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Magazine - Year 1973 - Version 2

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कुण्डलिनी शक्ति जागरण का तात्त्विक आधार

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आत्मिक विकास का मतलब है अपनी अहंता का क्षेत्र विकसित करना। आत्मा का परमात्मा से जुड़ना ही योग है। योग का फल सिद्धियों विभूतियों से लेकर स्वर्ग और मुक्ति की दिव्य सम्वेदना तक विकसित होता चला जाता है। योगी वही हो सकता है जो अहंता के जटिल आवरण को तोड़-फोड़ कर उसे विराट् के साथ जोड़ सकने में सफल हो सके।

ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। जिसने अनुनय विनय करके अथवा आग्रह प्रलोभन के आधार पर कुछ पाया जा सके। ब्रह्म चेतना की सत्ता समुद्र की तरह है उसमें वही आत्मसात् हो सकता है जो आत्म समर्पण के लिए साहस जुटाये। आत्म समर्पण का अर्थ है-अपनी अहंता, कृपणता, संकीर्णता का अन्त। इस दिशा में जो जितनी प्रगति कर सके उसे उतना ही आत्मोत्कर्ष का लाभ मिलता है। स्वार्थ को परमार्थ में विकसित करना-व्यष्टि का समष्टि पर उत्सर्ग करना यही है जीवन साधना का तात्त्विक आधार। इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए विविध-विधि योग साधनाएँ की जाती है।

कुण्डलिनी योग को भौतिक और आत्मिक प्रखरता प्राप्त करने की समर्थ साधना माना जाता है। पृथ्वी मूलाधार स्थित शरीरगत शक्ति-सूर्य ब्रह्म रंध्र स्थित सहस्र दल कमल-इन दोनों के परस्पर सुयोग संयोग का नाम ही कुण्डलिनी जागरण है। साधनात्मक कर्म-काण्ड के आधार पर अभ्यासी लोग इन दोनों को जोड़ने के लिए प्राणायाम, प्रत्याहार , धारणा, ध्यान समाधि का षट्चक्र वेधन का हठयोग का मन्त्र साधना का सहारा लेते हैं। यदि यह क्रिया-कलाप मात्र हलचल एवं क्रिया कृत्य ही बने रहे तो काम नहीं चलेगा। भावनात्मक स्तर पर भी अनुकूलता एवं अनुरूपता विनिर्मित करनी पड़ेगी। पृथ्वी अर्थात् भौतिक सम्पदा-अहंता-सूर्य अर्थात् आत्मिक सत्ता-ब्रह्म चेतना इन दोनों को जो जितना जोड़ सकता है उसे कुण्डलिनी जागरण के साथ जुड़ी हुई विभूतियाँ मिलती है। स्वार्थ को परमार्थ में जोड़ने का शारीरिक वासनाओं को आत्मिक उल्लासों में घुला देने का नाम ही आत्म समर्पण है। इसी को साधना क्षेत्र में पृथ्वी और सूर्य का संयोग कहते हैं। कुण्डलिनी साधना इसी केन्द्र बिन्दु पर पहुँचने की चेष्टा को कह सकते हैं।

अशक्तता और संकीर्णता एक ही तथ्य के दो नाम है। कुण्डलिनी साधना द्वारा भीतर भरे शक्ति स्रोत को उभारा जाता है और निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अनन्त सामर्थ्य को अपने भीतर धारण किया जाता है। यह धारणा ही वह पात्रता है जिसके आधार पर दिव्य शक्तियों का साधक में अवतरण होता है। जब अपने अणु अस्तित्व को विराट् के विभु में समर्पित कर दिया जाय। यह समर्पण जितना यथार्थ और जितना प्रगाढ़ होता है। उसी अनु-पात से सफलता का पथ प्रशस्त होता चला जाता है।

