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Magazine - Year 1974 - Version 2

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मानसिक उद्वेग जीवन विनाश के प्रमुख कारण

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मानसिक स्वास्थ्य की परीक्षा के लिए यह देखना चाहिये कि चिन्तन की प्रक्रिया सही है या नहीं। जो बिना किसी वेदना अथवा विक्षोभ के हँसी−खुशी और सन्तोष, उत्साह भरा जीवन जी रहा हो उसे मानसिक दृष्टि से स्वस्थ कहा जा सकता है। दूसरों के सुख को अपने सुख से अधिक महत्व देने वाले—दाम्पत्य जीवन से संतुष्ट, विनोद प्रिय, चिड़चिड़ेपन से युक्त—असफलता और निराशा के वातावरण में भी अपना विवेक संतुलन बनाये रहने वाले मानसिक दृष्टि से स्वस्थ कहे जा सकते हैं।

नये व्यक्तियों के बीच नये वातावरण में अपने आपको फिट कर लेना—कभी भी अकेलापन अनुभव न करना—उदासी और खीज से बचे रहना—मन में किसी के प्रति चिरस्थायी ईर्ष्या−द्वेष न रखना—अपनी कठिनाइयों को हलकी और सुधरने योग्य मानना, भविष्य की उज्ज्वल सम्भावनाओं पर विश्वास रखना, भूतकाल की विपत्तियों का, भविष्य की विपन्न आशंकाओं के चिन्तन करते रहने की बुरी आदत से बचे रहना; किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य संतुलन का उपयुक्त प्रमाण माना जा सकता है।

विपत्ति के समय धैर्य, शूरवीरों जैसी निर्भयता, पुरुषार्थ में अभिरुचि, मनोयोगपूर्वक परिश्रम, कठिनाइयों से जूझने का साहस, प्रफुल्ल और निश्चिंत रहना—अपनी क्षमतायें बढ़ाने के लिए तथा त्रुटियों को सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहना यह बताता है कि यह व्यक्ति मानसिक दृष्टि से निरोग है। दूसरों से बड़ी−बड़ी आशायें न बाँधना और उनके सम्बन्ध में बहुत ऊँची कल्पनायें न गढ़ना भी इस बात का चिन्ह है कि मस्तिष्क यथार्थवादी है। बहुत ऊँची उड़ाने उड़ने और किसी को बहुत ऊँची स्थिति का मान बैठने से अन्ततः निराशा ही होती है क्योंकि प्रायः सभी मनुष्य किन्हीं−किन्हीं दोषों से युक्त पाए जाते हैं।

मन पर छाये रहने वाले उद्वेग, असंतोष एवं आक्रोश मस्तिष्कीय कणिकाओं को इतना उत्तेजित कर देते हैं कि उनका प्रभाव समस्त शरीर पर अशान्ति एवं बेचैनी के रूप में दिखाई पड़ता है। घर का कलह, पैसे की तंगी, व्यावसायिक हानि, मुकदमा, शत्रुता, बीमारी, शोक−वियोग, क्रोध, भय, ईर्ष्या−द्वेष आदि अनेक कारण ऐसे हो सकते हैं; जिनके कारण मस्तिष्क पर असाधारण दबाव पड़े। कहना न होगा कि समस्त शरीर मस्तिष्क के ही नियन्त्रण में चलता है। मस्तिष्क उत्तेजित होगा तो उस उत्तेजना का प्रभाव नस−नाड़ियों, माँस−पेशियों, कोशिकाओं पर—प्रत्येक अंग अवयव पर दिखाई पड़ेगा। उनकी गति बढ़ जायगी और बेचैनी अनुभव होगी। इस स्थिति में जीवनी शक्ति का बेतरह क्षरण होने लगता है। क्रम बहुत समय जारी रहे तो शरीर के अंग प्रत्यंग न केवल शिथिल होते जाते हैं वरन् उनमें तरह−तरह की विकृतियाँ भी उत्पन्न होती हैं। ऐसे उत्तेजन ग्रस्त व्यक्ति कई तरह के रोगी से ग्रसित होते चले जाते हैं और कई बार स्थिति इतनी विषम बन जाती है कि उसका समाधान मृत्यु ही आकर करती है।

