• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • समुद्र मंथन के तीन दिव्य रत्न
    • केवल औचित्य का मार्ग ही अपनावें
    • जीवन विकास का चक्र क्रम
    • आत्मबल (kahani)
    • ईश्वर की समीपता और दूरी की परख
    • कोशाओं की अंतरंग शक्ति का परिष्कार
    • कन्फ्यूशियस का अंतिम सन्देश (kahani)
    • जीवन लक्ष्य की प्राप्ति दूरदर्शी दृष्टिकोण से
    • मेरे समर्पण को स्वीकारो (kahani)
    • मृत्यु और जीवन का अन्तर पुनर्जीवन का प्रश्न
    • प्रेम की प्रौढ़ता (kahani)
    • अन्तरात्मा को तृप्ति देने वाली आनन्दानुभूति
    • बादशाह हसन (kahani)
    • अन्धकार का निराकरण आदर्शवादी व्यक्तित्व ही करेंगे
    • क्या प्रेतात्माओं का अस्तित्व काल्पनिक है
    • सौ हाथों से कमाकर हजार हाथों से बाँटना ही तो जीवन है (kahani)
    • मानसिक उद्वेग जीवन विनाश के प्रमुख कारण
    • व्यक्ति अपने में अपूर्ण है (kahani)
    • प्रतिभा का प्रयोग सर्वनाश के लिए
    • पलाश पुष्प (kahani)
    • बढ़ती हुई जनसंख्या के संकट
    • अतीत की खोई गरिमा हम पुनः प्राप्त करें
    • Quotation
    • असफलता को अभिशाप न समझें
    • धर्मयुद्ध में लड़ने वाले सच्चे शूरवीर
    • जल के उपयोग में कंजूसी न करें
    • Quotation
    • डबल रोटी—डबल खोटी
    • श्रम−साधना के सत्परिणाम सुनिश्चित हैं
    • अपनों से अपनी बात
    • VigyapanSuchana
    • शान्ति−कुञ्ज हरिद्वार की प्रशिक्षण सत्र शृंखला
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • समुद्र मंथन के तीन दिव्य रत्न
    • केवल औचित्य का मार्ग ही अपनावें
    • जीवन विकास का चक्र क्रम
    • आत्मबल (kahani)
    • ईश्वर की समीपता और दूरी की परख
    • कोशाओं की अंतरंग शक्ति का परिष्कार
    • कन्फ्यूशियस का अंतिम सन्देश (kahani)
    • जीवन लक्ष्य की प्राप्ति दूरदर्शी दृष्टिकोण से
    • मेरे समर्पण को स्वीकारो (kahani)
    • मृत्यु और जीवन का अन्तर पुनर्जीवन का प्रश्न
    • प्रेम की प्रौढ़ता (kahani)
    • अन्तरात्मा को तृप्ति देने वाली आनन्दानुभूति
    • बादशाह हसन (kahani)
    • अन्धकार का निराकरण आदर्शवादी व्यक्तित्व ही करेंगे
    • क्या प्रेतात्माओं का अस्तित्व काल्पनिक है
    • सौ हाथों से कमाकर हजार हाथों से बाँटना ही तो जीवन है (kahani)
    • मानसिक उद्वेग जीवन विनाश के प्रमुख कारण
    • व्यक्ति अपने में अपूर्ण है (kahani)
    • प्रतिभा का प्रयोग सर्वनाश के लिए
    • पलाश पुष्प (kahani)
    • बढ़ती हुई जनसंख्या के संकट
    • अतीत की खोई गरिमा हम पुनः प्राप्त करें
    • Quotation
    • असफलता को अभिशाप न समझें
    • धर्मयुद्ध में लड़ने वाले सच्चे शूरवीर
    • जल के उपयोग में कंजूसी न करें
    • Quotation
    • डबल रोटी—डबल खोटी
    • श्रम−साधना के सत्परिणाम सुनिश्चित हैं
    • अपनों से अपनी बात
    • VigyapanSuchana
    • शान्ति−कुञ्ज हरिद्वार की प्रशिक्षण सत्र शृंखला
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1974 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