कुण्डलिनी शक्ति एक होते हुए भी व्यक्ति तथा संसार के चेतन और जड़ जगत के अनेक प्रयोजन पूरे करती है। बिजली घर में विनिर्मित होने वाले विद्युत भण्डार का संग्रह एक ही प्रकार का है पर उसके द्वारा बत्तियाँ, पंखे, हीटर, कूलर, रेडियो आदि के अनेक प्रयोजन पूरे होते हैं और अनेक घरेलू प्रयोजन पूरे होते हैं और अनेक तरह के कल कारखाने चलते तथा अगणित प्रकार का उत्पादन करते हैं। इन क्रिया-कलापों के नाम रूप अनेक है। उनके बाह्य स्वरूपों की भिन्नता इतने अधिक प्रकार और स्तर की है कि किसी का किसी से कोई सीधा सम्बन्ध मालूम नहीं पड़ता। पहले चलने और रेडियो बजने के वाह्य स्वरूप में भारी अन्तर मालूम पड़ता है। एक मशीन से सिंचाई के लिए पानी निकलता है और दूसरी लोहा गलाने की भट्टी जलाती है दोनों में प्रत्यक्षतः कितना भारी अन्तर दीखता है पर बारीकी से देखने पर एक ही विद्युत भण्डार के यह विविध विधि क्रिया कलाप सिद्ध होगे ठीक इसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति एक विश्वव्यापी जीवन प्राण और समर्थ क्षमता के रूप में एक ही प्रकार की है पर उसके कार्य जड़ जगत में अलग प्रकार के और चेतन जगत में अलग प्रकार के दिखाई पड़ते हैं। चेतन जगत में इसकी क्रियाशीलता प्राणियों के जन्म, अभिवर्धन वृद्धावस्था, मृत्यु तथा अंग प्रत्यंगों के दृश्य एवं अदृश्य गतिविधियों के रूप में देखी जा सकती है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया, स्वभाव, संस्कार, आदि के रूप में उसी महाशक्ति का प्रकाश फैला हुआ देखा जा सकता है। पंचतत्वों के विभिन्न सम्मिश्रणों चेतनाओं के अनेक विभाजनों का एकत्रीकरण तथा कर्मसंस्कारों के योग से जो अगणित योनियों में जन्म लेने वाले असंख्य आकृति प्रकृति के जीव उत्पन्न होते हैं। उनमें यह कुण्डलिनी शक्ति की चेतन जगत में चल रही गति विधियाँ ही कारण है जड़ जगत में पृथ्वी और आकाश में जो विदित और अविदित अनेक हलचलें उत्पन्न होती रहती है और परिवर्तनों से भरी चंचलता निरन्तर गतिमान रहती है; उसका कारण भी यही दिव्य सत्ता है। अणु परमाणुओं की द्रुत गामी हलचलों से लेकर ग्रह नक्षत्रों का चल वल, समुद्र के ज्वार भाटे, भूकम्प, ऋतु परिवर्तन, भू-गर्भ के अन्तराल में निरन्तर चल रहे हेर फेर, ईथर तत्त्व की सक्रियता आदि जड़ जगत में चल रही समस्त उथल-पुथल के पीछे यह कुण्डलिनी शक्ति ही काम करती है। उनका क्रिया-कलाप एक क्षण के लिए भी बन्द हो जाय तो महाप्रलय ही सामने होगी। तब यहाँ सब कुछ निर्जीव, नीरस, निष्क्रिय नितान्त नीरव और अन्धकार ही यहाँ शेष रह जाएगा सम्भवतः तब सारी आकृतियाँ बिगड़ कर पुनः निहारिकाएं उत्पन्न करने वाली धूमिलता में ही बिखर जायें और देखने अनुभव करने जैसा कुछ शेष ही न रहा जाय।

लकड़ी का टुकड़ा यदि अग्नि जैसा तेजस्वी बनना चाहता हो तो उसे अग्नि रूप बनने के लिए वर्तमान अस्तित्व गँवाना ही पड़ेगा बीज अपना अस्तित्व भी न खोना चाहे और विशाल वृक्ष बनने का लाभ भी लेना चाहे तो यह दोनों बातें न हो सकेंगी। संकीर्णता और आत्मिक प्रगति का जोड़ा मिल ही नहीं सकता। जो जितना स्वार्थी है उसे आत्मिक प्रगति के पथ पर चलते हुए उतनी ही कठिनाई अनुभव होगी। आत्मिक सिद्धियाँ हैं, तो पर उनका लाभ कृपणता और स्वार्थपरता के रहते उठाया नहीं जा सकता। जीवन साधना का तात्पर्य ही अहंता का विसर्जन है। पारमार्थिक दृष्टिकोण अपनाये बिना न जीवन लक्ष्य पूरा होता है और न कुण्डलिनी जागरण जैसी योग साधनाओं में सफलता मिलती है।

आध्यात्मिक चेतना में वृद्धि करने का मतलब है व्यष्टि से माइक्रोकाज्म को समष्टि मैकोक्राज्म से सम्बन्ध बनाते उसे घनिष्ठ करते हुए अन्ततः परस्पर दोनों का एक हो जाना। एक का दूसरे में विलीन हो जाना। जीवात्मा वस्तुतः विश्वात्मा-परमात्मा का ही एक अंग है। जो जिसका अंग है वह उसी में लीन होने का व्याकुल रहता है और जब तक वह प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता तब तक बेचैन ही रहता है। जल का भण्डार समुद्र है। समुद्र से ही बादल निकल कर सर्वत्र जल बरसाते हैं। यह बरसाया जल नदी, नाले झरने, तालाब, पृथ्वी के भीतर की नालियों आदि में होता हुआ यह प्रयत्न करता है कि वह समुद्र में जाकर मिले। जिधर भी पानी को ढलान दीखती है, उधर ही बहने लगता है। इस ढलान और प्रवाह का प्रयोजन उस बिखरे हुए जल अंशों को अपने मूल भण्डार समुद्र तक पहुँचा देना ही है। आत्मिक उन्नति का उद्देश्य जीव की इस गति में तीव्रता ला देता है जिस के आधार पर वह एक छोटा, टुकड़ा न रहकर अपने उद्गम में ला मिले और अपूर्णता खोकर पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लें।

