Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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अणुबम से बड़ा संकट - बढ़ता प्रजनन
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इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विज्ञान वेत्ता डॉ० हाक्सले ने कलकत्ता में वैज्ञानिकों की एक गोष्ठी में कहा था- अणु विस्फोट से उत्पन्न विभीषिकाओं की समस्या से भी एक अधिक जटिल समस्या है- संसार भर में द्रुत गति से बढ़ती हुई जनसंख्या। हर वर्ष संसार में 50 करोड़ व्यक्ति नये बढ़ जाते हैं। यह संख्या समस्त पाश्चात्य देशों की वर्तमान आबादी के बराबर है।
‘इण्डिस्ट्रियल एफीसेन्सी आफ इण्डिया’ के विद्वान् लेखक प्रो० दास इस निष्कर्ष पर पहुँचें है कि भारत में आधी शताब्दी तक जनसंख्या की वृद्धि पूर्णतया रुकी रहे तभी यहाँ की आर्थिक और स्वास्थ्य समस्या हल होगी।
भारत के लिए तो अपनी इस बढ़ती हुई आबादी के लिए आहार देना और भी अधिक जटिल हो रहा है। सन् 43 में बंगाल में जो अकाल पड़ा था उसे भुलाया नहीं जा सकता। अत्र की कमी के कारण उसे छोटे से प्रदेश में 34 लाख व्यक्ति भूख से तड़प-तड़प कर मर गये थे।
भारत में आबादी की दृष्टि से संसार के सातवें भाग की जनसंख्या यहाँ रहती है। पर उसका क्षेत्रफल संसार के क्षेत्रफल का चालीसवाँ भाग मात्र है। विश्व सन्तुलन की दृष्टि से या तो भारत की जनसंख्या-विश्व जनसंख्या का रहना यहाँ आवश्यक हो तो उसे निर्वाह के लिए संसार का सातवाँ भाग भूमि मिलनी चाहिए। यदि असन्तुलन बना रहे तो दूसरे समुन्नत देशों की तुलना में आने के लिए भारत को उसी अनुपात से अधिक प्रयत्न पुरुषार्थ करना होगा जो उपरोक्त असन्तुलन में है। अर्थात् यहाँ की जनता समृद्ध देशों के नागरिकों की तुलना में लगभग छः गुनी तत्परता एवं श्रम निष्ठा अपनाकर ही समुन्नत वर्ग की पंक्ति में खड़ी हो सकती है।
भारतवर्ष विश्व के कुल भूभाग का लगभग ढाई प्रतिशत है। किन्तु आबादी विश्व जन गणना का 14 वाँ भाग है। औसत दुनिया की यदि एक मील भूमि में ढाई सौ व्यक्तियों को रहना पड़ता हो तो भारत में उतना ही जगह में 1400 व्यक्ति घुसे पड़े होगे अपने देश की भूमि को अन्य देशों की तुलना में लगभग 6 गुना अधिक भार सहना पड़ता है।
विश्व की जनगणना तेजी से बढ़ रही है। इस बीसवीं शताब्दी के जो आँकड़े उपलब्ध है उनसे पता चलता है कि सन् 1601 की जनगणना में समस्त विश्व में 238 करोड़ मनुष्य रहते थे। वे सन् 1611 में 252 करोड़ हो गये और आबादी वृद्धि का औसत 13 प्रतिशत रहा। सन् 21 में यह आबादी लगभग उतनी ही रही। जर्मन युद्ध ने तथा उन्हीं दिनों फैली महामारियों ने संख्या बढ़ने नहीं दी। सन् 31 में शान्ति का समय आते ही यह संख्या 278 करोड़ हो गई, वृद्धि का औसत 27 हजार बढ़ा। सन् 41 में 1 में 318 करोड़ तक पहुंची और वृद्धि दर 38 प्रति हजार पहुंची। आगे इस क्रम में और तेजी आई। सन् 41 में 360 करोड़ हुई द 41 प्रतिशत पहुँची। 61 में संख्या 436 करोड़ दर 78 प्रति हजार। सन् 66 में 500 करोड़ संख्या और वृद्धि दर 61 प्रतिशत। इसी चक्रवृद्धि कम से बढ़ती हुई गति से अनुमान है कि अगले 72 के बाद 82 में होने वाली जनगणना में यह संख्या हजार करोड़ हो जायेगी। इसका अर्थ यह हुआ है कि अब कि अपेक्षा अगले बीस वर्ष में विश्व जनसंख्या दूनी होगी। किन्तु भूमि जितनी है उतनी ही रहेगी। ऐसी दशा में उस अब की अपेक्षा दूने लोगों के निवास के लिए, क्रिया कलाप के लिए तथा आहार ने के लिए विवश किया जाएगा
