
प्रेम के अभाव ने ही हमें प्रेत पिशाच बनाया है।
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प्रेम के अभाव में हमारी सत्ता पृथक और अकेली रह जाती है मानव अपने को निस्सहाय महसूस करते हैं। अहं का भाव उभरकर प्रधान बनता है। स्वार्थ का विकास होने लगता है। वह अपने तक ही सीमित रहता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में बन्द हो जाता है। इस प्रकार की संकीर्णता की गति मृत्यु की ओर अग्रसर होती है। जीवन तो पारस्परिकता में है संबंधों में है जितनी पारस्परिकता एवं आत्मीयता बढ़ेगी उतना ही जीवन खिलेगा विकसित होगा उत्कृष्ट होगा।
प्रेम का तत्व सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त है किन्तु कही अधिक और कही कम। अपनत्व सभी में स्थित है पशु पक्षी मानव आदि सभी अपने का प्यार कतरे है। डाकू दूसरों की हत्या करता है किन्तु अपनी तथा अपने बाल बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखता है। हिंसक सिंह भी पशुओं का भक्षण करता है। किन्तु अपनी सिंहनी के प्रति प्रेम का ही व्यवहार करता है विकराल सर्प दूसरों के लिए काल है किन्तु अपनी नागिन के लिये प्रेम विह्वल है। यदि प्रेम या निजत्व न हो तो सृष्टि ही नष्ट हो जावे।
आत्मा और परमात्मा एक ही है तुलसीदास जी ने कहा है ईश्वर अंश जीवन अविनाशी “समुद्र की लहर समुद्र से भिन्न नहीं है, छटाकाश आकाश से भिन्न नहीं है। वैसे ही आत्मा परमात्मा से भिन्न नहीं है। आत्मा से ही आत्मीयता शब्द बना है जो आत्म का भाव वाचक नाम है। इसी को निजत्व अपनत्व कहते हैं यही प्रेम है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो इस प्रकार कह सकते हैं कि मैं सर्व सत्ता से पृथक और अन्य नहीं हूँ आत्मा परमात्मा सर्वव्यापक है। यह हम भूल जाते है और अपने को पृथक अकेला रात लेते हैं। लहर अपने को समुद्र से पृथक कहे तो यह उसका अज्ञान ही है। जो व्यक्ति आत्म सर्वभूतेषु देखता है वही समझदार और पण्डित है। जब वह आत्मनः प्रतिकूलानि न समाचरेत्। का व्यवहार करता है वही प्रेम का प्रकाशन है। जितनी प्रेम की व्यापकता में वृद्धि करता जायेगा उतना ही अहं अथवा मैं का घेरा कम होता जाएगा।
जब कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के लिए प्रति अपने “मैं” को छोड़ देता है तो उसे प्रेम कहते हैं जब कोई ‘सर्व’ के प्रति अपने ‘मैं’ को छोड़ देता है तो वह भक्ति कहलाती है। मानव में प्रभु के मिलन के लिए प्रेम आवश्यक है। श्री रामानुजाचार्य के पास एक व्यक्ति दीक्षित होने आया और बोला प्रभु के पाने के लिए आप मुझे दीक्षा दीजिए। श्री रामानुजाचार्य बोले तुमने किसी से प्रेम किया है उसने कहा कि नहीं हम तो प्रभु से मिलना चाहते हैं। तब रामानुजाचार्य बोले मैं दीक्षा देने में असमर्थ हूँ क्योंकि यदि तुम्हारे पा सप्रेम होता तो मैं उसे परिशुद्ध कर ईश्वर की ओर ले जाता लेकिन तुम में प्रेम ही नहीं है।
प्रेम और सत्य एक रुपये के दो पहलू है एक दूसरे के पूरक और आधार है। सत्य का आधार मस्तिष्क है तो प्रेम का आधार हृदय है। सत्य में वह आत्मीयता नहीं जो प्रेम में है। सत्य यदि रुक्ष और कटु है तो प्रेम मधुर और कोमल है। सत्य जैसे जानने की बात है तो प्रेम वैसा ही होने की भी। सत्य से निर्भयता आती है और प्रेम से निराभिमानता।