संसार के मूर्धन्य व्यक्तियों में से अधिकाँश को अल्पायु में ही अपना शरीर छोड़ना पड़ा। इसका प्रधान कारण उनके मस्तिष्क का अनावश्यक रूप से उत्तेजित रहना पाया गया। काम की अधिकता—प्रस्तुत योजनाओं की पूर्ति का ताना−बाना बुनना—उलझनों और समस्याओं को सुलझाने के लिए व्यग्रता, साथियों से असंतोष आदि कितने ही कारण मस्तिष्कीय क्षमता से अधिक दबाव उन पर डालते रहे, फलतः उस तनाव का परिणाम सारे शरीर की अव्यवस्था के रूप में सामने आता रहा। असामयिक मृत्यु का वह एक बड़ा कारण है जिसके कारण सुविकसित समझे जाने वाले सुसम्पन्न एवं मूर्धन्य लोग प्रायः जीवन काल की थोड़ी−सी मंजिल पूरी करके ही पैर पसार देते हैं।

तनाव के चिन्हों में सबसे प्रधान है गहरी निद्रा का अभाव। ऐसे लोगों को देर या कम मात्रा में नींद आती है। जितनी देर आती है वह भी हलकी और छिर–छिरी होती है। झपकियाँ आती रहती हैं और सामने देखते रहते हैं। अधजगी स्थिति बनी रहती है। ऐसी अर्ध निद्रित अवस्था में यदि सारी रात पड़े रहा जाय तो भी उतनी राहत नहीं मिलती जितनी दो चार घण्टे गहरी नींद में सो जाने पर मिलती है। भोजन द्वारा पोषण प्राप्त करना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक यह भी है कि शरीर और मस्तिष्क को श्रम जन्य थकान दूर करने के लिए समुचित विश्राम मिलता रहे। विश्राम का प्रमुख माध्यम है निद्रा। गहरी नींद द्वारा हम थकान मिटाते हैं और नये सिरे से काम कर सकने योग्य स्फूर्ति प्राप्त करते हैं। यदि नींद अधूरी रहेगी तो क्षति पूर्ति का समुचित साधन बन ही न सकेगा और मनुष्य थका−हारा अज्ञान्त बेचैन बना रहेगा।

अनिद्रा और तनाव का घनिष्ट सम्बन्ध है। किन्तु वह मानसिक उत्तेजना के कारण ही उत्पन्न होती है। शारीरिक श्रम से अधिक थका हुआ मनुष्य तो आसानी से गहरी नींद में सो जाता है पर मानसिक उत्तेजनायें निद्रा आने में भारी बाधा उत्पन्न करती हैं। आवेशों से उद्विग्न मनुष्य भीतर ही भीतर बेतरह अज्ञान्त रहते हैं और चैन की नींद सो नहीं पाते। कहना न होगा कि थकान उतारने के लिए और ताजगी प्राप्त करने के लिए निद्रा की अनिवार्य आवश्यकता है। नींद न आने से मानसिक एवं शारीरिक शक्तियों के खर्च की पूर्ति नहीं हो सकती। दूसरे दिन फिर काम करना पड़ता है। पिछले की पूर्ति होने नहीं पाई थी कि नया बोझ और सिर पर आ गया इस प्रकार लगातार थकान का बोझ बढ़ता जाता है और मनुष्य दिन−दिन दिवालिया होता जाता है।