इन दिनों भारत की जनसंख्या 50 करोड़ है और जन्म दर हर वर्ष 41 करोड़ है और जन्म दर हर वर्ष 41 प्रति हजार के हिसाब से बढ़ती है। अपने यहाँ प्रति सेकेण्ड प्रायः 150 बच्चे पैदा होते हैं अर्थात् हर दिन 55 हजार नये बच्चे जन्म धारण करते हैं।
अपने देश में इन दिनों बच्चों की मृत्यु दर 10 प्रति हजार और बड़ी आयु के लोगों की मृत्यु दर 16 हजार है। दोनों को मिलाकर 26 प्रति हजार जबकि वृद्धि का क्रम 41 प्रतिशत। जन्म दर की तुलना में यह मृत्यु दर अत्यन्त स्वल्प है। बढ़ती हुई आबादी पर इससे कुछ अधिक नियन्त्रण नहीं होता। अपने देश में हर वर्ष इतनी आबादी बढ़ जाती है जिसे एक आस्ट्रेलिया को बराबर समझना चाहिए। हर वर्ष एक नये आस्ट्रेलिया के जुड़ने जितना उत्तरदायित्व वहन करना पड़े तो सोचा जा सकता है कि उसे सँभालने के लिए कितने साधन जुटाने की आवश्यकता पड़ेगी।
अब आहार-विहार चिकित्सा आदि के साधन पहले की अपेक्षा अधिक है। फलस्वरूप मृत्यु दर पर काफी नियन्त्रण प्राप्त कर लिया गया हैं। 1650 में औसत आयु अपने देश में 32 वर्ष थी, सन् 66 में 50 वर्ष हो गई। इन पाँच वर्षों में आशा की जानी चाहिए कि वह कुछ और भी बढ़ा होगी। दीर्घ जीवन की दिशा में हम क्रमशः प्रगति कर रहें है यह प्रसन्नता की बात है पर साथ ही जन्म दर की वृद्धि को देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि इस सुधार ने आबादी की बढ़ोत्तरी में और भी अधिक तेजी लादी है।
संसार के भूमि उत्पादन के अंक 3.5 है जबकि भारत की भूमि 2.7 ही उत्पादन करती है। प्राकृतिक उर्वरा शक्ति और सुधरे हुए कृषि साधनों के आधार पर समुन्नत देशों ने अपना उत्पादन काफी बढ़ाया है। किन्तु पिछड़े देशों में वह कम है। फिर भी औसत 3.5 का बना हुआ है। भारत में चिरअतीत काल से कृषि कर्म होता रहा है। जबकि अन्य देशों में वह बहुत पीछे शुरू हुआ। अमेरिका में तो वह मात्र 200 वर्ष से ही आरम्भ हुआ है। भारत की बूढ़ी जमीन में प्राकृतिक उत्पादन क्षमता घट रही हैं। वंश वृद्धि के साथ-साथ पीढ़ी दर पीढ़ी भूमि का विभाजन होते जाने से उसके छोटे-छोटे टुकड़े होते चले जा रहें हैं। उनमें उत्पादन के कारगर साधनों की भी व्यवस्था नहीं हो सकती। ऐसी दशा में उत्पादन बढ़े तो कैसे बढ़े । 80 प्रतिशत किसान अशिक्षित हैं। उन्हें सुधरे साधनों को अपनाने के लिए न तो उतना उत्साह है न पूँजी विनियोग, ऐसी अनेक बाधाओं के कारण बहुत प्रयत्न करने पर भी उत्पादन का अंक 2.7 ही बना हुआ है।
