
प्रेम की प्रौढ़ता (kahani)
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हवा आवेश में आकर, दीपक का बुझाती हुई चली गई। पर दीपकों ने कहा—वह एक उद्वेग मात्र था। जीना−मरना हमें साथ−साथ ही है। हवा के बिना हम रहेंगे नहीं।
धूप चमकी और ऐसी तड़पी मानो बेचारी छाया का अस्तित्व ही मिटा देगी। पर छाया शान्त रही। उसने बुरा न माना और इतना ही कहा—एक हाथ से ताली नहीं बजती; जब मैंने धूप के साथ रहने की ठान−ठानी है तो उसकी अकेली कड़क पृथकता उत्पन्न करने में सफल क्यों कर हो सकती है?
श्वाँस ने शरीर में प्रवेश किया तो प्रश्वाँस का निकाल कर बाहर धकेल दिया। निश्वास ने आंखें बिचकाते हुए कहा—हमें तो साथ रहना है। निकालने का प्रयास कैसे पूरा हो सकता है, जब दूसरे को साथ रहने के सिवा कोई राह ही नहीं दिखती।
मृत्यु ने जीवन को कुचल कर रख दिया; पर जीवन यही कहता रहा—मृत्यु मेरी अभिन्न सहचरी है, उसकी गोद में सोने का लोभ मैं संचरण कर ही नहीं सकता।
बात कुछ अटपटी−सी है कि एक की रुखाई का दूसरे पर असर न पड़े; पर देखा ऐसा भी गया है कि मजबूती से पल्ला पकड़ने वाले से अंचल छुड़ाकर भाग सकना भी सरल नहीं होता। हवा और दीपक, धूप और प्रश्वाँस—जीवन और मृत्यु की स्नेह−साधना को ‘एकांगी’ भले ही माना जाय, पर उसमें झाँकती है प्रेम की प्रौढ़ता ही।