अन्तरात्मा को तृप्ति देने वाली आनन्दानुभूति

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 11 13 Last
मनुष्य को पशुओं से भिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ मिली हैं। सोचने, बोलने, सीखने जैसी चिन्तनात्मक विशेषताओं ने उसे सुख−साधनों का उपार्जन एवं उपभोग करने योग्य बनाया है। ईश्वर प्रदत्त ऐसी ही विशेषताओं में एक और भी है वह है−आनन्दानुभूति। यह मस्तिष्कीय क्षेत्र में आने की चीज है। अन्तःकरण के विकास के साथ साथ यह आकाँक्षा जाग्रत होती है कि इन्द्रिय जन्म स्वल्प सुखों तक सीमित न रहकर उस आनन्द का रसास्वादन किया जाय, जिसे मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया है।

आनन्द को ईश्वर का उच्चतम अनुदान माना गया है। अन्तरात्मा का विकास कर सकने वाले व्यक्ति इस अनुदान का मूल्याँकन कर पाते हैं—उसकी गरिमा एवं आवश्यकता समझ पाते हैं। उन्हीं के प्रयत्न भी इस दिशा में होते हैं कि आनन्ददायक परिस्थितियों को खोजा जाय और उनसे लाभान्वित होने का प्रयत्न किया जाय।

दूसरों की सेवा सहायता करने को आतुर अन्तःकरण सदा उदार एवं उपयोगी ऐसे काम करता है, जिनसे दुःखों से छुटकारा मिले और सुखों की अभिवृद्धि होती रहे। यह चेष्टा जितनी प्रखर होती है उतने ही अधिक लोकोपयोगी सत्कर्म बन पड़ते हैं और उसी अनुपात से मनुष्य की अन्तरात्मा संतुष्ट, पुलकित एवं आनन्दित रहती है।

इन्द्रिय भोग किसी को कितना ही अधिक प्राप्त क्यों न हो, सुख सुविधा के साधन किसी के पास कितने ही प्रचुर क्यों न हों—सफलताओं का श्रेय, सम्मान किसी को कितना ही अधिक क्यों न मिला हो—अन्तरात्मा की तृप्ति उतने भर से सम्भव न हो सकेगी। भीतर ही भीतर असंतोष की एक आग सुलगती रहेगी और लगता रहेगा कि कुछ ऐसी आवश्यक वस्तु थी जो मिलनी चाहिए थी पर मिल न सकी।

दूसरों के हित साधन में निरत रहकर पीड़ितों और पिछड़े हुओं की जो सेवा, सहायता बन पड़ती है, उससे उन्हें राहत मिलती है। सबसे बड़ा लाभ स्नेह और सहानुभूति का है। पीड़ा सहकर भी लोग उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। कई की अन्तःचेतना तो इसके लिए भी तैयार रहती है कि यदि उन्हें स्नेह, सद्भाव पीड़ित रहने का कारण मिलता है तो उन्हें दुःख−दर्द की परिस्थितियों में पड़ा रहना भी स्वीकार है। वस्तुतः मनुष्य के लिए दूसरों द्वारा प्राप्त होने वाले स्नेह सौजन्य का असाधारण महत्व है। इस आहार को पाकर अन्तरात्मा के मर्मस्थल में एक विशेष प्रकार की पुलकन, सिहरन उत्पन्न होती है। कष्ट पीड़ित के लिए वस्तुतः यह सहानुभूति ही अधिक उपयोगी चिकित्सा का काम करती है। कष्ट उतना असह्य नहीं होता, जितनी सहानुभूति रहित उपेक्षा ग्रस्त स्थिति। सेवा बुद्धि से की गई निस्वार्थ सहायता अपने साथ जो स्नेहसिक्त सहानुभूति जोड़े रहती है उससे पीड़ित को गहरी शान्ति मिलती है। कई बार तो यह स्नेह अनुदान इतना सुखद होता है कि आगत संकट को सौभाग्य मान लिया जाता है, जिसने कि सहानुभूति का आनन्द लाभ ले सकना सम्भव बना दिया।

