
अतीत की खोई गरिमा हम पुनः प्राप्त करें
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भारत किसी समय उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा हुआ था। उसकी अपनी सीमाओं में सुख−शान्ति के भाण्डागार भरे पड़े थे। भौतिक साधनों की कमी न थी। शारीरिक बलिष्ठता और दीर्घजीवन का भरपूर आनन्द सबको उपलब्ध था। परिवार एक छोटे राष्ट्र के रूप में विकसित होते हुए—विकासमान पुष्प−पादपों से भरे हुए उद्यान की तरह शोभायमान थे। धन सम्पदा की कमी न थी। अन्न के भण्डार भरे पड़े थे और दूध, घी की नदियाँ बहती थीं। सोना−चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ घरेलू बर्तनों में प्रयुक्त होती थी। सामाजिक सुव्यवस्था पारस्परिक सघन सद्भाव सहयोग पर समुन्नत स्थिति में जा पहुँचती थी। शालीनता और सज्जनता को हर व्यक्ति ने आवश्यक वस्त्रों की तरह धारण कर रखा था। राजा लोग गर्व करते थे कि उनके राज्य में कोई चोर, अपराधी, कुकर्मी नर−नारी नहीं है।
उन सतयुगी परिस्थितियों में यह देश अपनी प्रगति, समृद्धि और सुख−शान्ति को अपनी ही सीमा तक सीमित रखने वाला न था, उसने दोनों हाथों से समस्त संसार में बखेरा। समृद्धि का सदुपयोग है भी इसी में कि उसका लाभ अपने शरीर, परिवार तक सीमित न रहे और उसका लाभ प्रकाश दीप की तरह सुदूर क्षेत्रों को आलोकित करता रहे।
भारतवासी कुछ पाने, कमाने के लालच से नहीं, वरन् अपने उपार्जन से समस्त संसार को लाभान्वित करने के लिए सुदूर देशों में गये और धरती के कोने−कोने को संस्कृति और समृद्धि का अजस्र अनुदान देकर ऊँचा उठाया। इन प्रयासों में इतिहास के पृष्ठ स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं, पिछड़ी हुई परिस्थितियों में रहने वाले लोगों ने भारतवासियों के अपरिमित अनुदान पाये और सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में बढ़ चलने का पथ−प्रशस्त किया। यही रही है प्राचीन काल के भारत की विश्व सेवा साधना की पृष्ठभूमि; जिससे वह स्वयं गौरवान्वित हुआ और समस्त संसार को कृतकृत्य बनाया।
भारत की भौगोलिक सीमाओं में निवास करने वाले तेतीस करोड़ नागरिक समस्त विश्व में तेतीस कोटि देवताओं के नाम से—पूजे, पहचाने जाते थे। उन्हें भू देव−भू सुर का सम्मान प्राप्त था। भारत भूमि देव भूमि कहीं जाती थी। उसे ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ इसलिए कहा जाता था कि यहाँ स्वर्गादपि गरीयसी परिस्थितियाँ सदा ही बनी रहती थीं। संसार ने जब उससे, अन्धकार को निरस्त