
यहाँ सब कुछ चल रहा है अचल कुछ भी नहीं।
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इस जगत में स्थिर कुछ नहीं सब कुछ चलायमान है। मनुष्य अपने अधिकारी एवं संपर्क के पदार्थों एवं व्यक्तियों के बिछुड़ने पर उद्विग्न होता है तब वह यह भूल जाता है कि यह प्रकृति का अनिवार्य नियम है। एक का मरण ही दूसरे का जन्म है। एक ही हानि ही दूसरे का लाभ है। यदि पदार्थ और व्यक्ति एक स्थिति में यथावत ही बने रहे तो फिर यहाँ स्तब्ध जड़ता का ही साम्राज्य होगा हलचलें ही इस विश्व की शोभा बनाये हुए है। उत्पादन वृद्धि ओर मरण का क्रम ही इस संसार में शोभा सुषमा सक्रियता और नवीनता बनाये रहने में समर्थ हो रहा है। इच्छा अथवा अनिच्छा से इस विधि विधान को हमें स्वीकार करना ही पड़ता है।
न केवल मनुष्य जीवन से सम्बद्ध क्षेत्र में वरन् इस विश्व ब्रह्मांड में प्रत्येक क्षेत्र में उलट पुलट ही महान गतिविधियाँ निरन्तर चल रही है। अपनी धरती की ही ले उसके दृश्यमान क्षेत्र में कितने अद्भुत परिवर्तन होते रहते हैं। आज जहाँ जल है वहाँ कल थल बन जाता है। और जहाँ थल है वहाँ जल का विशाल भंडागार दिखाई पड़ता है। परिवर्तन के प्राकृत नियम से अपना भूतल तक तो बच नहीं सका तो फिर बेचारा मनुष्य सदा एक ही स्थिति में बना रहे यह कैसे हो सकता है।
पृथ्वी के जल थल भाग का जैसा नक्शा आज हम भूगोल एवं एटलस की पुस्तकों में देखते ह। सदा वे वैसी ही स्थिति नहीं रही है उसे में ढेरों बार उलट-पुलट होती है। जहाँ आज अथवा जलराशि का समुद्र फैला हुआ हैं वहाँ किसी समय थल भाग था और जहाँ इन दिनों भूखण्ड है वहाँ कभी गहरा समुद्र था। पृथ्वी सिकुड़ती साँस लेती और करवट बदलती रही है। इस उथल पुथल में जल का स्थान थल ने और थल का जल ने लिया हैं महाद्वीप जितने अब गिने जाते हैं भूतकाल में कभी उससे ज्यादा रहे हैं कभी कम। जिन क्षेत्रों में आवागमन में इन दिनों समुद्र बाधक है वहाँ कभी निर्वाध रीति से पैदल अथवा थल वाहनों से आना जाना बना रहता था। उन दिनों का सुविस्तृत थल क्षेत्र कट कटकर अब टुकड़े टुकड़े हो गया है। बीच में समुद्र आ जाने से अब वे क्षेत्र सम्बद्ध न रहकर असम्बद्ध हो गये है।
भारत क्षेत्र को ही ले। वह उत्तर की ओर खिसकता चला आ रहा है और दक्षिण भाग समुद्र में डूबता जा रहा है। खगोल शास्त्रियों के अनुसार पिछले एक करोड़ वर्ष में वह 30 डिग्री उत्तर को खिसक आया है और वह क्रम अभी भी जारी है।
आज भूगोल को पूर्वी पश्चिमी गोलार्धों में बाँटा जाता है, भूतकाल में यह स्थिति नहीं थी तब उत्तरी दक्षिणी गोलार्ध थे। उतरी गोलार्ध में पूरा एशिया योरोप उत्तर अमेरिका सम्मिलित थे। दक्षिणी गोलार्ध में आस्ट्रेलिया अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका आदि थे। दोनों गोलार्धों के बीच में समुद्र तो थापर इतना चौड़ा और गहरा नहीं। आज जहाँ अटलांटिक महासागर है वहाँ कभी अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिका का महाद्वीप था। ईसा से 100 वर्ष पूर्व के तत्वज्ञानी तथा विज्ञान पोसीडोनियस ने इस महाद्वीप की भूतकालीन स्थिति के सम्बन्ध में बहुत कुछ तथ्य प्रस्तुत किये है और उसका नाम अतलाँतीस लिखा है। ईसा से 700 वर्ष पूर्व के प्रख्यात कार्व हैसिवड और रोमन विहान होरेस ने भी उसी महाद्वीप का उल्लेख है उस समय उस समुद्र तल में डूबे भूभाग के सम्बन्ध में आवश्यक प्रमाण मौजूद है। सिसीलियन विद्वान डायोडारिस स्पेनिश न्यायाधीश सटोरियस महा मनीषी पाइथियम महाकवि होमर आदि की रचना में उस लुप्त महाद्वीप के सम्बन्ध में तत्कालीन जन श्रुतियों एवं उपलब्ध तथ्यों का उल्लेख पाया जाता है।
