
अन्धकार का निराकरण आदर्शवादी व्यक्तित्व ही करेंगे
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मस्तिष्कीय अज्ञान को लेखनी और वाणी द्वारा आवश्यक जानकारियाँ प्रस्तुत करके दूर किया जा सकता है। किन्तु हृदय गत अन्धकार को दूर करने के लिए अनुकरणीय आदर्शों को अपनाने वाले व्यक्तित्वों को ही आगे आना पड़ता है। दीपक जब स्वयं जलता है तभी प्रकाश उत्पन्न होता है। आस्थावान व्यक्ति दूसरों की आस्था जगाने के लिए अपना उदाहरण उपस्थित करते हैं तभी उन्हें सफलता मिलती है।
समाज में चारों ओर फैले हुए भ्रष्टाचार को देखकर सामान्य मनुष्य की अन्तःचेतना यह अनुभव करती है कि जो प्रचलन में आ रहा है वही तथ्य है, वही व्यवहार है। जो कहा जाता है वह दंभ है—आडम्बर अथवा शिष्टाचार है वह व्यवहार योग्य नहीं। यदि वह तथ्य रहा होता तो प्रतिपादन करने वाले लोग स्वयं उसे क्यों नहीं अपनाते। सिद्धान्तों का प्रतिपादन और अपराधों का आचरण—अनायास ही लोक मानस को यही सिखाता है कि कहने सुनने की बात दूसरी होती है—करने की दूसरी, जो कहा जाय वहीं किया भी जाय यह आवश्यक नहीं। इस छद्म का समर्थन उन लोगों के द्वारा और भी अच्छी तरह हो जाता है जो आदर्शों की लम्बी चौड़ी बातें कहते−कहते अथवा लिखते−लिखते थकते नहीं किन्तु अपने निजी व्यवहार में उन्हीं बातों से सर्वथा दूर रहते हैं।
इस विडम्बना ने जनमानस को अनास्थावान बना दिया है। आदर्शों की बात जिस विनोद भावना से वक्ता कहते और लेखक लिखते हैं उसी स्तर पर सुनने वाले सुनते और पढ़ने वाले पढ़ते हैं। समय क्षेप के अनेकों तरीकों में से एक यह भी है कि धर्म अध्यात्म की सिद्धान्त आदर्श की लम्बी−चौड़ी—रंगीली लुभावनी बातें कही−सुनी जाती रहें। स्थिति यही बनी रही तो व्यक्ति और समाज में घुसी हुई विकृतियों को निरस्त करना एक प्रकार से असम्भव ही हो जायगा। लेखनी और वाणी की शक्ति भी कुछ काम न कर सकेगी। उनसे विडम्बनाओं का एक नया दौर और भी चल पड़ेगा। लोग या ता उपदेशों की मनोरंजन भर मानेंगे अथवा कथा वार्ता सुनकर स्वर्ग लाभ एवं पुण्य फल पाने वाले मूढ़ विश्वासियों की पंक्ति में जा खड़े होंगे।
अवाँछनीय का प्रवाह बदलने के लिए उन आस्थावान् व्यक्तित्वों को आगे आना पड़ेगा जो आदर्शों की गरिमा पर स्वयं विश्वास करते हों। विश्वास की परख है आचरण। यदि आदर्शवादिता अच्छी चीज है तो प्रतिपादन कर्ता को सर्वप्रथम स्वयं हो अपने व्यवहार में लाना चाहिये। मन, वचन और कर्म के समन्वय का नाम ही आस्था है। आस्थावान् ही दूसरों की आस्था को जगा सकता है। जलते दीपक से ही दूसरा दीपक जलता है।
अनाचार को निरस्त करके सदाचार की स्थापना करने की आवश्यकता सर्वत्र अनुभव की जा रही है। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों ने ही असंख्य संकट उत्पन्न किए हैं और अगणित समस्यायें खड़ी की हैं। उनका समाधान जनमानस का भावनात्मक नवनिर्माण होने पर ही सम्भव होगा। उस महान प्रयोजन के लिए लेखनी और वाणी की शक्ति का भी उपयोग है पर उतने से ही लक्ष्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्तित्व जब आगे आयेंगे और अपने अनुकरण को प्रबल प्रेरणा भरा आलोक उत्पन्न करेंगे जनमानस में भरा हुआ अंधकार तभी दूर होगा।