आज कल प्रेम के विषय में गलत भ्रान्ति है। काम को ही प्रेम समझा जाता है। इस भ्रम के फैलाने में सिनेमा गन्दे उपन्यास तथा कहानियों का प्रधान हाथ है। जो दर्शकों और पाठकों को गलत दिशा दे रहे हैं। काम प्रेम का आभास तथा भ्रम है। जैसे कोई व्यक्ति कोहरे का धुँआ समझ लेता है मृग मरुभूमि में प्रकाश के झिलमिलाने से उसे पानी समझ लेता है। और प्यास बुझाते को दौड़ता है। जिसे मृग तृष्णा कहते हैं। जैसे उसे आभास और भ्रम हो जाता है। वैसे ही मान को भी काम में प्रेम का आभास या भ्रम दिखाई देता है।
प्रेम और काम में बहुत अन्तर है प्रेम जितना विकसित होता है काम उतना ही संकीर्ण हो जाता है। प्रेम सृजनात्मक शक्ति का ऊर्ध्वीकरण है तो काम सृजनात्मक शक्ति की पतनोन्मुखी स्थिति है इसलिए जब प्रेम पूर्णता की स्थिति में बढ़ता है तो काम शून्यता की स्थिति में पहुँचता जाता है। इस प्रकार की स्थिति में जीने वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्य की दशा को प्राप्त करता जाता है। अपनी सृजनात्मक शक्ति के द्वारा ही आत्मबल दूसरों के हित में रह रहना प्रेम का रूप है। प्रेम का व्यावहारिक रूप सेवा है। काम तो प्रकृति ही सम्मोहन शक्ति है जो सन्तति के उत्पन्न हेतु निर्मित है उसकी अधिकता या उसका दुरुपयोग करना व्यभिचार है। काम के दमन से काम से मुक्ति नहीं हो सकती और प्रेम के द्वारा ही उससे मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। तुलसीदास जी बड़े कामुक थे। जब उनका प्रेम भगवान में लग गया तो काम वासना छूट गई। राम गुणगान में रामचरित मानस का सृजन किया। सही सृजनात्मक शक्ति प्रेम के द्वारा पतनोन्मुख दिशा में न बहकर सर्वभूत हिते रता हुई यही प्रेम और भक्ति का परिणाम है।
प्रेम का विकास अपने परिवार में प्रारम्भ होता है। यह उसकी प्रथम सीढ़ी है और पास पड़ोस ग्राम देश और विश्व में व्याप्त होता जाता है। वह केवल मानव समाज तक ही सीमित नहीं रहता पेड़ पौधे पशु पक्षी आदि सृष्टि में व्याप्त होता जाता है सब में अपनत्व भाव का विकास होने लगता है। जब अन्तिम सीढ़ी पर प्रेम पहुँचता है तो वही प्रभु की स्थिति है वह स्थिति प्रभु सारूप्य की स्थिति है किन्तु प्रथम या निम्न सीढ़ी के आधार बिना अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचना असम्भव है। प्रेम साधना की पराकाष्ठा ही प्रभु दर्शन है।
प्रभु आनन्द धन है। यदि आनन्द की प्राप्ति करना है तो प्रेम ही उसकी प्राप्ति का मुख्य साधन है। जिस परिवार या जिस समाज में परस्पर प्रेम है एक दूसरे से आत्मीयता है वह एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दुख को अपना ही दुख मानता है। उसके निवारण हेतु वैसा ही प्रयत्न करता है जैसा कि अपने दुख के निवारण हेतु करता है। उसे आत्मवत् ही समझता है । उस परिवार और समाज में कैसे कटुता रहेगी? कैसे विषमता रहेगी? कैसे एक दूसरे की हानि करेंगे? वह तो यह समझेंगे कि उसकी हानि की हमारी हानि हैं वह परिवार और समाज सुखी रहेगा और उस प्रेम के द्वारा आनन्दघन प्रभु के निकट पहुँचेगा।
यदि आज संसार में कुटुम्ब की स्थिति हो जाय परिवार की भाँति एक देश के मानव दूसरे देश के मानवों से प्रेम करने लगे तो विश्व में आज जो घृणा द्वेष की विषम स्थिति बनी हुई है वह मिट जावे। विध्वंसक हथियार न बने। ज्ञान विज्ञान की शक्ति नाश की दिशा में न चलकर विकास की दिशा में प्रवाहित हो। आज जो संसार नरक सदृश बना है। जीवन घुट रहा है वह संसार स्वर्ग सदृश बन सकता है।