
जीवन विकास का चक्र क्रम
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रेखागणित के दो महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं (1)रेखा (2)चक्र। रेखा उसे कहते हैं जो एक स्थान से आरम्भ होकर दूसरे स्थान पर समाप्त होती है। उदाहरण के लिए लाठी। यह एक रेखा है उसका आदि और अन्त दो सिरों के रूप में देखा जा सकता है चक्र वह है जिसका कहीं आदि अन्त नहीं। गाड़ी का पहिया या गेंद उसका उदाहरण है। उसका आदि कहाँ है और अन्त कहाँ, यह बताया नहीं जा सकता। यदि बताया जायगा तो जहाँ आदि होगा वहीं उसके साथ बिलकुल सटा हुआ—सर्वथा अविछिन्न अन्त भी जुड़ा रहेगा।
विकासवाद का प्रतिपादन जीवन को ‘रेखा’ की तरह आदि अन्त युक्त सिद्ध करने का है। ‘अमीबा’ सरीखे एक कोशीय जीवों के रूप में प्राणी का आरम्भ हुआ और वह मछली, मेंढक, सरीसृप, शूकर, बानर आदि के रूप में विकसित होते हुए मनुष्य बना। यदि यह सही माना जाय तो भावी विकास की वैसी ही विशालकाय कल्पना करनी पड़ेगी। अमीबा और मनुष्य की शारीरिक, मानसिक स्थिति में जितना अन्तर है कम से कम उतना अन्तर तो आज के मनुष्य और भविष्य के मनुष्य में रहेगा ही। वह विशालकाय शरीर वाला और असीम सम्भावनाओं युक्त मन वाला मनुष्य आखिर कितने बड़े आकार−प्रकार का होगा यह सोचना बहुत कठिन मालूम पड़ता है। सृष्टि के अन्त तक वह मनुष्य प्राणी कितना विस्तृत हो जायगा, यह कल्पना करते−करते सिर चकराने लगता है। फिर अन्य प्राणियों का भी तो उनकी जाति परिधि में विकास होना है। तब सृष्टि के अन्त तक आज के अनेकानेक जीवधारी कितने बड़े हो जायेंगे। उनकी स्थिति कितनी विस्तृत, कितनी समुन्नत हो जायगी। यह एक ऐसी विचित्र सम्भावना है जो गले नहीं उतरती। जिनने भूतकाल से लेकर वर्तमान तक की कल्पना कर ली उन्हें कृपापूर्वक यह क्रम आगे भी जारी रखना चाहिए था और यह भी बताना चाहिए था कि इस विकास क्रम का भविष्य कहाँ है उसका दूसरा सिरा कहाँ जाकर पूर्ण होगा।
हमारे पूर्वज बन्दर थे। बन्दर ने अपनी अनावश्यक पूँछ उखाड़ फेंकी। हमें भविष्य में अपने वर्तमान अवयवों में से क्या−क्या उखाड़ फेंकने होंगे यह बताया जा सका होता तो अधिक अच्छा होता। नाक, कान तो बिल्कुल ही बेकार है। दो आँखों की जरूरत भी एक से ही पूरी हो सकती है। हाथी जब एक सूंड से अपना हाथ का काम चला सकता है तो मनुष्य ही दो हाथों का दूना भार क्यों लादे फिरे? पैर इतने लम्बे होने से बहुत बेतुके हैं। छोटे गाड़ी के पहियों की तरह वे हों तो छोटी चारपाई, छोटा बिस्तर, छोटा मकान बनाकर काम चलाया जा सकेगा। साँप की तरह चिकना शरीर हो तो पेट के बल रेंगना भी क्या बुरा है? पक्षी की तरह उड़ने में आदमी को सुविधा रहेगी। जब पानी में से निकल कर थल पर चलने में विकासवादी मनुष्य सफल हो गया तो उसे थलचर से नभचर बनने में क्यों सुविधा अनुभव न होगी? यदि सुविधा−असुविधा की दृष्टि से जीव अनावश्यक अंगों को उखाड़ कर फेंक सकता है और दूसरे उपयोगी अवयव उठा सकता है तो वह सिलसिला पूँछ उखाड़ फेंकने तक ही क्यों समाप्त होना चाहिए। वर्तमान शरीर में जो असुविधाजनक है उसे हटाने और सुविधाजनक उत्पादन का प्रयास क्यों नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा सम्भव हो तो निश्चय ही अब की अपेक्षा मनुष्य की काया में—आकृति−प्रकृति में—जमीन−आसमान जितना परिवर्तन करने की गुंजाइश प्रतीत होगी। तब उस स्वेच्छया निर्माण से मनुष्य निश्चित रूप से इस कलेवर को सर्वथा बदल डालेगा, जिसमें वह आज जकड़ा हुआ है।
जीवन सत्ता के बारे में हमारा दार्शनिक प्रतिपादन इन विकासवादियों से सर्वथा भिन्न है। तत्व−दर्शन ने जीवन को एक चक्र माना है जिसका न आदि है न अन्त। वह गोल घेरे की तरह है जिसका यदि आदि अन्त मानना हो तो दोनों को एक दूसरे के साथ बिलकुल सटा हुआ ही कहना पड़ेगा।
अण्डे में से पक्षी उत्पन्न हुआ या पक्षी से अण्डा जन्मा? बीज से वृक्ष उत्पन्न हुआ या वृक्ष में बीज उगाया? नर से नारी उत्पन्न हुई या नारी ने नर का जना? मरण के बाद जन्म हुआ या जन्म के उपरान्त मृत्यु आई? ऐसे प्रश्नों का उत्तर चक्र स्थिति का प्रतिपादन करके ही दिशा जा सकता है। रेखा स्थिति की मान्यता के आधार पर इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता। प्राणी चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता उत्थान−पतन के चक्र में घूमता है। ज्वार−भाटे की तरह उसका उत्कर्ष—अपकर्ष होता है। सूर्य की तरह उसका उदय अस्त संक्रमण चलता है। पृथ्वी की तरह ऋतु−चक्र से जीवन को गुजरना पड़ता है। यही उत्तर युक्ति संगत प्रतीत होता है। भारतीय तत्व दर्शन इसी जीवन चक्र का समर्थन प्रतिपादन करता रहा है।
जन्म और मरण—किशोरावस्था और बुढ़ापा—इसी जीवन में इस ‘चक्र’ क्रम की एक झाँकी हम देखते हैं। शरीरों की दृष्टि से यह क्रम अन्य योनियों में भी चलता रह सकता है। अपराध करने पर जेल में बन्द कर दिये जाने—कर्मचारी के ड्यूटी पूरी न करने पर एक दर्जा नीचे उतार दिये जाने की बात स्पष्ट है। जिस योनि में जो कर्त्तव्य निर्धारित किये गये हैं उन्हें पालन न करने पर सुधार शिक्षण अथवा दण्ड के लिए नीचे की योनियों में लौटाना पड़ता हो तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं। जो गलत सीखा है उसे भुलाना भी आवश्यक है अन्यथा वह गलती भविष्य में लगातार होती रहेगी। बुरी आदतों को छुड़ाने के लिए एकाकी जीवनयापन करने की व्यवस्था कठोर तो है, पर सुधार की दृष्टि से उसकी उपयोगिता भी है।