विद्वान प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘टाइमेयस’ में इस महाद्वीप का न केवल भौगोलिक वर्णन किया है, वरन् वहां की राजकीय आर्थिक और सामाजिक स्थिति के बारे में बहुत कुछ लिखा है। अचानक एकबार महा भयंकर भूचाल आया और प्रलय जैसे दृश्य उपस्थिति हो गये। बहुत बड़ा भू भाग समुद्र में समय गया और समुद्र में डूबी जमीन थल के रूप में ऊपर आ गई। प्लेटो ने यह सब यों ही नहीं लिखा उसने ईसा से 400 वर्ष पूर्व उस क्षेत्र में लम्बी शोध यात्राएं की थीं और उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर उस समय के थल क्षेत्र को किसी समय का समुद्र तल सिद्ध किया था।
प्रो. शूल्टन, रिचार्ड हैनिंग, ऐडोल्फ शूल्टन जैसे पुरातत्त्ववेत्ताओं ने भी उस जल प्रलय को तथ्य समर्थित बताया है जिसने बहुत बड़े क्षेत्र को जल से थल में और थल से जल में बदल दिया था। जर्मन प्रोफेसर शूल्टन ने इस विषय में अत्यधिक दिलचस्पी ली है। उन्होंने न केवल ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अपना प्रतिपादन किया वरन् खुदाई के कितने ही प्रयोग करके पृथ्वी के करवट बदलने की बात को सर्वथा सत्य सिद्ध किया। इनकी खोजों के आधार पर वार्सीलोना विश्व-विद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें इस ओर दिलचस्पी किसी भूतकालीन पुरातत्त्ववेत्ता अप्पियन के ग्रन्थ आइवेरिका से मिली थी, जिसमें जल प्रलय की प्रतिक्रिया का विशद वर्णन था। शूल्टन की शोध 12 खण्डों में प्रकाशित हुई है। शूल्टन की शोध 12 खण्डों में प्रकाशित हुई है। इस ग्रन्थ में पृथ्वी के आरम्भ काल से लेकर अब तक समय-समय पर होती रही उलट-पुलट का सचित्र वर्णन है।
ध्रुव तारे के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह स्थिर है, पर वस्तुतः यह कहने भर की बात है इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में जब कुछ भी स्थिर नहीं तब बेचारा ध्रुव किस प्रकार एक स्थान पर जमा बैठा रह सकता है।
पृथ्वी यों नारंगी की तरह गोल तो है, पर सूर्य की परिक्रमा करते हुए अपनी धुरी पर भी घूमती है। वह बिलकुल सीधी स्थिति में नहीं वरन् अपनी धरी पर एक तर झुकी हुई है यह झुकाव उसकी भ्रमणशीलता के बीच भी यथावत् बना रहता है। इस झुकाव की ठीक सीध में जो तारा पड़ता है उसे ध्रुव कहते हैं।
झुकाव स्थल पर सूर्य का प्रभाव भी विलक्षण प्रकार का- अन्य स्थानों से सर्वथा भिन्न स्तर का पड़ता है। इसलिए वहां छह महीने का दिन छह महीने की रात- आकाशीय ज्योति- विभिन्न प्रकार के प्रकाशों का आभास जैसी विचित्रताएं दिखाई पड़ती हैं। उन्हीं अचम्भों में से एक यह भी है कि जो तारा उस क्षेत्र की सीध में पड़ता है वह अचल दिखाई पड़ता है। वस्तुतः उसकी वैसी स्थिति है नहीं। अन्य तारकों की तरह वह भी चलता ही रहता है।
अचल होते हुए भी पृथ्वी के स्थानों के अनुरूप ध्रुव का स्थान भी बदलता दीखेगा। हरिद्वार में जिस स्थान पर वह दिखाई देगा बम्बई, रंगून आदि से देखने पर वह उस स्थान की अपेक्षा काफी नीचा या ऊंचा दिखाई देगा। भू-मध्य रेखा के दक्षिण में जाने पर तो उसके दर्शन नहीं हो सकेंगे।
पृथ्वी, समुद्र, ध्रुव आदि स्थिर दीखने वाले पदार्थ जब अस्थिर हैं तो फिर न जाने- मनुष्य ही क्यों आशा करता है कि उसका शरीर, वैभव एवं कुटुम्ब सदा स्थिर एक रस बना रहेगा? प्रकृति की परिवर्तन प्रक्रिया को यदि हम विनोदपूर्वक देख सकें तो ही प्रसन्न रह सकेंगे सुखद परिवर्तनों के साथ दुखद भी आते ही रहेंगे हमें दोनों के लिये प्रबुद्ध मनःस्थिति अपनाकर स्वागत के लिए तैयार रहना ही चाहिए।