समस्याओं का आत्यांतिक हल मनुष्य के अपने पुरुषार्थ से ही सम्भव हो सकता है। जब तक संकट से जूझने का साहस उत्पन्न न होगा तब तक एक के बाद एक कष्ट आते रहने का सिलसिला चलता ही रहेगा। दूसरों की सहायता से सामयिक राहत मिल सकती है। टूटी हुई हिम्मत की जंजीर जुड़ सकती है—निराशा में आशा का उदय हो सकता है और नये सिरे से साहस संजोने और प्रयत्न करने का कदम बढ़ सकता है। ऐसे ही कुछ लाभ हैं, जो दूसरों से सेवा सहायता प्राप्त करने में किसी पीड़ित को मिल सकते हैं। पूरी तरह से किसी को कष्ट मुक्त करने की बात तो किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा बन ही नहीं पड़ेगी। इसमें सफलता तो अपने ही प्रबल पुरुषार्थ द्वारा मिल सकेगी। इतना सब होते हुए भी सेवा सहायता के साथ जुड़ी रहने की स्नेह सिक्त सहानुभूति का अपना महत्व है। और वह इतना बढ़ा−चढ़ा है कि प्रत्यक्ष लाभ की तुलना में यह भावनात्मक अप्रत्यक्ष लाभ कहीं अधिक बहुमूल्य सिद्ध होता है। हर पीड़ित को इस शाँतिदायक मरहम की सदा ही अपेक्षा रहती है।

पिछड़े हुए लोगों की सहायता और पीड़ितों की सेवा करने की उदारता जिस अंतःकरण में उदय होती है वह उस दिव्य आनन्द से भर जाता है, जिसे पाने के लिए मानवी अन्तरात्मा निरन्तर आकुल−व्याकुल बनी रहती है। सेवा वृत्ति अपनाने वाले को उसकी अपेक्षा कहीं अधिक आनन्द और सन्तोष मिलता है, जितना कि सहायता प्राप्त करने वाले को मिला था। पीड़ित जितना लाभ सहायता करने वाले से उठाता है उससे हजार गुना लाभ उसे वापिस करता है, जिसने सहृदय सज्जनता का परिचय देकर अपनी सहानुभूति का परिचय दिया था। वह सहायता कितनी बड़ी थी और उससे कितनी राहत मिली, यह प्रश्न गौण है। सम्वेदना मिलने पर सहज ही पीड़ित का भावनात्मक बोझा आधा रह जाता है और फिर वह अपनी कठिनाई का सामना कर सकने योग्य साहस स्वयं जुटाने लगता है।

सुख साधनों के उपार्जन में जितनी लगन और जितनी चेष्टा रहती है उसकी तुलना में यदि सेवा, साधना का थोड़ी मात्रा में भी चरितार्थ करने लगे तो प्रतीत होगा कि एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति का द्वार खुल गया। अन्तःकरण को सन्तोष दे सकने योग्य साधन एक ही है—सहानुभूति, स्नेह और सहायता के लिए आतुर मनुष्यों की सहायता करना सम्भव है धन के अभाव में कष्ट पीड़ितों को प्रत्यक्ष रूप से कोई बहुत बड़ी साधन सामग्री प्रस्तुत कर सकना सम्भव न हो पर इससे क्या—सहानुभूति अपने आप में एक बहुत बढ़ी−चढ़ी सुख सम्पदा है। उतने भर से पीड़ा और पिछड़ेपन से छुटकारा पाने के लिये कोई व्यक्ति स्वयं तन कर खड़ा हो सकने में समर्थ हो सकता है।

पीड़ितों में से अधिकाँश ऐसे होते हैं जिसका साहस टूट गया—मन बैठ गया और आशा का प्रकाश बुझ गया यदि उस सारे बिखराव को यथा−क्रम व्यवस्थित किया जा सके तो संकट ग्रस्तता के चक्रव्यूह से निकल सकना उनके लिए सम्भव हो सकता है। हर पिछड़ा व्यक्ति साधनहीन नहीं होता। उसकी आन्तरिक क्षमता, परिस्थिति एवं साधन सामग्री इतनी होती है कि उन्हीं के सहारे काम चलाऊ स्थिति तक पहुँचा जा सकता है और इसके उपरान्त क्रमशः आगे बढ़ा जा सकता है। स्नेह सिक्त सहानुभूति और उसके साथ जुड़ी हुई प्रतीकात्मक छोटी−सी प्रत्यक्ष सहायता संकट ग्रस्त की आँखों में चमक उत्पन्न कर सकती है। कहना न होगा कि यह भीतर की चमक ही डूबते को उबारने में सबसे बड़ी भूमिका प्रस्तुत करती है।