मनुष्य को यदि अपनी अवाँछनीय दुष्प्रवृत्तियाँ—बुरी आदतें भूलने के लिए नीची समझी जाने वाली योनियों में जाना पड़ता हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। बेकार हुए लोहे को भट्टी में डालकर गलाया जाता है, तब वह नया जीवन फिर आरम्भ करता है। इस प्रकार सड़े−गले जीवन की आदत पड़ जाने पर यदि मनुष्य का छोटी योनियों में तपने, गलने के लिए वापिस लौटना पड़ता हो तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। मनुष्य जीवन में सही और गलत दिशा पकड़ने वालों को दंड और पुरस्कार भोगने पड़ सकते हैं। लुहार अपने उपकरणों और कुम्हार अपने बर्तनों को इसी प्रकार तो ठोक पीटकर गला−जलाकर काम के योग्य बना पाता है। वैद्य की औषधियों को भी तो घोंटने−पीसने, जलाने−उबालने की चित्र−विचित्र प्रक्रिया में होकर गुजरना पड़ता है। जीवन चक्र में इस प्रकार के उतार चढ़ाव आ सकते हैं। मनुष्य को सदा मनुष्य ही रहना चाहिए—उसे नीचे की योनियों में नहीं लौटना पड़ता—चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने की बात गलत है ऐसा नहीं कहा जाना चाहिए। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि मनुष्य स्तर तक पहुँचने वाले को कुछ संयम के लिए सुधार अथवा दण्ड स्वरूप ही नीचे की योनियों में जाना पड़ता है पीछे वह प्रयोजन पूरा होने पर जल्दी ही लौटकर अपनी जगह वापिस आ जाता है। दुष्कर्मों का दण्ड यदि नरक हो सकता है तो उसी नारकीय जीवन में कीट−पतंगों की, पशु−पक्षियों की अभावग्रस्त एवं कष्टसाध्य योनियों को सम्मिलित कर सकते हैं। विचारशील स्तर तक पहुँचे मनुष्य को जब इन योनियों में लौटना पड़ता होगा तो उसे सामान्य क्रम से विकसित होने वाले प्राणियों की अपेक्षा निश्चय ही अधिक कष्ट अनुभव होता होगा और उसकी चेतना को पश्चाताप करने का सुधार का नये सिरे से उचित मार्ग पर चलने का प्रकाश मिलता होगा।
जीवन−चक्र की यथार्थता इस दृष्टि से भी है कि वह पूर्ण से उत्पन्न हुआ और फिर एक यात्रा पूरी करते हुए पूर्ण में में ही जा मिलता है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर अकेला था, क्रीड़ा−कल्लोल क रसास्वादन करने के लिए उसने अपने को अपने खण्डों में बाँटा, अनेकता अपनाई और सृष्टि संरचना बनकर खड़ी हो गई। यह खेल अन्त में समाप्त ही होता है। महाप्रलय में मकड़ी द्वारा अपना जाला समेट लिए जाने की तरह फिर वह अकेला ही रह जाता है। जीवन−क्रम भी इसी प्रकार है विभिन्न योनियों के खट्टे−मीठे अनुभव प्राप्त करता हुआ प्रत्येक काय−कलेवर की दी गई अपने−अपने ढंग की विशेषताओं का आनन्द लेता हुआ वह लौटकर पुनः उसी केन्द्र में जा मुड़ता है जहाँ से उत्पन्न हुआ था।
विचार या शब्द की रेडियो तरंगें एक बहुत बड़े घेरे में भ्रमण करती हुई उसी केन्द्र पर लौट आती हैं जहाँ से वे आरम्भ हुई थीं। पृथ्वी पर एक सीधी दिशा में चलें तो अन्ततः वहीं आ पहुँचेंगे जहाँ से चले थे। पृथ्वी अपनी धुरी पर कक्षा पर घूमती है और लौट−लौटकर वापिस आती हैं। अन्य ग्रह−नक्षत्र भी इसी प्रकार परिक्रमा करते है। जीवन−चक्र भी इसी परिक्रमा परिधि में घूमता है। उसका क्रम रेखावत् नहीं जैसा कि डार्विन आदि विकासवादी बताते हैं। जीवन विकास चक्र गति से चल रहा है। उसी में उसकी उपयोगिता भी है और सुखद सम्भावना भी।