
विज्ञान का उपनयन संस्कार कराया जाय
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विज्ञान ऊर्जा का प्रतिनिधि है। उसके द्वारा मानव पंच महाभूतों पर स्वामित्व प्रस्थापित करने की महत्वाकांक्षा रखता है। विज्ञान ने न्यूटन के काल तक मुख्यतः सैद्धान्तिक क्षेत्र में ही विचरण किया तब तक मानव उसके प्रति कौतूहल दृष्टि से देखता था। मानो वह उसकी बाल्यावस्था थी। फेरडे का विद्युत चुम्बकीय सिद्धान्त जब विज्ञान के व्यावहारिक क्षेत्र में आया तब से मानव के दैन दिन आधिभौतिक जीवन में कतिपय सुख सुविधाएँ वैज्ञानिक आविष्कारों ने प्रदान की और मानव का आत्म विश्वास बढ़ाया।
परन्तु बाल्यावस्था से यौवन में प्रवेश करते समय विज्ञान का उपनयन संस्कार नहीं हुआ। इसलिए वैचारिक आध्यात्मिक क्षेत्र में समाज के प्रगतिशील पुनर्जीवनीकरण में विज्ञान मार्ग दर्शन नहीं कर सका। विज्ञान स्वयं असंस्कारित रहा और मानव के वैचारिक सिद्धान्तों को उसने असंस्कारित ही छोड़ा।
विज्ञान तर्क है सत्य का बोध करता है। यथार्थ का दर्शन भी करता है परन्तु पदार्थों की जानकारी तक ही उसकी गति सीमित है। इसीलिये आध्यात्मिक विचारो से विज्ञान का उपनयन होना जरूरी है शरीर को सर्वस्व मानकर आत्मा से उन्मुख होना जितना गलत है उतना ही पदार्थों की जड़ शक्ति की ओर लक्ष्य केन्द्रित करते हुए उनकी चेता का रहस्य भूल जाना ही तर्क विद्या से विपरीत होगा। परन्तु शुभ और मंगल की प्रगति और निर्मित अध्यात्म से होती है। इस आधार के बिना विज्ञान का प्रभाव स्थायी और संरक्षक कैसे होगा?
अध्यात्म के बिना विज्ञान जितना निर्बल है उतना ही विज्ञान के बिना अध्यात्म। अवैज्ञानिक अध्यात्म मरुवर्गीय नैतिक आचरण में आत्म पर्याप्त स्वार्थ ही भावना को जगाता है। कठमुल्लापन की पण्डागिरी पैदा करता है। अध्यात्म के सुवर्ण को रूढ़ी, झूठे आचार और कर्मकाण्ड ने ढंक दिया है। उसमें वैज्ञानिक आज से शुचिता लाना अत्यन्त आवश्यक है।
विज्ञान में विश्लेषण की भेदक दृष्टि हैं उसकी मदद से धर्म में जो अंधेर आया है उससे समय धन और मनोयोग की भारी बरबादी हो रही है। उससे एक ओर अंधश्रद्धा की और दूसरी ओर भ्रांति विस्तारक के आधार पर खुली लूट खसोट की वृत्ति पैदा हो रही है। धर्म को पुनर्जीवित करके समाजोन्मुख करना हो- लोगों को ‘वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि’ बनाना हो तो अध्यात्म को भेद चिन्तन से समझना होगा और वह काम विज्ञान की मदद से ही कुशलता पूर्वक हो सकता है।
मानवी प्रगति की विज्ञान और अध्यात्म दो आंखें है। वैज्ञानिक कट्टरवाद और आध्यात्मिक उदासीनता दोनों ही अवाँछनीय है। इन आँखों को तीव्र भेदक और दिव्य दृष्टि युक्त बनाना हो तो उनमें सामाजिक दृष्टिकोण भरना चाहिए।
विज्ञान के अनगिनत लाभों से आदमी लालायित हो उठा है। यदि विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय किया गया, विज्ञान का उपनयन संस्कार किया गया तो मानवी प्रगति सर्वांगीण होगी। मनुष्य का भौतिकवादी निर्धारण उस अवस्था में तर्क और विचार के साथ चलेगा विज्ञान को इस तरह नियंत्रित करना इसी का अर्थ है विज्ञान का उपनयन संस्कार।
तब विज्ञान स्पर्धा के लिए नहीं-सहकारिता के लिए ये भोग के लिये नहीं, योग के लिये सत्ता के लिए नहीं महत्ता के लिये और विध्वंस के लिए नहीं- समन्वय के लिये उपयोग में लाया जायेगा। विज्ञान का नियन्त्रण सत्यान्वेषियों के मानवतावादियों के हाथ में रहेगा और फिर यथार्थ रूप में मानव प्रगति के पथ पर अग्रसर होता रहेगा।