उद्विग्न मनुष्य असहिष्णु, चिढ़−चिढ़ा और असंतुलित रहने लगता है। उसे तनिक−सी प्रतिकूलता पहाड़ जैसी भारी लगती है और घबरा कर ऐसे कार्य करने पर उतारू हो जाता है जिसकी वस्तुतः कुछ भी आवश्यकता नहीं थी। इंग्लैंड बहुत छोटा देश है, पर उसमें हर वर्ष प्रायः 40 हजार मनुष्य आत्महत्या का प्रयास करते हैं जिसमें से 35 हजार असफल रहते हैं और 5 हजार तो जान गँवा ही बैठते हैं।

निरन्तर गम्भीर विषयों पर सोचते रहते अथवा वास्तविक अवास्तविक कठिनाइयों की बढ़ी−चढ़ी कल्पना करके उनके सम्बन्ध में चिन्तित उद्विग्न रहने से मस्तिष्कीय कोशिकाओं में गर्मी अत्यधिक बढ़ती चली जाती है और कभी−कभी वह इतनी अधिक होती है कि रक्त चाप की वृद्धि—अनिद्रा का प्रकोप जैसी बीमारियों के रूप में परिणत होती है। हृदय रोगों का प्रधान कारण ऐसी ही उद्विग्न मनःस्थिति होती है। कभी−कभी तो इसी तनाव के कारण मस्तिष्कीय रक्त नलिकायें तक फट जाती हैं और मनुष्य मृत्यु के मुख में चला जाता है। संसार के कितने ही मूर्धन्य राजनेता इसी प्रकार के रोगों से ग्रसित होकर मृत्यु के मुख में अचानक ही चले गये हैं।

डा. हेन्स सेल्वे के अनुसार मानसिक तनाव में शरीर का रासायनिक संतुलन बिगड़ता है। कई तरह के उपयोगी हारमोन उत्पन्न करने वाली मस्तिष्क स्थित पिच्युएटरी—गुर्दे में स्थित एड्रीनल ग्रन्थियाँ अपरिपक्व और विकृत स्तर के हारमोन फेंकने लगती हैं फलतः शरीर का सारा ढाँचा ही चरमराने लगता है।

संसार के प्रगतिशील देशों में पुरुषों की अपेक्षा महिलायें अधिक दीर्घजीवी होती है। यों शरीर संरचना की दृष्टि से उनमें पुरुष की अपेक्षा कुछ कमी ही पाई जाती है और बच्चों को जन्म देने से लेकर उन्हें दूध पिलाने तक की प्रक्रिया भी ऐसी कष्ट कारक एवं क्षतिपूर्ण है जिससे सामान्य बुद्धि के अनुसार उन्हें कम आयुष्य प्राप्त होनी चाहिये, किन्तु होता उसके ठीक विपरीत है। स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा न केवल अधिक दिन जीवित रहती हैं, वरन् वे बीमार भी कम पड़ती हैं। इन आश्चर्य जनक आँकड़ों पर गम्भीर दृष्टि डालने वाले मनीषियों ने उनका एक ही कारण खोजा है अपेक्षाकृत अधिक चिन्ता मुक्त रहना और हँसने−खेलने का विनोदी जीवनक्रम अपनाना। मर्द जहाँ तरह−तरह की चिन्ताओं और समस्याओं में उलझा हुआ खीजता रहता है, वहाँ नारी शरीर और घर को अधिक सुन्दर बनाने, बच्चों के साथ हँसने−खेलने और विनोदी गतिविधियों में अधिक संलग्न रहती है। मस्तिष्क पर तनाव अधिक रहने से नर जहाँ अल्पजीवी होता है वहाँ निश्चिन्तता और प्रसन्नता को अपना कर नारी अधिक दिन जीवित रह सकने में सफल होती है और अपेक्षाकृत निरोग भी रहती है।

