से प्रवेश करके चूहा जिस प्रकार बिल के दूसरे सिरे से निकलता रहता है। उत्तरी ध्रुव क्षेत्र में एक ऐसी चुम्बकीय छलनी है जो केवल उसी प्रवाह को भीतर प्रवेश करने देती है जो उपयोगी है। छलनी में बारीक आटा ही छनता है। और भूसी ऊपर रह जाती है। ठीक इसी प्रकार ध्रुवीय छलनी में भी पृथ्वी के लिए उपयोगी विकिरण अन्दर आते हैं और शेष को पीछे धकेल दिया जाता है।

उत्तरी ध्रुव पर यह छानने की क्रिया टकराव के रूप में देखी जा सकती है। इस टकराव से एक विलक्षण प्रकार के ऊर्जा कम्पन उत्पन्न होते हैं जिनकी प्रत्यक्ष चमक उस क्षेत्र में प्रायः देखने को मिलती रहती है उसे ध्रुव प्रभा या मेरु प्रकाश कहते हैं। इसका दृश्यमान प्रत्यक्ष रूप जितना अद्भुत है उससे अधिक रहस्यमय उसका अदृश्य रूप है। इस मेरु प्रभा का प्रभाव स्थानीय ही नहीं होता वरन् समस्त भूतल को वह प्रभावित करता है। भू गर्भ में-समुद्र तल में-वायु मण्डल में-ईश्वर के महासागर में जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती रहती हैं-चढ़ाव उतार आते हैं उनका बहुत कुछ सम्बन्ध इस ध्रुव प्रभा एवं मेरु प्रकाश से होता है। इतना ही नहीं उसकी हल-चलें प्राणधारियों की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती है। मनुष्यों पर तो उसका प्रभाव विशिष्ट रूप से होता है। सुविज्ञ लोग उस प्रभाव प्रवाह में से अपने लिए उपयोगी तत्त्व खींच लेने-धारण कर लेने में भी सफल होते हैं और उससे असाधारण लाभ प्राप्त करते हैं।

ध्रुव प्रकाश सेटेलाइट के समान होता है। यह उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में ज्यादा तेज होता है। उत्तरी ध्रुव पर कभी-कभी गर्मी भी हो जाती है। दक्षिणी पर नहीं। उत्तरी ध्रुव पर एस्किमो रहते हैं दक्षिणी ध्रुव में पेन्गुइन पक्षी के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता यह पक्षी आगन्तुकों से बहुत प्रेममय व्यवहार करते हैं। उत्तरी ध्रुव पर धरती भीतर को धँसी है 14000 फुट गहरा समुद्र बन गया है जबकि दक्षिणी ध्रुव 16000 फीट उभरा हुआ है। उत्तर में बर्फ बहती है दक्षिण में स्थिर रहता है दक्षिण ध्रुव में रात धीरे-धीरे आती है सूर्य दक्षिणी क्षितिज के लिए बहुत थोड़ी देर के लिए जाता है। सूर्यास्त का दृश्य घण्टों रहता है अस्त हो जाने पर महीनों अन्धकार छाया रहता है केवल मात्र उत्तर की ओर कुछ प्रकाश दिखाई देता है। एक बार ध्रुव यात्री बायर्ट ने यहाँ सूर्य को बिलकुल हरे रंग का देखा ऐसा दृश्य इससे पहले किसी ने नहीं देखा था किरणों की वक्रता के कारण ऐसे विलक्षण दृश्य वहाँ प्रायः देखने को मिलते रहते हैं।

ध्रुवों पर सूर्य की किरणों की विचित्रता के फल-स्वरूप अनेक विचित्रताएँ दृष्टिगोचर होती है। दूर की वस्तुएँ हवा में लटकती हुई जान पड़ती है। टीले जितने होते हैं उससे कई गुना बड़े लगते हैं। कई बार सूर्य एक के स्थान पर कई-कई दिखाई देते हैं और इसी प्रकार चन्द्रमा भी बर्फ में , हवा में भी कई बार सूर्य दिखाई दे जाते हैं। यह सभी कृत्रिम सूर्य वास्तविक जैसे ही लगते हैं।

पृथ्वी का चुम्बकत्व जो कि पृथ्वी के कण-कण को, पृथ्वी में पाये जाने वाले जीवन तत्त्व को प्रभावित करता है वस्तुतः ब्रह्माण्ड से आने वाले एक प्रकार के शक्ति या तत्त्व प्रवाह के कारण है। यह प्रवाह उत्तर की ओर से आता है इसलिए उत्तरी ध्रुव पर भी गुण धर्म से अलग-अलग है सामान्यतः दोनों चुम्बकीय ध्रुवों की विशेषताएँ एक समान किन्तु एक दूसरे से भिन्न दिशा में होनी चाहिए किन्तु कई बातों में समानता होने पर भी दोनों की विशेषताओं में बड़ा अन्तर है।