विश्वात्मा का केन्द्र सूर्य है। सूर्य मात्र चमकने वाला अग्नि का गोला ही नहीं उसमें प्राण शक्ति भरी है। इस विश्व में जीवन दीख रहा है उसका स्रोत यह सूर्य ही है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष दीखने वाले जड़ शरीर के भीतर एक अदृश्य आत्मा रहता है, और उस आत्मा के कारण ही निर्जीव तत्त्वों से बनी हुई काया में जीवन प्रवाह लहराता है उसी प्रकार आँखों से दीखने वाले अग्नि पिण्ड सूर्य के निर्जीव कलेवर में एक समर्थ आत्मा विद्यमान् है उसे विश्वव्यापी जीवन तत्त्व भी कह सकते हैं। प्राणियों वनस्पतियों कृषि कीटाणुओं में जो कुछ हलचल दीख पड़ती है वह इसी विश्व जीवन की प्रतिक्रिया है जिसका मूल केन्द्र सूर्य है। इस सूर्य की प्राण सत्ता को आध्यात्म की भाषा में ‘कुण्डलिनी’ कहा जाता है। समष्टि के रूप में उसकी विश्वव्यापी सत्ता को सूर्य कुण्डलिनी कहते हैं, लोक लोकान्तरों का क्रिया कलाप इसी से संचालित हो रहा है। इसका एक अंश जो पृथ्वी को आच्छादित किये हुए है। और जिसका कर्तृत्व इसी धरती पिण्ड की गति विधियाँ संभालने तक ही सीमित है उसे पृथ्वी कुण्डलिनी कहते हैं एक ही सत्ता के दो भाग यह इस लिए दिखाई पड़ते हैं कि उसके कार्य क्षेत्रों की सीमा में लघुता और महत्ता जैसे अन्तर पड़ गया है। फिर भी एक दूसरे के पूरक है। पृथ्वी कुण्डलिनी वस्तुतः सूर्य कुण्डलिनी से ही अभीष्ट सामर्थ्य उपलब्ध करती है। चन्द्रमा चमकता तो है पर वह चमक उसकी अपनी नहीं सूर्य की है। फिर भी जब चन्द्रमा के माध्यम से वह चमक प्रस्फुटित होती है तो उसकी प्रकृति सूर्य जैसी उष्णता न रहकर शीतल बन जाती है। रंग उसका श्वेत न रहकर शीतल बन जाती है। यह अन्तर पड़ जाने के कारण उस चमक को धूप न वह कर ‘चन्द्रिका’ अथवा चाँदनी कहते हैं। पृथ्वी के कुण्डलिनी को भी इसी प्रकार माना जाना चाहिए। इन दोनों के संयोग से इस विश्व रूपी आकाश की सूर्य चन्द्रमा की भाँति शोभा बन रहीं है और रात्रि तथा दिन के दो भिन्न-भिन्न प्रयोजन भिन्न-भिन्न स्वरूप में पूरे हो रहें है।

वस्तुतः रात्रि को भी चन्द्रमा के माध्यम से सूर्य ही चमकता है। पर कहा और देखा द्वैत ही जाता है। चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता पृथक ही प्रतीत होती है और एक अंश तक है भी ठीक-शक्ति भले ही, एक हो पर दोनों के आवरण तो दो ही है। सूर्य पिण्ड की रचना और चन्द्र पिण्ड की रचना का क्रम और स्वरूप अलग है भी। इसी प्रकार पृथ्वी कुण्डलिनी और सूर्य कुण्डलिनी की मूल-तथा एक सूत्र में आबद्ध होने पर भी पृथक-पृथक नामों से पुकारा जाय और अनुभव किया जाय तो इसमें कुछ अनुचित भी नहीं है। सूर्य कुण्डलिनी का प्रतिनिधित्व मनुष्य शरीर में मस्तिष्क में अवस्थित सहस्रार चक्र करता है और पृथ्वी कुण्डलिनी की स्वरूप मूलाधार में विद्यमान् है। सूर्य ऊपर है और पृथ्वी नीचे। इसी प्रकार सूर्य कुण्डलिनी ऊपर है और पृथ्वी कुण्डलिनी नीचे। इन दो पृथक सत्ताओं में कुछ दूरी रहते हुए भी अति घनिष्ठ ही नहीं अन्योऽन्याश्रित सम्बन्ध बना हुआ है।

नर को नारायण बनने में तभी सफलता मिलेगी जब वह अनन्त चेतना के दिव्य शक्ति स्रोत सविता देवता से अपना सम्बन्ध जोड़ेगा। सूर्य कितना तेजस्वी है कितना समर्थ है यह जानने वाले सूर्य पुत्र बनने के लिए उसकी साधना कुण्डलिनी योग द्वारा करते तो है पर यह भूल जाते हैं कि अपनी सत्ता में दिव्य चेतना भी उसी मार्ग पर चलते हुए प्रखर बनानी होगी जिस पर चलते हुए एक तुच्छ सा अग्नि पिण्ड सविता के रूप में विकसित हुआ है।

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