खाद्य उत्पादन सन् 51 में साड़े पाँच करोड़ टन था। सन् 65 में बह सवा सात करोड़ टन हो गया। इन पाँच वर्षों में वह कुछ और भी बढ़ा होगा। किन्तु आबादी की बढ़ोत्तरी को देखते हुए यह खाद्य उत्पादन वृद्धि भी नगण्य है। खाद्य की खपत औसत प्रति व्यक्ति इन दिनों 12 ओंस छः छटाँक के करीब है। जबकि समृद्ध देशों के नागरिक इससे कहीं अधिक मात्रा में खुराक प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं उनके भोजन में भारतीयों के आहार की तुलना में पौष्टिक तत्त्व भी कहीं अधिक रहते हैं। घटिया और कम मात्रा में भोजन में भारतीयों के आहार की तुलना में पौष्टिक तत्त्व भी कहीं अधिक रहते हैं। घटिया और कम मात्रा में भोजन पा सकने की विवशता जहाँ उत्पादन की कमी के कारण रहती है, वहाँ एक कारण यह भी है कि इतने लोगों को अच्छा रोजगार देने की व्यवस्था भी अपने यहाँ नहीं हो पा रही है।
बेरोजगारी विभाग की रिपोर्ट है कि सन् 51 में 30 लाख लोग बेकार थे। सन् 65 में 310 लाख बेकार बढ़ गये। रोजगार देने के जो नये साधन खड़े किये जाते हैं वे औसत बढ़ोत्तरी की तुलना में कम ही पड़ते जाते हैं। समय की मग है कि हर वर्ष 130 लाख व्यक्तियों को नये रोजगार साधन उपलब्ध कराये जायें। काम करने योग्य तने ही नये नवयुवक हर वर्ष रोजगार काम माँगते हैं। यदि उन्हें निराश रहना पड़े तो निश्चित रूप से समाज में अगणित विकृतियाँ पैदा होगी।
वर्तमान गति से बढ़ती हुई आबादी की हर वर्ष राष्ट्र के समान नई माँग उपस्थित होती है इसकी नई आवश्यकता हर वर्ष काफी बढ़ी-चढ़ी होती है जिन्हें जुटाने के प्रयास प्रायः पिछड़ते ही चले जाते हैं। हर वर्ष बढ़ने वाली आबादी के 126500 नये स्कूल, 372500 नये अध्यापक, 2506000 मकान, 188, 774,000 मीटर कपड़ा, 12545000 क्विन्टल भोजन चाहिए। साथ ही 4,000000 व्यक्तियों को नई नौकरियाँ मिलनी चाहिए।
कृषि तथा अन्यान्य नये उत्पादन साधनों की इस समय तक जितनी वृद्धि हो सकी है तथा भावी सम्भावनाओं का लक्ष्य बनाया गया है उसे देखते हुए यह नितान्त आवश्यक है कि जन्म दर 41 प्रति हजार से घटाकर 24 प्रति हजार कर दी जाय। इन दिनों प्रायः 6 करोड़ दम्पत्ति प्रजनन प्रक्रिया में संलग्न है। उनकी संख्या घटे और इस प्रयास में विरति उत्पन्न की जाय।
आँकड़े बताते हैं कि जनसंख्या प्रायः 25 से 30 वर्षों के बीच दुगुनी हो जाती है। बीमारी, अकाल, दुर्बलता, युद्ध, प्रकृति प्रकोप आकर इस अवांछनीय उत्पादन को ठिकाने लगाते हैं। यदि पहले से ही सावधानी रखी जाय तो प्रकृति कोप क्यों जगे ओर उस विनाश का चीत्कार क्यों सुनने को मिले? संसार में विपत्तियाँ वे लोग बढ़ाते हैं जो धरती का बोझ उठाने की शक्ति का ध्यान न रखते हुए अन्धाधुन्ध सन्तान बढ़ाते चले जाते हैं। देखने में प्रजनन एक निर्दोष कृत्य मालूम होता है और एक हद तक मनोरंजक भी, पर यदि उस दिशा में अविवेकपूर्ण कदम उठाये गये है तो उसका दुष्परिणाम उन उत्पादकों के साथ-साथ समस्त समाज को भी भोगना पड़ेगा। सर्वत्र विजित और शोक-संताप का वातावरण उत्पन्न करना यदि पाप है तो अविवेकपूर्ण पूर्ण रीति से अनावश्यक सन्तान पैदा करना भी पाप ही माना जाएगा भले ही आज की प्रचलित मान्यता के अनुसार उसे पाप न माना जाता हो।