भौतिक जीवन की सफलता का मूल्याँकन बढ़े−चढ़े वैभव के आधार पर किया जाता है। जो जितना अधिक धनवान, बलवान, विद्वान है—जिसका वर्चस्व और प्रभाव जितना बढ़ा−चढ़ा है, उसे उतना ही अधिक सौभाग्यवान और सुखी, सफल माना जाता है। आन्तरिक जीवन में—अध्यात्म क्षेत्र में समुन्नत एवं समृद्ध वह है जिसके पास स्नेह संपदा की समुचित मात्रा मौजूद है। आत्मीयता का विकास विस्तार ही किसी के आध्यात्मिक जीवन की गरिमा का प्रमाण माना जाता है। जिसकी आकाँक्षायें अपने शरीर अथवा परिवार तक ही सीमित हैं उन्हें आत्मिक दृष्टि से उतना ही छोटा बालक अथवा उपहासास्पद बौना माना जायगा।

जिसे अपना ही पेट पालने की हविस है—जो अपनी औलाद को ही सुसम्पन्न बनाने में निरत है उसे संकीर्ण स्वार्थ परता के भव बंधनों से जकड़ा हुआ दयनीय प्राणी कहा जायगा। अधिक रुचिकर भोजन की पर्याप्त मात्रा पाने और अधिकाधिक सन्तान बढ़ाने के क्षेत्र में तो शूकर ही मनुष्य से अधिक भाग्यवान है। उसी क्षेत्र में जिसकी प्रगति सीमाबद्ध रह गई, उसे महानता की कसौटी पर खरा नहीं कहा जा सकता। मानवी गरिमा से गये−गुजरे स्तर की सफलता पर किसी को गर्व होता हो तो बना रहे पर उसमें सन्तोष या आनन्द अनुभव कर सकने योग्य कोई भी तत्व है नहीं।

आध्यात्मिक प्रगति का दूसरा नाम है आत्मीयता का विस्तार। अपने लिए जैसी सुखद स्थिति पाने की आकाँक्षा रहती है, वैसी ही यदि संकट ग्रस्तों को उबारने और पिछड़े हुओं को उठाने के बारे में उठी रहे तो उस व्यक्ति को आत्मोन्नति की दृष्टि से उच्च स्तर पर पहुँचा हुआ माना जा सकता है। तत्व दर्शन में आत्मोन्नति, आत्मकल्याण, आत्म साक्षात्कार, आत्मोद्धार जैसे अनेक आकर्षक शब्दों का जहाँ−तहाँ प्रयोग होता रहता है। इन शब्दों का एक ही तात्पर्य है—आत्मीयता का विस्तार। अपने को छोटे दायरे में कैद न रखकर यदि हम अधिकाधिक व्यापक क्षेत्र में अपनी ममता फैला दें तो विश्व परिवार की—वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना विकसित होगी और घर की चहार दीवारी में रहने वाले स्वजन परिजनों की तरह अन्यान्य लोग भी अपने ही घनिष्ट सम्बन्धी प्रतीत होने लगेगी जैसी कि अपनों के लिए स्वभावतः होती है। जहाँ ममता का क्षेत्र विस्तार होगा वहाँ क्रिया पद्धति से सेवा साधना को सहज ही बढ़ा−चढ़ा स्थान मिलने लगेगा। ऐसा सद्भाव सम्पन्न व्यक्ति सेवा धर्म का अनुयायी हुए बिना रह ही नहीं सकता।