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारतीय नारी अधिक बीमार पड़ती है, जल्दी मरती है। विकसित देशों की अपेक्षा भारत की स्थिति में वह विपरीतता रहने का एक कारण यहाँ की अशिक्षा—पिंजड़े जैसे घरों में कैद रहना, पोषक आहार की कमी और प्रजनन का अधिक भार पड़ना भी है; पर सबसे बड़ा कारण है उनकी सामाजिक स्थिति, जिसमें पग−पग पर उन्हें शोषण का, अपमान, उत्पीड़न, घुटन, असन्तोष एवं खीज का अनुभव होता रहता है। नीरस, निरर्थक, प्रताड़ित, प्रतिबंधित जीवन जीने की उद्विग्नता उनकी जिन्दगी की अवधि कम करने वाला बहुत बड़ा कारण है। यदि उन्हें सन्तोष और प्रसन्नता भरी परिस्थितियाँ विकसित देश की महिलाओं की तरह उपलब्ध हो सकें तो कोई कारण नहीं कि वे भी अपेक्षाकृत अधिक दीर्घ−जीवी और अधिक निरोग न रह सकें।

निराशा एक ऐसी प्रक्रिया है जो खींच−खाँच कर उन्हीं परिस्थितियों के निकट ले आती है जिनसे डरकर निराशा अपनाई गई थी। जितना दबाव निराशा का मस्तिष्क पर जमा किया जाता है उतना ही चिन्तन यदि उन परिस्थितियों का निकट लाने में केन्द्रित किया जाय; जिन्हें हम चाहते हैं तो निश्चित रूप से चमत्कारी प्रतिफल सामने आयेगा। अभीष्ट परिस्थितियाँ जो निराशा के क्षणों में बहुत कठिन दिख पड़ती हैं वे सरल और साध्य बनती चली जायेगी। निराशा जन्य विपत्तियों और आशा के साथ सम्बद्ध उपलब्धियों पर यदि तुलनात्मक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि गर्त में गिरने और ऊँचा उठने के लिए प्रयास करने की तरह वे अन्ततः व्यक्ति को कितनी भिन्न परिस्थितियों तक ले पहुँचती हैं।

एक व्यक्ति उतने ही समय पूर्व को चले और दूसरा उतने ही समय पश्चिम की ओर चलता रहे तो उनके चलने की अपेक्षा दोनों की दूरी दूनी हो जायगी। एक दिन में पूर्व को चलने वाला 10 मील चला। दूसरे ने पश्चिम को 10 मील प्रयाण किया। साँयकाल को वे एक दूसरे से बीस मील दूर होंगे। ठीक इसी प्रकार निराशा ग्रस्त और आशावादी मनुष्यों के बीच विपत्ति—सम्पत्ति का आश्चर्यजनक अन्तर पड़ जाता है। एक उतने ही समय गिरने का प्रयत्न करता रह दूसरे ने वह समय और शक्ति उठने में लगाई तो कुछ ही समय बाद यह पता चल जायगा कि उन दोनों की स्थिति में कितना भारी तुलनात्मक अन्तर उपस्थित हो गया।

मनोविज्ञानी सी.जी. युंग ने में अपनी पुस्तक ‘मार्डन मैन इन सर्च आफ सोल’ में रोग ग्रस्तों की चर्चा करते हुए लिखा है—उनमें से अधिकाँश ऐसे होते हैं जिनने अपने उज्ज्वल भविष्य पर से भरोसा खो दिया है। इन्हें किसी भी चिकित्सा द्वारा स्थायी रूप से अच्छा कर सकना कठिन है; एक के बाद दूसरे मर्ज उन पर हावी होते ही रहते हैं। रोग मुक्त केवल उन्हें ही किया जा सकता है जिन्होंने अपने खोये विश्वास को पुनः वापिस लौटाने में सफलता प्राप्त कर ली।

