
ईश्वर की समीपता और दूरी की परख
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ईश्वर हमारे सबसे अधिक समीप है। संसार का कोई पदार्थ या व्यक्ति समीप हो सकता है उसकी अपेक्षा ईश्वर की निकटता और भी अधिक है। वह हमारी साँस के साथ प्रवेश करता है और समस्त अंग−अवयवों में प्राण वायु के रूप में जीवन का अनुदान प्रतिक्षण प्रदान करता है; यदि इसमें क्षण भर का भी व्यवधान उत्पन्न हो जाय तो मरण निश्चित है।
हृदय की धड़कन उसी की रासलीला है। सम्भावित सोलह हजार नाड़ियों के साथ वही कृष्ण रमण करता है। मांस पेशियों के आकुँचन−प्रकुँचन में गुदगुदी उसी के द्वारा उत्पन्न की जाती है। अन्तःकरण में उसी का गीता प्रवचन निरन्तर चलता रहता है। ज्ञान−विज्ञान की विशालकाय पाठशाला उसी ने हमारे मस्तिष्क में चला रखी है। उसका अध्यापन ऐसा है जो कभी बन्द ही नहीं होता।
जीव कोषों के भीतर चलने वाली गतिविधियों का सूक्ष्म उपकरणों से निरीक्षण किया जाय तो पता लगेगा कि समस्त ब्रह्माण्ड के विशाल परिकर में जो हलचलें हो रहीं हैं वे सभी बीज रूप से इन नन्हीं−सी कोशिकाओं में गतिशील हैं। “जो ब्रह्माण्ड में सो पिण्ड में” वाली उक्ति अब किंवदंती नहीं रही अब उसकी पुष्टि एक सुनिश्चित सचाई के रूप में हो चुकी है। मनुष्य का व्यक्तित्व वस्तुतः विराट् ब्रह्म का ही एक संक्षिप्त संस्करण है। पर वह मनुष्य का शरीर धारण करके अवतार लेता रहता है यह सत्य है इसी प्रकार यह भी एक स्वतः सिद्ध सचाई है कि मनुष्य अपने चरम विकास की स्थिति में पहुँचकर परमेश्वर बन सकता है। मानवी संरचना कुछ है ही ऐसी अद्भुत कि उसमें ईश्वर की समग्र सत्ता की अनुभूति कर सकना सर्वथा सम्भव है।
इतना सब होते हुए भी हम ईश्वर से अरबों−खरबों मील दूर हैं। उसकी समीपता की अनुभूति के साथ−साथ जिस परम सन्तोष और परम आनन्द का अनुभव होना चाहिए वह कभी हुआ ही नहीं। ईश्वर की समीपता को जीवन मुक्ति भी कहते हैं। उस स्थिति को सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य और सामुख्य इन चार रूपों में वर्णन किया गया है। ईश्वर के लोक में रहना—उसके समीप रहना—उस जैसा रूप होना—उसमें समाविष्ट हो जाना यह चारों ही अवस्थाएँ उस स्थिति की ओर संकेत करती हैं जिसमें मनुष्य की भीतरी चेतना और बाहरी क्रिया उतनी उत्कृष्ट बन जाती है—जितनी कि ईश्वर की होती है।
अपनी चेतना—सत्ता को ईश्वरीय चेतना में डुला देने उसके सदृश बना देने में किसे कितनी सफलता मिली इसका परिचय उसके चिन्तन और कर्तृत्व का स्तर परख कर सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। कौन भव−बन्धनों में जकड़ा पड़ा है और किसने जीवन मुक्ति प्राप्त करली इसकी परीक्षा एक ही कसौटी पर हो सकती है कि अहंता का क्षेत्र कितना सीमित अथवा विस्तृत है। जो निकृष्ट स्तर की बातें सोचता है जिसकी अभिलाषाएँ पाशविक हैं उसे भव−बन्धन में आबद्ध नर−पशु कहा जायगा किन्तु जिसने अपनी चेतना को परिष्कृत एवं विस्तृत बनाकर सबमें अपने को संव्याप्त समझा उसने देव योनि प्राप्त करली ऐसा समझा जायगा।
आँखों से देव दर्शन के लिए की जाने वाली तीर्थयात्रा और सूक्ष्म नेत्रों से प्रभु दर्शन के लिए होने वाली ध्यान साधना का अपना स्थान है और अपना महत्व। इस सीड़ियों को पार करते हुए हमें पहुँचना उसी स्थान तक पड़ेगा जहाँ ईश्वर की समीपता मिलती है—उसी के सदृश उदार अन्तःकरण और पवित्र व्यक्तित्व का आलोक जगमगाता है। हम तब तक ईश्वर से असंख्य योजन दूर रहेंगे जब तक अपनी चेतना को ईश्वरीय चेतना के सदृश उदात्त बनाने की आवश्यकता अनुभव नहीं करते। समीपता तो इसी तथ्य पर निर्भर है कि हम अपनी सत्ता को ईश्वर के समान ही सहृदय और सचेतन बनाने में तत्परता पूर्वक प्रयत्न रत रह रहे हों।