आवश्यकता नहीं कि सेवा प्रदान करने के लिए अन्धे कोढ़ी ही ढूँढ़ते फिरें। पिछड़ापन अपने इर्द−गिर्द ही यहाँ तक कि घर, पड़ौस में ही प्रचुर परिणाम में मिल जायगा। बौद्धिक पिछड़ापन ही प्रकारान्तर से पतन, पीड़ा और अभाव, दारिद्रय बनकर सामने आता है। इस बौद्धिक पिछड़ेपन से ग्रसित होकर ही लोगों को विविध विधि संकट से त्रस्त होना पड़ता है। इसी जड़ पर कुल्हाड़ी चलाई जा सके तो पीड़ा ग्रस्त संसार की चिरस्थायी सेवा की जा सकती है। यों तात्कालिक एवं भौतिक सहायता का भी अपना महत्व है। साधन सामग्री जुटाना सम्भव हो तो वह भी करना चाहिए, अन्यथा प्रतीक सेवा के रूप में तुच्छ उपहार भी दिये जा सकते हैं। इस दृष्टि से पानी का एक लोटा ले पहुँचना भी सहानुभूति का प्रदर्शन कर सकता है और पीड़ित को सरल संवेदना से लाभान्वित कर सकता है। शारीरिक श्रम से—थोड़ा−सा समय दान देकर हाथ बटाने से भी बहुत काम चलता है।

मधुर शब्दों में सहानुभूति व्यक्त करना—अपने को मित्र के रूप में प्रस्तुत करना−उज्ज्वल भविष्य की आशा दिलाना—कठिनाई से उबारने का मार्ग सुझाना जैसे सेवा कार्य वाणी से भी हो सकते हैं, पर उनका लाभ तभी होगा जब पीड़ित के अहं को चोट पहुँचाने वाली कटुक भर्त्सना का प्रयोग न किया जाय। स्नेह सिक्त परामर्श को ही स्वीकार किया जा सकता है। भर्त्सना, निन्दा, घृणा को मिला कर बोले जाने वाले वचन भले ही पूरी तरह सही हों पर अहं को चोट पहुँचाने वाले होने के कारण वे अस्वीकृत ही कर दिए जायेंगे।

सेवा और सहानुभूति की संवेदनाएँ अन्तःकरण में संजोये रहकर हम जब सेवा साधना में प्रवृत्त होने की चेष्टा करते हैं तो सहज ही उस आनन्द की अनुभूति होने लगती है जिसे पाकर ही मानव जीवन सफल होता है।

First 11 13 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • समुद्र मंथन के तीन दिव्य रत्न
  • केवल औचित्य का मार्ग ही अपनावें
  • जीवन विकास का चक्र क्रम
  • आत्मबल (kahani)
  • ईश्वर की समीपता और दूरी की परख
  • कोशाओं की अंतरंग शक्ति का परिष्कार
  • कन्फ्यूशियस का अंतिम सन्देश (kahani)
  • जीवन लक्ष्य की प्राप्ति दूरदर्शी दृष्टिकोण से
  • मेरे समर्पण को स्वीकारो (kahani)
  • मृत्यु और जीवन का अन्तर पुनर्जीवन का प्रश्न
  • प्रेम की प्रौढ़ता (kahani)
  • अन्तरात्मा को तृप्ति देने वाली आनन्दानुभूति
  • बादशाह हसन (kahani)
  • अन्धकार का निराकरण आदर्शवादी व्यक्तित्व ही करेंगे
  • क्या प्रेतात्माओं का अस्तित्व काल्पनिक है
  • सौ हाथों से कमाकर हजार हाथों से बाँटना ही तो जीवन है (kahani)
  • मानसिक उद्वेग जीवन विनाश के प्रमुख कारण
  • व्यक्ति अपने में अपूर्ण है (kahani)
  • प्रतिभा का प्रयोग सर्वनाश के लिए
  • पलाश पुष्प (kahani)
  • बढ़ती हुई जनसंख्या के संकट
  • अतीत की खोई गरिमा हम पुनः प्राप्त करें
  • Quotation
  • असफलता को अभिशाप न समझें
  • धर्मयुद्ध में लड़ने वाले सच्चे शूरवीर
  • जल के उपयोग में कंजूसी न करें
  • Quotation
  • डबल रोटी—डबल खोटी
  • श्रम−साधना के सत्परिणाम सुनिश्चित हैं
  • अपनों से अपनी बात
  • VigyapanSuchana
  • शान्ति−कुञ्ज हरिद्वार की प्रशिक्षण सत्र शृंखला
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj