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Magazine - Year 1974 - Version 2

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प्रतिभा का प्रयोग सर्वनाश के लिए

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शक्ति को प्राप्त करने के लिए—उसके स्रोतों को ढूँढ़ निकालने के लिए जितने पुरुषार्थ और मनोयोग की आवश्यकता पड़ती है उससे कहीं अधिक दूरदर्शिता की आवश्यकता उनके उपयोग के लिए प्रयुक्त करनी पड़ती है। यदि बुद्धिमत्ता एकाकी हो—उपार्जन भर तक उसी परिधि समाप्त हो जाय और सदुपयोग की सूझ−बूझ का अभाव रहे तो वह एकाँगी सफलता लाभ के स्थान पर हानि ही उत्पन्न करेगी।

बलिष्ठता, बल, बुद्धि, विद्या, प्रतिभा एवं सम्पत्ति का अपना महत्व है, उन्हें पुरुषार्थ पूर्वक कमाया जाता है। निस्सन्देह उन्हें उपार्जित करने वाले की धर्मशीलता एवं बुद्धि चातुरी की प्रशंसा की जायगी। किन्तु साथ ही यह भुला न दिया जाय कि इन उपार्जित सम्पदाओं का उपयोग किस प्रयोजन के लिए, किस प्रकार किया जाय इसका ज्ञान न हो सका तो यह उपार्जन दुधारी तलवार की तरह उलट कर अपना ही सर्वनाश करेगा। सम्पत्तिवाद् अपने वैभव का दुरुपयोग करके अपना और दूसरों का जितना अहित कर सकता है उतना किसी निर्धन के लिए सम्भव नहीं। अशिक्षित व्यक्ति समीपवर्ती लोगों को थोड़ी−सी शारीरिक अथवा व्यक्ति समीपवर्ती लोगों को थोड़ी−सी शारीरिक अथवा आर्थिक हानि पहुँचा सकता है; पर जिसके पास विद्या और बुद्धि का बाहुल्य है वह विशाल जनसमूह की, भ्रम−जंजाल में−अवाँछनीय क्रियाकलाप में उलझाकर बड़े पैमाने पर विनाश के खेल खड़े कर सकता है।

विज्ञान के आविष्कारों, अन्वेषणों में गहराई तक प्रवेश करने वाली बुद्धि चातुरी की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही कम है। पर साथ ही यह तथ्य भी समझ कर चलता होगा कि यदि कौशल के द्वारा उपार्जित क्षमता का उपयोग ईर्ष्या−द्वेष की पूर्ति के लिए—शोषण और आधिपत्य के लिए किया गया तो कौशल एवं उपार्जन बहुत महंगा पड़ेगा।

उपलब्धियों का अपना मूल्य है और महत्व; किन्तु यह भुलाया नहीं जा सकता कि उनका लाभ तभी मिलेगा जब सदुपयोग की बात ध्यान में बनी रहे। इन दिनों मानवी बुद्धि−कौशल प्रत्येक क्षेत्र में अथवा चमत्कार दिखा रहा है, विज्ञान के क्षेत्र में थी। पर यह नहीं कहा जा सकता कि वर्तमान दुर्बुद्धि के रहते इसका सदुपयोग भी हो सकेगा या नहीं।

अणु शक्ति को ही लें—वह एक महती सामर्थ्य है। उसका सदुपयोग किया जा सके तो समुद्र के खारी पानी को मीठा बनाने और ज्वार भाटों से बिजली पैदा करके अतीव लाभ दायक प्रयोजन पूरे किए जा सकते हैं और सुख−समृद्धि के बढ़ाने में भारी योगदान मिल सकता है; पर यदि अपना आधिपत्य जमाने के लिए उनका विनाशकारी उपयोग किया गया तो यह भी निश्चित है कि हम सबको सामूहिक आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ेगा।

अब तक जितने अणु शस्त्र बन चुके हैं वे पृथ्वी को कई बार नष्ट−भ्रष्ट करके रख देने के लिए पर्याप्त हैं। यदि उनका मारक प्रयोग न भी हो तो भी उनके परीक्षणों से जितना वातावरण विषाक्त हो चुका है उसकी प्रतिक्रिया भी कम भयावह सिद्ध नहीं होगी।

अब तक अणु शस्त्र बनाने में संलग्न देशों ने परीक्षण के लिए जो विस्फोट किये हैं उनकी संख्या 400 से अधिक है। इसके 700 मेगाटन टी. एन. टी. से अधिक शक्ति का वायुमण्डल में विकिरण हो चुका है। समुद्र में और पृथ्वी के नीचे जो परीक्षण किए गये हैं उनका विवरण इनमें सम्मिलित नहीं है।