उत्तरी ध्रुव एक गढ़ा है दक्षिणी ध्रुव गुमड़ा। उत्तरी ध्रुव की बर्फ दक्षिणी ध्रुव से अधिक गर्म होती है जल्दी गलने और जल्दी ही जमने वाली भी होती है। दक्षिणी ध्रुव उजाड़ क्षेत्र है यहाँ कुछ पक्षी जलचर के अतिरिक्त एक पंखहीन मच्छर भी पाया जाता है वह क्या खाकर जीता है और कैसे इतनी भयंकर शीत में जीवन धारण किये रहता है वैज्ञानिक इस प्रश्न का आज तक समाधान नहीं कर सकें।

उत्तरी ध्रुव में जीवन का बाहुल्य है पौधों तथा जन्तुओं की संख्या करोड़ों तक पहुँचती है। यहाँ दिन और रात समान नहीं होते 6-6 माह के भी नहीं होते-कई बार रात 80 दिन के बराबर होती है यह सबसे लम्बी राम होती है। क्षितिज के बीच सूर्य वर्ष में 16 दिन रहता है। यहाँ चन्द्रमा इतनी तेजी से चमकता है। कि उससे प्रकाश में दिन में सूर्य की रोशनी के समान ही काम किया जा सकता है।

कुछ मेरु प्रकाश विस्तृत और आकृति हीन होते हैं कुछ सजीव और हलचल करते हुए। कभी वे किरणों की लम्बाई के रूप में जाने पड़ते हैं कभी प्रभा और ज्वाला के रूप में कभी वह दृश्य बदलता हुआ कभी चाप, पड़ी और कोरोना के रूप में होता है तो कभी प्रकाश गुच्छे सर्च लाइट के समान। यह रात भर तरह-तरह के दृश्य बदलते हैं हर दृश्य और परिवर्तन सूर्य की अपनी आन्तरिक हलचल का प्रतीक होता है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अंतर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष अनुसन्धान के दौरान आया। उस समय यह प्रकाश सर्वाधिक अस्तित्व में आया और उसके विलक्षण आकार प्रकार देखने में आये स्मरण रहे भू-भौतिक वर्ष सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के दौरान मनाया गया इस अवधि में सूर्य की आन्तरिक हलचल बहुत बढ़ जाती है यह प्रकाश मुख्यतः चुम्बकीय तूफान होता है जो पृथ्वी की सारी यांत्रिक क्रिया में क्रान्ति उत्पन्न करके रख देता है।

अनुसन्धान के दौरान यह पाया गया है कि सूर्य में जब तेज दमक दिखती है उसके एक दो दिन बाद ही मेरु प्रकाश भी तीव्र हो उठता है। यह बढ़ी हुई सक्रियता सूर्य-विकिरण तथा कणों की बौछार का ही प्रतीक होती है। शान्त अवस्था में भी यह सम्बन्ध बना रहता है पर प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होता। यह कण अति सूक्ष्म इलेक्ट्रान (ऋण आवेश कण) प्रोट्रान (धन आवेश कण) होते हैं जो 200 से लेकर 10000 मील तक प्रति घण्टे की गति से दौड़ते हुए पृथ्वी तक आते हैं जबकि प्रकाश पृथ्वी तक पहुँचने में कुल 8 ही मिनट लेता है इसका अर्थ यह हुआ कि पृथ्वी सूर्य की विद्युतीय शक्ति से सम्बद्ध है पृथ्वी स्वयं-एक चुम्बक की तरह है। चुम्बकत्व पार्थिव कणों में विद्युत प्रवाह के कारण पैदा होता है इससे स्पष्ट है कि पृथ्वी की चुम्बकीय क्षमता सूर्य के ही कारण है। यह कण पृथ्वी से हजारों मील ऊपर ही पृथ्वी के क्षेत्र द्वारा पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों की ओर मोड़ और प्रवाहित कर दिये जाते हैं-

मार्च तथा सितम्बर में (चैत्र तथा क्वार) में जबकि पृथ्वी का अक्ष सूर्य के साथ उचित कोण पर होता है मेरु प्रकाश अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पड़ता है जबकि अन्य समय गलत दिशा के कारण प्रकाश लौटकर ब्रह्माण्ड में चला जाता है। यह वह अवधि होती है जब पृथ्वी में फूल फलों की वृद्धि और ऋतु परिवर्तन होता है। नवरात्रियों का सम्बन्ध इसी से हो सकता है उस समय सूर्य की यह विद्युत धाराएँ स्पष्ट और अधिक मात्रा में पृथ्वी पर पड़ती है। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो चुका है। कि उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों में विद्युत धारा की चादरें जैसी ढकी रहती है।

