Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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ध्यानयोग की सफलता शान्त मनःस्थिति पर निर्भर है।
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शारीरिक और मानसिक उत्तेजनाओं आत्मिक-साधनाओं में अत्यन्त बाधक होती है। उनके कारण महत्त्वपूर्ण साधना विधानों के लिए किया गया भारी प्रयास पुरुषार्थ भी निरर्थक चला जाता है। इसलिए तत्त्वदर्शी आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए प्रयत्नशील पथिकों को सदा से यही शिक्षा देते रहे हैं कि शरीर को तनाव रहित और मस्तिष्क को उत्तेजना रहित रखा जाय। ताकि उस पर दिव्य चेतना का अवतरण निर्बाध गति से होता रह सकें।
क्रिया-कलापों की भगदड़ से माँस पेशियों में-नाड़ी संस्थान में तनाव रहता है। बाहर से स्थिर होते हुए भी यदि शरीर के भीतर आवेश छाया रहा, तो उस उफान के कारण मन का स्थिर एवं एकाग्र रह सकना भी सम्भव न होगा। हठयोग में शरीर को जटिल स्थिति में डाले रहने की आवश्यकता हो सकती है पर ध्यानयोग की दृष्टि से वह सर्वथा अवांछनीय है अर्धपद्मासन , शीर्षासन, एक पैर से खड़ा होना, जल में बैठना, धूप में तपना, शीत में काँपना, ठण्ड के दिनों में ठण्डे जल से नहाना, गर्मियों में धूनी तपना जैसे शरीर पर दबाव डालने वाले साधन क्रम हठयोग एवं तान्त्रिक साधनाओं के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, पर यदि कोई चाहे कि इस स्थिति में प्रत्याहार , धारणा, ध्यान समाधि जैसे लययोग परक, अभ्यास कर सके तो उसे असफलता ही मिलेगी। इस सन्दर्भ में बहुधा खेचरी मुद्रा, नासिका पर दृष्टि जमाना, उड्डयन बन्ध जालन्धर बन्ध, यहाँ तक कि मन्त्रोच्चारण के साथ किया गया माला जप भी व्यतिरेक उत्पन्न करता है। इस विधि विधानों के साथ ध्यान नहीं हो सकता, क्योंकि चित्त वृत्तियाँ इन शरीरगत हलचलों में लगी रहती हैं- एकाग्रता हो तो कैसे हो।
आरम्भिक साधना प्रयास में केवल आदत डालने नियमितता अपनाने एवं रुचि उत्पन्न करने जितना ही लक्ष्य रहता है इसलिए उपासना में मनोरंजक-चित्त को एक नियत विधि व्यवस्था में लगाये रहने वाली विधियाँ उपयुक्त रहती है। शंकर जी पर बेलपत्र चढ़ाना परि-क्रम करना, धूप, दीप आदि से देव प्रतिमा का पंचोपचार पूजन’ स्तवन, पाठ, जप आदि शारीरिक हलचलों के साथ की जाने वाली साधनायें इसी स्तर की होती हैं, उनमें रुचि उत्पन्न करने, स्वभाव का रुझान ढालने का लक्ष्य जुड़ा रहता है। आरम्भ में इस लाभ का भी महत्त्व करना होता है। तो शरीरगत हलचलें बन्द करके निश्चेष्ट होने की आवश्यकता पड़ती है। माँस पेशियों और नाड़ी संस्थान को जितना अधिक तनाव रहित शान्त रखा जा सके उतना ही लाभ मिलता है।
मन मस्तिष्क के बारे में भी यही बात है। उसमें हलचलें चल रही होगी, तरह-तरह के विचार उठ रहे होगे तो जल में उठती हुई हिलोरों की तरह अस्थिरता ही बनी रहेगी। स्थिर जल राशि में चन्द्र, सूर्य तारे आदि का प्रतिबिम्ब ठीक प्रकार दृष्टिगोचर होता है पर हिलते हुए पानी में कोई छवि नहीं देखी जा सकती। विचारों की हड़कम्प यदि मस्तिष्क में उठती रहें-तरह तरह की कल्पनायें घुड़दौड़ मचाती रहें तो फिर ब्रह्म सम्बन्ध की प्रगाढ़ता में निश्चित रूप से अड़चन पड़ेगी। मस्तिष्क जितना अधिक रहित-खाली होगा उतनी ही तन्मयता उत्पन्न होगी और आत्मा परमात्मा का मिलन संयोग अधिक प्रगाढ़ एवं प्रभावशाली बनता चला जाएगा
आकाश में जब बिजली कड़क रही हो या आँधी-तूफान का मौसम चल रहा हो तो हमारे रेडियो में आवाज साफ नहीं आती कंकड़ जैसे व्यवधान उठते रहते हैं और प्रोग्राम ठीक से सुनाई नहीं पड़ते। अन्तरिक्ष से भौतिक शक्तियों एवं आत्मिक चेतनाओं का सुदूर क्षेत्र से मनुष्य पर अवतरण होता रहता है। ब्राह्मी चेतना एक प्रकार का ब्रोडकास्ट केन्द्र है जहाँ से मात्र संकेत, निर्देश, सूचनाएँ ही नहीं वरन् विविध प्रकार की सामर्थ्य भी प्रेरित की जाती रहती है। सूक्ष्म जगत में यह क्रम निरन्तर चलता रहता है जहाँ सही रेडियो यन्त्र लगा है- जहाँ व्यक्ति ने अपने आपको सही अन्तः स्थिति में बना लिया है वहाँ यह सुविधा रहेगी कि ब्रह्म चेतना की विविध सूचनाओं को ग्रहण करके अपनी ज्ञान चेतना को बढ़ा सकें। इतना ही नहीं प्रेरित दिव्य शक्तियों अपने को असाधारण आत्म बल सम्पन्न बना सकें।