इन परीक्षणों का प्रभाव विश्व व्यापी हुआ है। ध्रुव क्षेत्र के ऊपर 35000 फुट और भूमध्य रेखा के पास 50000 ऊँचाई तक फैले हुए परिवर्ती मण्डल में रेडियो सक्रिय धूल छा गई है और उसने संसार के समस्त क्षेत्र पर न्यूनाधिक मात्रा में इस विकिरण धूलि की वर्षा आरम्भ कर दी है। निश्चित रूप से इसका दुष्परिणाम समस्त प्राणियों और वनस्पतियों को भुगतना पड़ेगा।

रेडियोधर्मी विकिरण का प्रभाव अल्फा, बीटा और गामा किरणों के आक्रमण जैसा उपस्थित होता है। इनके मन्द प्रभाव को भी प्राणियों की जीव कोषायें सीख लेती है और चिरकाल तक—पीड़ियों तक उस दुष्प्रभाव की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती रहती है। तरह−तरह के रोग−उत्पन्न होते हैं और प्रभावित व्यक्तियों की सन्तानों में अनेकों शारीरिक, मानसिक दोष दिखाई पड़ते हैं। जापान में गिराये गये अणु बमों की घटना के बहुत समय बाद भी जन्मे बालकों में से अनेकों ऐसे हैं जिन्हें अविकसित एवं अपंग कहा जा सकता है।

अणु बम के विस्फोट के समय एक ऐसा अत्यन्त उष्ण और चमकीला प्रकाश पुँज हवा में उदय होता है; मानो सूरज ही धरती पर उतर आया हो। उससे आग की लहरें चारों तरफ फैलती हैं और मीलों तक जमीन के पदार्थों में आग लग जाती है। धमक और चमक इतनी भयंकर होती है कि दूरवर्ती लोग भी उससे अंधे, बहरे जैसे बन जाते हैं। मकानों और पहाड़ों का मलवा हवा में उछलकर दो−दो मील की उड़ानें उड़ता है और वे टुकड़े तोप के गोलों का काम करते हैं जहाँ गिरते हैं वहीं सर्वनाश उत्पन्न करते हैं। जमीन की धूल उड़कर आसमान में आँधी की तरह छा जाती है।

द्वितीय महायुद्ध में कुल मिलाकर 3 मेगाटन शक्ति के विस्फोटक प्रयुक्त हुए है। तब की अपेक्षा यह विस्फोटक शक्ति अत्यधिक मात्रा में मनुष्य ने हस्तगत कर ली है। जापान पर गिराये गये अणु बम बच्चे−बचकाने कहे जाते हैं पर उनकी शक्ति भी एक बटा पाँच मेगाटन थी। अब अमेरिका के पास उससे एक लाख गुनी अधिक शक्ति वाले अणु बम है। रूस ने कुछ समय पूर्व जिस बम का परीक्षण किया था उसकी शक्ति 50 मेगाटन अर्थात् जापान वाले बम से 250 गुनी अधिक थी। जापान में 1 लाख के करीब मरे और उतने ही घायल हुए थे। प्रस्तुत अणु बमों की शक्ति के अनुपात से ही उनके द्वारा विनाश की भी सम्भावना है।

विस्फोटक विशेषज्ञ विनस सी. पार्लिम का कथन है—पिछले दो महायुद्धों में कुल मिलाकर 2 करोड़ टन विस्फोटक शक्ति खर्च हुई थी। पर अब हमारे पास अणु तथा दूसरी विस्फोटक शक्ति का 32000 करोड़ टन विस्फोटक तैयार है। अर्थात् पिछले दो युद्धों की तुलना में हम 16 हजार गुना विनाश कर सकने की सामर्थ्य संचय कर चुके हैं।

एक मध्यवर्ती−हाइड्रोजन के विस्फोट की धमक से 6 मील के घेरे की वस्तुओं का पूर्ण विनाश हो जाता है। 12 मील तक गम्भीर नुकसान होता है। 25 मील तक आँशिक नुकसान होता है और ताप के प्रभाव से 10 मील घेरे के 95 प्रतिशत प्राणियों की उसी क्षण मृत्यु हो जाती है। 17 मील के घेरे में जले और घायल हुए प्राणी भी रोते कलपते कुछ समय में मर ही जाते है। रेडियो विकिरण 150 मील के घेरे में 600 राण्टजेन इकाई के परिमाण में फैल जाता है। 12 मील तक उसका मात्र 5000, 100 मील तक 2300 170 मील तक 500 और 250 मील तक 30 रहती है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य शरीर को बुरी तरह प्रभावित करने के लिए 30 राण्टजेन इकाई ही पर्याप्त है।