एक ओर आश्चर्यजनक घटना वायुमण्डल की है वह सीटी जैसी ध्वनियों की। अनुमान किया जा रहा है कि यह आकाश में तड़ित विद्युत के कारण विद्युत चुम्बकीय तरंगें के कारण होता है। इससे वायुमण्डल में 7000 मील की ऊँचाई पर भी एक विद्युतमय गैस की उपस्थिति की सम्भावना व्यक्त की जा रही है ज्ञात नहीं यह सूर्य की शक्ति है या पृथ्वी की।

ध्रुव प्रभा एवं मेरु प्रकाश का धरती पर होने वाली विभिन्न हलचलों एवं परिवर्तनों से क्या सम्बन्ध है उसका अन्वेषण करने में विज्ञान वेत्ता संलग्न है। वे क्रमशः इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहें है कि मनुष्य के निजी पुरुषार्थ का महत्त्व एक बहुत छोटी सीमा तक ही सीमित है। बहुत करके तो अन्तरिक्ष और भूलोक के बीच चल रहे आदान-प्रदान पर ही निर्भर रहता है। धातुएँ-वनस्पतियाँ ऋतु परिवर्तन, जलवायु जैसे महत्त्वपूर्ण तत्त्वों पर इन्हीं अदृश्य अभिवर्षण का प्रभाव रहता है। इतना ही नहीं वे प्राणियों की-शारीरिक एवं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करती है। उस दृष्टि से स्वतन्त्र समझा जाने वाला प्राणि जगत् प्रकृति की सूक्ष्म हलचलों की कठपुतली मात्र बनकर एक प्रकार से निर्यात नियन्त्रित ही बन जाता है।

एक बारगी यह स्थिति बड़ी दयनीय प्रतीत होती है। कि प्राणियों को नियति की कठपुतली मात्र बनकर रहना पड़े अंतर्ग्रहीय प्रवाह उसके सामने जो भी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे उसके सामने नतमस्तक होना पड़े

पर नृपत्व विज्ञान पर अधिक गहराई से विचार करने पर स्पष्ट होती है कि ध्रुवीय छलनी की तरह ही मानवी चेतना में भी एक अद्भुत विशेषता यह है कि वह प्रकृतिगत प्रवाहों में से जिसे चाहे स्वीकार एवं ग्रहण करे और जिसे चाहे अपने मनोबल की टक्कर मारकर इधर-उधर छितरा दें ऋतु प्रभाव, क्षुधा पिपासा एवं रोग-शोक के चढ़ाव उतारो तक से वह अपने संकल्प बल से अभीष्ट परिवर्तन कर सकता है। ऐसी दशा में वह नियति की कठपुतली न रहकर स्वतन्त्र चेतना और स्व भाग्य निर्माता का अपना गौरव अक्षुण्ण बनाये रह सकता है।

अध्यात्म दर्शन एवं साधना विज्ञान का प्रयोजन यही है कि मनुष्य की उस विशेषता को बलिष्ठ बनाया जाय तो प्रकृति गत प्रतिकूलताओं में उपयोगी एवं अनुकूल तत्त्वों को खींचकर अपनी आन्तरिक क्षमता बढ़ा सके और उसके आधार पर जीवन के हर क्षेत्र में सुसम्पन्न रह सके।

मनुष्य अपने आप में एक ब्रह्माण्ड है। मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरंध्र के अवस्थित सहस्रार चक्र को सर्प माना गया है। मनः संस्थान और काय कलेवर धरती है। मस्तिष्क को उत्तरी ध्रुव और मूलाधार स्थित कुण्डलिनी गह्वर को दक्षिणी ध्रुव माना जाता है। इन दोनों के बीच होते रहने वाले दिव्य आदान-प्रदान का माध्यम मेरु दण्ड है। इसमें चलने वाले इडा पिंगला और सुषुम्ना प्रवाह दूसरे शब्दों में पिंडगत ध्रुवा प्रभा एवं मेरुप्रकाश का प्रतिनिधित्व करते हैं।

बिन्दु योग की प्रकाश साधना का उद्देश्य आत्म क्षेत्र में अदृश्य लोकों से अवतरित होते रहने वाले शक्ति प्रवाह की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित एवं धारण करना है। यह दिव्य अवतरण ऊर्जा के अतिरिक्त ध्वनि रूप में भी होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में ऊर्जा को ध्यानयोग द्वारा और ध्वनि को नादयोग द्वारा आकर्षित नियन्त्रित किया जाता है। ध्रुवीय मेरुप्रभा का भौतिक विज्ञानों ने केवल स्वरूप और प्रभाव ही जाना है वे अभी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके उन प्रचण्ड शक्ति धाराओं के प्रवाह भी आवश्यक हेर फेर कैसे किया जा सकता हैं, पर योग विज्ञानी जानते हैं, कि मानवी काया से धरती पर दिव्य लोकों से , दिव्य शक्तियों से जो प्राप्त हो सकता है और उस साधना उपचार के द्वारा किस प्रकार उपलब्ध किया जाय और उससे किस प्रकार देवोपम विभूतियों से लाभान्वित हुआ जाय।

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