करके सर्वत्र सद्ज्ञान का आलोक पाया तो उसकी गुरुता के चरणों में मस्तक झुकाया और ‘जगत् गुरु’ कहा। शासन तन्त्र के स्वरूप और लाभ का अनुदान पाकर उसे चक्रवर्ती शासक कहा गया। यहाँ के शासन−तन्त्र−विज्ञानी सुदूर देशों में गये और वहाँ के निवासियों को सरकारें बनाने और चलाने से परिचित, अभ्यस्त बनाकर वापिस चले आये या आगे बढ़ गये। ऐसी थी भारत की चक्रवर्ती शासन नीति। स्थानीय उच्छृंखलता बढ़ने न पाये। नीति संचालन के सूत्र समुन्नत लोगों के हाथ में रहें इसलिए संसार पर नियन्त्रण तो रहता था, पर वहाँ से कुछ लाने कमाने की बात नहीं सोची जाती थी। अश्वमेध यज्ञों के नाम पर विश्रृंखलित शासन सूत्रों को समय−समय एकताबद्ध किया जाता रहा। द्वापर के महाभारत युद्ध में प्रायः समस्त संसार के राजा इस या उस पक्ष में सम्मिलित हुए थे। शासन सत्ताओं के नीति संचालन सूत्र उन दिनों तक भारत के ही हाथों में थे। अस्तु आमन्त्रणों पर उन्हें यहाँ के राजकीय अभियानों में सम्मिलित ही होना पड़ता था।
नालंदा, तक्षशिला जैसे अनेकों विश्व विद्यालय इस देश में थे। देश की शिक्षा व्यवस्था की पूर्ति तो स्थानीय गुरुकुल ही कर लेते थे। उच्चस्तरीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था का प्रबन्ध यह विश्व−विद्यालय करते थे। देश−देशान्तरों की भाषाएँ वहाँ पढ़ाई जाती थीं; जिनमें पारंगत होकर विश्व सेवा के लिए अपने को समर्पित करने वाले महामानव विश्व के कोने−कोने में जाने की तैयारी करते थे और पिछड़े क्षेत्रों को—पिछड़े वर्गों को हर दृष्टि से ऊँचा उठाने के लिए अपनी अहैतुकी सेवा भावना की अजस्र वर्षा करते थे।
न केवल धर्म और अध्यात्म वरन् कृषि, पशु−पालन, वृक्षारोपण, शिल्प, उद्योग, नौका−नयन, चिकित्सा, वास्तु, रसायन, शस्त्र संचालन, याँत्रिकी आदि भौतिक विज्ञान की अनेकानेक धाराओं से संसारवासियों को परिचित प्रवीण कराने के लिए अथक परिश्रम किया गया। फलतः मानव जाति को अपनी पिछड़ी हुई, अभावग्रस्त एवं विपन्न स्थिति से छुटकारा पाने का अवसर मिला। अन्न, वस्त्र, निवास और शिक्षा की आरम्भिक आवश्यकताएँ पूरी होने पर प्रगति के अन्याय मार्ग खुले। यह सब भारतीय सहयोग के बिना सम्भव न था। अस्तु लोग उन उदारमना, सुविकसित महामानवों को प्रतिदान तो क्या दे सकते थे, पर उनने अपनी भाव भरी श्रद्धाञ्जलियाँ निरन्तर समर्पित कीं। भारतवासियों के लिए विश्व निर्माण की अजस्र भूमिका सम्पादित करने के गौरव में ही पर्याप्त सन्तोष था। वे और कुछ पाने की इच्छा भी क्यों करते?