आणविक बिजली घरों से निकलने वाली राख को कहाँ ठिकाने लगाया जाय यह एक अत्यन्त पेचीदा प्रश्न है जिसका कोई सन्तोष जनक समाधान अभी तक नहीं खोजा जा सका अमेरिका में ऐसा मलवा करोड़ों गैलन इकट्ठा हो गया है। अब तक उसे इस्पात की टंकियों में बन्द करके रखा गया है। इन टंकियों की लागत लगभग दो डालर प्रति गैलन के हिसाब से आती है। आगे यह कार्य और तेजी से बढ़ने वाला है तब इस मलवे के पहाड़ को कहाँ रखा जायगा। प्रश्न रखने का ही नहीं खतरे का भी है। उस मलवे में से रेडियोधर्मी तत्वों की घातक किरणें निरन्तर फूटती रहती हैं। जिनका घातक प्रभाव समीपवर्ती क्षेत्र के प्राणियों, पदार्थों तथा वनस्पतियों पर पड़ता है।

इस विकिरण से जीवों तथा वनस्पतियों के आकार बदल सकते हैं, वे अपंग या नपुँसक हो सकते हैं यहाँ तक कि मर भी सकते हैं। उनके संपर्क में आने वालों पर लम्बे समय तक विकिरण प्रभाव बना रह सकता है। इस राख को धरती में गाढ़ा जाये तो वे जमीन से उत्पन्न वनस्पतियों तथा जलस्रोतों को प्रभावित करेंगे। समुद्र में डालें तो उसका प्रभाव जलचरों पर पड़ेगा और विषाक्त बादल बरसेंगे। हवा में उड़ा दें तो हवा विषैली होगी। इस विकिरण का प्रभाव जल्दी समाप्त नहीं होता वह सदियों तक बना रहता है।

यह राख गरम होती है इस गर्मी को सीमित रखने के लिए ठण्डे पानी एवं पंखों का उपयोग करना पड़ता है अन्यथा वह जिन टंकियों में बन्द है उसे ही गला कर पिघला देगी यदि केवल 11 घन फुट यह राख किसी ठंडी इमारत के नीचे दबा दी जाय तो वह अनिश्चित काल तक गरमागरम बनी रहेगी वस्तुतः इसे मलवा कहना ही नहीं चाहिए उसमें प्रचण्ड शक्ति भरी रहती है। उसका उपयोग समझ में आता तो इस राख से ही इतना काम चल सकता था जितना कि अणु भट्टियों की बिजली से चलता है। सरलता इसमें प्रतीत होती है कि अत्यन्त गहरे समुद्रों में उस मलवे से भरी इस्पाती टंकियों को डुबो दिया जाय। वहाँ वे ठण्डी बनी रहेंगी। किन्तु समुद्रतल में कभी भूकम्प आया और कोई ज्वालामुखी फूटा तो इन टंकियों की भी मुसीबत आ जायगी और उसका विनाशकारी दुष्परिणाम समुद्र के विषाक्त बन जाने पर जलचरों और थलचरों के सफाया होने के रूप में सामने प्रस्तुत होगा।

6 अगस्त 1945 को जब हिरोशिमा पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराया गया और सहस्रों व्यक्ति मारे गये। 78150 की लाशें ढूँढ़ निकाली गई और 13983 का तो पता ही नहीं चला। सम्पत्ति का, प्राणियों का जो महाविनाश हुआ उसकी तो कुछ सीमा ही नहीं।

इस समाचार से अणु वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में गम्भीर मुद्रा में बैठे स्तब्ध रह गये। उस दिन प्रोफेसर बोर, प्रो.फर्मी और प्रो.आइन्स्टीन को अत्यधिक ग्लानि हुई। रुलाई उनके चेहरे से टपक रही थी। विज्ञान का अभिशाप इस प्रकार मनुष्य को कितनी बुरी तरह संत्रस्त कर सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उन्होंने देखा समझा एक प्रश्न के उत्तर में आइन्स्टीन ने कहा—यदि तीसरा महायुद्ध छिड़ा तो इसके बाद मनुष्य जाति आदिम स्थिति में जा पहुँचेगी और चौथे युद्ध की आवश्यकता पड़ी तो उसमें डण्डे चलाने तथा पत्थर फेंकने के अतिरिक्त और किसी शस्त्र का उपयोग कर सकने की क्षमता शेष न रहेगी।

मनुष्य का जितनी बुद्धिमत्ता मिली है उसकी शताँश भी सदाशयता मिली होती—जितनी सम्पदा मिली है उसकी शताँश भी उदारता मिली होती तो यह संसार कितना भव्य और मानव कितना दिव्य होता; पर आज तो दुर्भाग्य की ही काली घटायें चारों ओर छा रही हैं। अणु शक्ति जैसी महान् सामर्थ्य का उपयोग महाविनाश के लिए करने की तैयारी में ही हमारी विज्ञान बुद्धि नियोजित हो रही है।

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