परन्तु यह सम्भव तभी है जब मनुष्य अपने मस्तिष्क को तनाव रहित-शान्त स्थिति में रखे। आँधी-तूफान कड़क और गड़गड़ाहट की उथल-पुथल रेडियो को ठीक से काम नहीं करने देती। मनुष्य का शरीर और मन उत्तेजित-तनाव की स्थिति में रहें तो फिर यह कठिन ही होगा कि वह ब्रह्म चेतना के साथ अपना सम्बन्ध ठीक से जोड़ सके और उस सम्मिलन की उपलब्धियों का लाभ उठा सके।
ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निश्चेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।
मन मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना अपने पैर का अँगूठा अपने मुख से चूसना, इस प्रकार का प्रलय चित्र बाज़ार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु , हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता। अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुम्बकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जितना गहरा होगा उतना ही परस्पर लय होने की-सम्भावना बढ़ेगी इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव के ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय समर्पण पर एकात्म भाव पर निर्भर रहता है।
जटिल संरचना वाले कोमल तारों एवं पुर्जा से बने यन्त्रों का उपयोग बहुत साज सँभाल के साथ किया जाता है। उन्हें झटके धक्के लगते रहे तो कुछ ही समय में गड़-बड़ी उत्पन्न हो जाती है। ट्रांजिस्टर, रेडियो, टेप रिकार्डर घड़ी आदि संवेदनशील यन्त्र भारी उठक-पटक बर्दाश्त नहीं कर सकते उन्हें ठीक रखना हो तो सावधानी के साथ उठाने, रखने बरतने का क्रम चलाना चाहिए। यही बात शरीर और मस्तिष्क के बारे में है, यदि उन्हें स्वस्थ स्थिति में रखना हो तो तनावों और आवेशों से उनकी समस्वरता को नष्ट होने से बचाना ही चाहिए।
शरीर को मृत समान निर्जीव करने- काया से प्राण को अलग मानने- अर्धनिद्रित स्थिति में माँस पेशियों को ढीला करके आराम कुर्सी जैसे किसी सुविधा-साधन के सहारे पड़े रहने को शिथिलीकरण मुद्रा कहते हैं। ध्यान-योग के लिए सही यही सर्वोत्तम आसन है। शरीर को इस प्रकार ढीला करने के अतिरिक्त मना को भी खाली करने की आवश्यकता पड़ता है। ऊपर नील आकाश-नीचे अनन्त नील जल-अन्य कोई पदार्थ, कोई जीव, कोई परिस्थिति कहीं नहीं, ऐसी भावना के साथ यदि अपने को निर्मल निद्रित मन वाले बालक की स्थिति में एकाकी होने की मान्यता मन में जमाई जाय तो मन सहज ही ढीला हो जाता है। इन दो प्रारम्भिक प्रयासों से सफलता मिल सके तो ही समझना चाहिए कि ध्यानयोग में आगे बढ़ने का पथ प्रशस्त हो गया।
संसारव्यापी शून्य नीलिमा की तरह ध्यानयोग में अपने हृदयाकाश को भी रिक्त करना पड़ता है। कामनायें-वासनायें-ऐषणाएं-आकांक्षाएँ , प्रवृत्तियाँ-भावावेश परक उद्विग्नतायें मन में जितनी उभर उफन रही होगी उतना ही अंतःक्षेत्र अशान्त रहेगा और एकाग्रता का-तन्मयता का-लय स्थिति का आधार अपनाकर हो सकने वाला ध्यान प्रयोजन पूरा न हो सकेगा।
मस्तिष्क पर क्रोध, शोक, भय, हानि, असफलता, आतंक आदि के कारण वश आवेश आते हैं पर वे स्थायी नहीं होते कारण समाप्त होने अथवा बात पुरानी होने पर शिथिल एवं विस्मृत हो जाते हैं। उनका प्रभाव चला जाता है। पर कामनाओं की उत्तेजना ऐसी है जो निरन्तर बनी रहती है और दर्द की तरह मनः संस्थान में आवेश की स्थिति बनाये रहती है। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, आशंका, जैसे निषेधात्मक और लोभ, मोह, अहंता, वैभव, सत्ता, पद, यश, भोग, प्रदर्शनी जैसी भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की विधेयात्मक कामनायें यदि उग्र हों तो दिन-रात सोते जागते कभी चैन नहीं मिल सकता और अपना अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न उत्तेजित बना रहता है। यह स्थिति ध्यान साधना के लिये-ब्रह्म सम्बन्ध के लिये सर्वथा अनुपयुक्त है।
शरीर , मन और भाव संस्थान को जितना अधिक शिथिल, शान्त, रिक्त, किया जा सके उतनी ही आत्म साधना के उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण होता है कहना न होगा कि ऐसी स्थिति का अभ्यास कर लेने का प्रथम चरण पूरा कर लिया उनके ध्यान की सफलता एक प्रकार से सुनिश्चित ही हो जाती है।