
शरीर का नहीं आत्मा का भी ध्यान रखें।
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मानव का निर्माण जड़ एवं चेतन दोनों के युग्म से हुआ है। जब तक शरीर में चेतना है तब तक हमारी सभी इन्द्रियाँ क्रियाशील है और शरीर में हल चल है लेकिन जिस क्षण चेतना या आत्मा शरीर से अलग हो जाती है। शरीर मिट्टी का ढेला मात्र ही रहता है। कोई स्पन्दन कोई क्रिया कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर एवं आत्मा का संयोग कोई जहाँ जीवात्मा का कोई मूल्य नहीं है। उल्टे वह भय का कारण बन जाता है और उसे हम घर से शीघ्र ही बाहर निकालते हैं फिर जलाने का प्रबन्ध करते हैं।
अपने जीवन का प्रत्येक क्षण हम अपने शरीर के सुख साधन जुटाने में खर्च करते हैं और इन्द्रियजय भोगों में मरते खपते रहते हैं। लेकिन मृत्यु के समय हम अपनी वासनाओं तृष्णाओं और लिप्साओं को तुष्ट नहीं कर पाते।
सन्तत आत्मा जिसके लिये हमने कभी नहीं सोचा दीनावस्था में रोती कलपती रहती है और असन्तुष्ट होकर शरीर से अलग होती है।
आत्मा परमात्मा का अंश है। जिन भोगों से शरीर को आनन्द मिलता है। उन्हीं से आत्मा को भी मिले आवश्यक नहीं। जिस क्षण से हम इस दुनिया में आते हैं उससे लेकर मृत्यु तक आत्मा हमारे शरीर में उपस्थित है। शरीर के भिन्न भिन्न अवयवों की क्षमता विशेषता एवं क्रिया कलाप के बारे में बहुत सी बातें जानते हैं और अधिक जानने का प्रयास करते हैं। लेकिन अपने ही अन्दर छिपी आत्म को जानने पहचानने समझने एवं विकसित करने की बात हम नहीं जानते।
शरीर को पुष्ट बनाने के लिए हम व्यायाम आहार और देख भाल के लिए सदैव प्रयत्नशील करते हैं। यदि शरीर के किसी अंग में पीड़ा या कमी आये तो हम उसकी चिकित्सा कराते हैं और उसकी शक्ति पुनः वापस आ जाय इसके लिये हम अपनी सामर्थ्य भर प्रयास करते हैं। यदि रोग मुक्त हो गये तो हमें प्रसन्नता होती है इसके लिए परमात्मा को धन्यवाद देते हैं।
परन्तु अपने आत्मा की पीड़ा पर हम कभी ध्यान नहीं देते। वह रोती है कलपती है। क्षत विक्षत होकर तड़पती है लेकिन उसका कभी हम ख्याल नहीं करते क्योंकि शरीर को ही सब कुछ मान बैठे है। जब तक अपनी मूल आस्थाओं में हम फेर फेर परिष्कार नहीं करेंगे तब तक हमें सच्चे आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
जीवन के समग्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह आवश्यक है कि हम शरीर एवं आत्मा दोनों के समन्वित विकास परिष्कार एवं तुष्टि पुष्टि का दृष्टिकोण बनावे। एक को ही सिर्फ विकसित करे और एक को अपेक्षित करें ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से सच्चा आनन्द नहीं मिल सकता। सिर्फ आत्मा का ही परिष्कार एवं विकास करें और शरीर को उपेक्षित करें इससे भी अपना कल्याण नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब आत्म को कष्ट पहुँचता है तो मन दुःखी होकर शरीर को प्रभावित करता है।
शरीर की शक्ति सीमित है। लेकिन आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति उसे शक्ति का अकूत भण्डार बना देते हैं।
जिन्होंने अपनी आत्म को दीन हीन स्थिति में रखा है और उसकी प्रचण्ड शक्ति से परिचित नहीं है वे मुर्दों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर होते हैं। वे शारीरिक सामर्थ्य रहते हुए भी बड़ी गयी गुजरी स्थिति में रहते हैं और निराशा चिन्ता एवं निरर्थक जीवन बिताते रहते हैं। जबकि अपाहिज अपंग क्षीणकाय रुग्ण एवं दुर्बल व्यक्तियों ने भी अपने आत्मबल के द्वारा ऐसे कार्य सम्पादित किये है जिनसे वे इतिहास में अमर हो गये है। सैकड़ों लोगों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बने है। उनकी गाथायें कितनी में आशा विश्वास एवं प्रेरणा का संचार करती है।