मनुष्य जीवन की गरिमा दो पहिये के रथ पर चढ़कर गतिशील होती है—एक पहिया है आत्म−निर्माण, दूसरा लोक−निर्माण। यही दो लक्ष्य भारतीय संस्कृति के दो अविछिन्न अंग रहे हैं। गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से इस देश के निवासी इस बात के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे कि उनका व्यक्तित्व सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों से परिपूर्ण हो। उसे आदर्श समझा जाय और अनुकरणीय माना जाय। जहाँ तक परिचय क्षेत्र है वहाँ तक व्यक्ति की सुगन्ध भरी सुषमा फैले और उसके आलोक से आलोकित लोग स्वयं भी अनुगमन करते हुए नर−रत्न बनने की भूमिका निबाहें। यही थी उन दिनों व्यक्ति गत जीवन की आध्यात्मिक महत्वाकाँक्षा। भौतिक दृष्टि से हर व्यक्ति समुन्नत, सुव्यवस्थित और साधन सम्पन्न जीवन जीता था। क्योंकि वस्तुओं के उपार्जन की ही नहीं उसके सदुपयोग की कला भी उसे आती थी। जो यह जानता है कि उपलब्ध साधन सामग्री का श्रेष्ठतम, उपयोग क्या और कैसे हो सकता है, उसे स्वल्प साधनों में भी समृद्धि का परिपूर्ण आनन्द सहज ही मिल जाता है। यही था उस समय का आत्म−निर्माण लक्ष्य—जिसे पूरा करने में हर व्यक्ति एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा लगाये रहता था। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व हर किसी के लिए प्रगति का मापदण्ड बना हुआ था।
भारतीय जीवन का दूसरा लक्ष्य था—लोक−निर्माण। वह मनुष्य क्या—जो अपनी उपलब्धियों से केवल अपने शरीर और परिवार को ही लाभान्वित करे। पीड़ा और पतन के गर्त में गिरे हुए—पिछड़े हुए और असमर्थ लोग जिससे कुछ भी प्रकाश एवं सहयोग प्राप्त न कर सकें। उन दिनों यही लोक मान्यता थी कि हर समुन्नत व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति एवं विभूतियों का एक बड़ा भाग समाज की उन्नति में—सुख−शान्ति की अभिवृद्धि में लगाना चाहिए। आत्मोत्कर्ष की तरह लोक−कल्याण भी मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीन काल में प्रत्येक भारतवासी की वैसी मान्यता, निष्ठा और रीति−नीति थी।
हर भारतवासी को द्विज बनना पड़ता है। उसका दूसरा जन्म होता था। उसका प्रतीक था—यज्ञोपवीत संस्कार। वासना और तृष्णा के लिए जिये जाने वाले हेय पशु जीवन का उत्कृष्ट आदर्शवादिता के लिए समर्पित देव जीवन में बदल डालने का नाम ही दूसरा जन्म है—द्विजत्व की धारणा है—जो इस मानवोचित साहस से पिछड़ते थे वे हेय समझे जाते थे—उन्हें पतित, अपंग चाण्डाल आदि नामों से सम्बोधन करते थे। ऐसे लोगों के लिए सामाजिक असहयोग ही प्रचण्ड दण्ड था।
धर्म और अध्यात्म का सुविस्तृत दर्शन शास्त्र इसी भावनात्मक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाये रखने का उद्देश्य सामने रखकर दूरदर्शी ऋषि−मनीषियों ने सृजा था। उपासना, ईश्वर भक्ति, योगाभ्यास, तप साधना, तीर्थयात्रा, कथा−कीर्तन, देव−दर्शन, दान−पुण्य, व्रत−अनुष्ठान, षोडश संस्कार, पर्व, आयोजन आदि धर्म कृत्यों के साधन विधान इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखकर विनिर्मित किये गये थे इन क्रिया कृत्यों के साथ जुड़े हुए प्रेरणा प्रकाश से जन−मानस को आलोकित करते हुए उस उच्चस्तरीय चिन्तन एवं कर्तव्य को निरत रखा जा सकेगा। संक्षेप में भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता का आधार मूल उद्देश्य एक ही था कि व्यक्ति को नर−पशु से ऊँचा उठाकर नर−नारायण के रूप में विकसित करने के लिए अगणित स्तर के प्रेरणा प्रयोजन खड़े किये जाँय और सुसंस्कृत जीवन जीने की गरिमा के प्रति आस्थावान बनाया जाय।