शारीरिक और मानसिक थकान का, परिश्रम की अधिकता या पौष्टिक भोजन का अभाव उतना बड़ा कारण नहीं जितना कि मानसिक असन्तुलन। मनःशास्त्र के विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उतावली, आवेश, हड़बड़ाहट, चिन्ता एवं भावुकता ये उतार−चढ़ाव मनुष्य का अत्यधिक थका देते हैं। निराशा जन्य खीज, अधूरी आशायें सामर्थ्य से अधिक ऊँची महत्वाकाँक्षायें, परस्पर विरोधी विचारों के अन्तर्द्वन्द, अनिश्चित एवं अनिर्णीत विचार, आत्महीनता, सामने प्रस्तुत काम में अरुचि, असफलता की आशंका, अविश्वास और भयग्रस्तता जैसे कारणों में उलझा हुआ मस्तिष्क इतना अधिक थक जाता है जितना कि पूरे दिन कठोर परिश्रम करने में भी नहीं थका जाता। ऐसे उलझे हुए मनुष्य कुछ काम न होने पर भी सदा थके−थके, खिन्न और खीजे हुए दिखाई पड़ते हैं।

शिकोभी विश्वविद्यालय के परीक्षणों में बताया है कि अप्रिय मनुष्यों से मिलने, अप्रिय काम करने और अप्रिय परिस्थितियों में रहने से मनुष्य सबसे अधिक थकान अनुभव करता है। प्रियजनों के संपर्क में अनुकूल परिस्थितियों में और अनुकूल कार्यों में संलग्न रहकर मनुष्य जितना काम कर सकता है प्रतिकूलताओं के बीच रहकर वह अपेक्षाकृत चौगुनी थकान अनुभव करता है।

थकान और तनाव भरा जीवन भार है। यह एक ऐसा भार है जिसे हम स्वयं ही अपनी मानसिक दुर्बलता एवं अस्त−व्यस्तता के आधार पर बनाते और अपने कन्धों पर लादते हैं। जीवन का—संसार का—और अपनी सीमा का यदि सही संतुलन रखा जा सके तो न केवल तनाव रहित जीवन—हलका फुलका जीवन जिया जा सकता है वरन् इतना प्रसन्न संतुष्ट रहा जा सकता हैं जिसकी शीतल सुरभि का लाभ अन्य समीपवर्ती सम्बन्धित लोग भी उठा सकें।

अंग्रेज लेखक बेकन वृद्धावस्था में बहुत निर्धन हो गये थे। इसका एक कारण उनका चिन्तन में अधिक उलझा रहना और कमाई पर कम ध्यान देना भी था। एक दिन उनकी पत्नी ने कहा—बुढ़ापे में निर्धन होना कितना कष्ट कर है—क्या आपको यह स्थिति अखरती नहीं?

वेकन ने शान्त चित्त से कहा—धन कमाना आसान है। जुट मड़ेगे तो कमा ही लेंगे, पर मैं रखता हूँ जीवन जीना कितना कठिन है। मैं उसी कला को सीखना आरम्भ कर रहा हूँ। उसके अनुसन्धान और प्रयोग मात्र में जब इतना रस मिलता है तो सोचता हूँ उसकी अधिक उपलब्धि में न जाने कितना आनन्द होगा। प्रिये, धन उतना आनन्द दायक नहीं जितनी जीवन का सही मूल्याँकन और उपयोग कर सकने वाले दृष्टिकोण का विकास।

एलबर्ट स्विट्जर एक दिन बड़े तड़के घुटने टेक कर भाव भरी प्रार्थना कर रहे थे, ऐ मेरी दुनिया के स्वामी, आपने जीवन को जानने की जिज्ञासा के साथ मुझे जोड़ ही दिया तो अब जीवन को क्षीण मत होने देना। जीवन रस का प्याला इतना मधुर है कि मुझसे छोड़ा न जा सकेगा। यह हट गया तो फिर मेरे लिए जीवित रह सकना असह्य हो जायगा।

तनाव और थकान भरा जीवन जियें, अथवा सरस सन्तोष को अपनाकर पुष्प की तरह खिलते रहें, यह चुनाव करना अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है; परिस्थितियों पर आधारित नहीं जैसा कि आमतौर से समझा जाता है।

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