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Magazine - Year 1974 - Version 2

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श्रम−साधना के सत्परिणाम सुनिश्चित हैं

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सुयोग्य, बुद्धिमान और अनेक विशेषताओं से सम्पन्न होने पर भी जो लोग आलसी हैं—परिश्रम से जी चुराते हैं वे उनकी तुलना में घटिया ही गिने जायेंगे, जिनमें योग्यता तो कम है, पर परिश्रम पर विश्वास करते हैं और उसका सम्मान।

मनुष्य के भीतर सब कुछ बीज रूप में विद्यमान है उसे परिश्रम एवं अभ्यास से बढ़ाया, उभारा जा सकता है। इसके विपरीत बहुत कुछ योग्यताएँ होने पर भी उसे कार्यान्वित न किया जा सके तो वह लोहे के जंग लगने से गल जाने की तरह व्यर्थ बर्बाद और विस्मृत होती चली जायगी। उस्तरा वही चमकता और तेज रहता है जो काम में आता रहता है और शान के पत्थर पर घिसा जाता रहता है। जहाँ के तहाँ पड़े रहने पर पान सड़ जाते हैं—पानी गन्दा हो जाता है—हवा विषैली बन जाती है। प्रवाह के बिना गति नहीं।

हम जीवित इसलिए हैं कि शरीर के प्रत्येक कलपुर्जे ने अनवरत श्रम−साधना करते रहना अंगीकार किया है। माँस पेशियाँ सिकुड़ती फैलती हैं। नाड़ियाँ रक्त को लाती ले जाती हैं—फेफड़े हवा को खींचते−फेंकते हैं। छोटे−छोटे जीव कण और ज्ञान तन्तु तक अपने क्रिया−कलाप में अहिर्निश दत्त−चित्त रहते हैं। इसी सर्वतोन्मुखी सक्रियता का नाम जीवन है। जिस क्षण अंग अवयवों ने अपनी क्रियाशीलता से मुँह मोड़ना आरम्भ किया; उसी क्षण से रुग्णता, अशक्त ता के अस्त्र−शस्त्र लेकर मौत का आक्रमण होगा और जीवनलीला समाप्त होने में देर न लगेगी।

कई व्यक्तियों में जन्मजात बढ़ी−चढ़ी प्रतिभा पाई जाती है। कितनों की योग्यता संवर्धन के लिए आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के अवसर एवं साधन रहते हैं। इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर वे चाहें तो दूसरों की अपेक्षा अधिक शीघ्रतापूर्वक और अधिक मात्रा में प्रगति कर सकते हैं। पर देखा जाता है कि यह सब होते हुए भी कितने ही मनुष्य पिछड़ी हुई परिस्थितियों में पड़े रहते हैं। इसका एकमात्र कारण उनका मानसिक अवसाद—प्रमाद एवं शारीरिक अनुत्साह आलस्य ही होता है। यह उभय−पक्षीय शारीरिक अनुत्साह आलस्य ही होता है। यह उभय−पक्षीय विडम्बना मनुष्य को अकर्मण्य बनाती है और अभागा बनाये रहती है।

श्रमशीलता एक ऐसा दैवी वरदान है जिसके द्वारा प्रतिभा एवं साधनों की कमी पर विजय प्राप्त की जा सकती है और अभिष्ट योग्यता बढ़ाई जा सकती है। शरीर और मन की उत्पादक शक्ति को चमत्कारी कहा जा सकता है। यदि उन्हें विद्या मिले और उत्साहपूर्वक क्रियान्वित रखा जा सके तो आज का मूर्ख कल निष्णात बन सकता है और आज गई−गुजरी परिस्थितियों में निर्वाह करने वाला कल उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है।

बढ़ी−चढ़ी जन्मजात योग्यता का होना अथवा प्रचुर साधनों का जुटा रहना अपने हाथ में नहीं। वे किसी को मिलते हैं किसी को नहीं। पर मानसिक तत्परता और शारीरिक श्रमशीलता के सुनहरे अवसर हर किसी को उपलब्ध हैं। इनका समुचित उपयोग कर सकना पूर्णतया अपने हाथ की बात है।

परिश्रमी स्वभाव एक ऐसा दैवी वरदान है जिसे कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है और योग्यताओं का, साधनों का—समुचित उपार्जन करता हुआ अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास कर सकता है। कहना न होगा कि विकसित व्यक्तित्व जिस भी दिशा में अग्रसर होता है उसी में विविध−विध सफलताएँ उसके पीछे−पीछे चलती हैं।

जीवन हर किसी को मिला है, पर उसका समुचित लाभ केवल वे ही उठा सकते हैं जो अपनी प्रत्येक सास को प्रभु प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदा मनाकर उसके सदुपयोग का पूरा−पूरा ध्यान रखते हैं। श्रम की साधना के सत्परिणाम निर्विवाद है। परिश्रम से प्यार करने वाला जीवन को प्यार करता है अस्तु उसे सफल मनोरथ और आनन्द युक्त जिन्दगी जी सकने का लाभ भी मिलता है।

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