
मैं आश्रित तुम आश्रयदाता
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(झलकनलाल वर्मा)
देते जाओ स्नेह दान तुम, मैं दीपक-सा जलता जाऊं,मैं आश्रित तुम आश्रयदाता तुमको छोड़ कहां मैं जाऊं? पीड़ाओं का केन्द्र जगत है, सुख के साधन पनप न पाते।मैं स्वीकार किये चलता हूं, अधिवासी होने के नाते।। पर अधिवासी तो बन्दी है परवशताओं की सीमा का-देते जाओ शक्तिदान तुम, मैं सीमाओं पर जय पाऊं।देते जाओ स्नेह-दान तुम, मैं दीपक-सा जला जाऊं।। उज्ज्वल कर फैला अम्बर से नित्य जोड़ते भू से नाता।तम का दर्प नहीं दलपाते यद्यपि हैं आलोक-विधाता।। अमृतमयी किरणों का सम्बल देकर मुझमें स्फूर्ति जगाओ,तम है नित्य-अनित्य ज्योति है यह सन्देह समूल मिआऊं।देते जाओ स्नेह दान तुम, मैं दीपक-सा जलता जाऊं।। बैठ रसालों पर गा जाती कोकिल मधुऋतु की गाथायें।किन्तु नहीं शीतल होती हैं आतप की भीषण ज्वालाएं।। पीड़ा के तांडव ने जर्जर करदी जग की कोमल काया,नयनों में सावन धन दे दो, उत्पीड़न की आग बुझाऊं।।देते जाओ स्नेह दान तुम, मैं दीपक-सा जलता जाऊं।। जो धरती की करें अवज्ञा, धूप-दीप नैवेद्य गगन को-देकर आंक लिया करते हैं, नभ से ऊंचा निज जीवन को।। नर से नारायण बनने की बात नहीं जिनको भाती है,दी ऐसे आशीष उनका उनको नारायण बनना सिखलाऊं।देते जाओ स्नेह-दान तुम, मैं दीपक-सा जलता जाऊं।। *समाप्त*