इस दार्शनिक आधार को जीवन्त और ज्वलन्त रखने के लिए इस देश में साधु संस्था की एक विशालकाय सेना निरन्तर भावनात्मक उत्कृष्टता की सुदृढ़ सुरक्षा में साहस पूर्वक कटिबद्ध रहती थी। गृहस्थ रहकर सीमित क्षेत्र में पौरोहित्य की शिक्षा व्यवस्था की क्रिया−पद्धति अपनाने वालों को ब्राह्मण कहा जाता था। जिन्हें परिव्राजक रहकर सुदूर क्षेत्रों में—ज्ञान−विज्ञान का आलोक फैलाना था वे विवाह नहीं करते थे और साधु कहलाते थे। वस्तुतः दोनों परस्पर पूरक थे। दोनों का लक्ष्य एक था। साधु संस्था के यह दोनों सदस्य अनवरत रूप से जन−मानस को अधिकाधिक उच्चस्तर तक विकसित करने के लिए भागीरथ प्रयत्न करते थे। अपना उदाहरण प्रस्तुत करके लोगों में अनुगमन का उत्साह एवं साहस पैदा करते थे। इस पुण्य प्रयास ने भारतीय जनता की उस आन्तरिक उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाये रखा; जिसके आधार पर अपनी भौगोलिक सीमाओं को समस्त संसार के लिए आकर्षण की वस्तु बनाया और स्थिति को इतना ऊँचा उठाया कि विश्व मंगल के लिए बढ़े−चढ़े अनुदान प्रस्तुत कर सकना सम्भव रह सके।
मनःस्थिति से परिस्थिति का निर्माण होता है यह एक सुनिश्चित तथ्य है। प्राचीन भारत की गौरव−गरिमा का—उसकी समृद्धि, प्रगति और विभूति का—कारण एवं आधार तलाश करना हो तो गहरा विश्लेषण करने पर हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि इस देशवासियों की मनःस्थिति को उच्चस्तरीय बनाने के लिए—बनाये रखने के लिए भागीरथ प्रयत्न किये गये थे। इसी के लिए उपयुक्त वातावरण विनिर्मित किया गया था। इसी स्थूलता की प्रतिक्रिया को विशाल भारत की गौरव−गरिमा का एकमात्र आधार कह सकते हैं।
भौतिक साधनों की दृष्टि से हम पूर्वजों की तुलना में पीछे नहीं आगे हैं। वैज्ञानिक प्रगति ने हमें अनेकानेक सुविधा साधन प्रदान किये हैं। ऐसी दशा में अपना स्तर हर क्षेत्र में अधिक समुन्नत होना चाहिए था। पर हुआ ठीक उलटा। जिस क्रम से साधन बढ़े उसी क्रम से हम हर क्षेत्र में पिछड़ते चले गये। इसका एकमात्र कारण यही है कि हमने अपनी आन्तरिक, आत्मिक विशेषताओं को खो दिया—दृष्टिकोण संकुचित बना लिया और आदर्शवादी चरित्र−निष्ठा की उपेक्षा करनी आरम्भ कर दी। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मनुष्य की भौतिक प्रगति का मूलभूत आधार उसकी आन्तरिक स्थिति होती है। आत्मिक विशेषताओं के आधार पर ही चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त होती है। दुष्ट साधनों से—निष्कृष्ट दृष्टिकोण से—जो समृद्धि कमाई जाती है वह न तो स्थिर रहती है और न उससे सुख−शान्ति का आधार विनिर्मित होता है। ओछे मनुष्यों की सम्पदाएँ, सफलताएँ व्यक्ति और समाज के लिए विविध−विधि संकट ही उत्पन्न करती हैं।
यदि हमें यह अनुभव होता हो कि प्राचीन गरिमा को खोकर हमने भूल की—यदि हमें यह लगता है कि हमारी प्रतिष्ठा प्राचीन काल जैसी गौरवमयी होनी चाहिए तो उसका एक ही मार्ग है−हम अपने पूर्वजों जैसा उदात्त दृष्टिकोण अपनायें और गतिविधियों में ऐसे तथ्यों का समावेश करें जो व्यक्ति को आत्मिक ही नहीं भौतिक दृष्टि से भी सुसम्पन्न बनायें है। इसी मार्ग पर चलने से व्यक्ति गत एवं देशगत ही नहीं, समस्त विश्व का सर्वतोमुखी कल्याण भी सम्भव हो सकता है।