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Magazine - Year 1975 - Version 2

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दूरदर्शिता एवं परमार्थ परायणता की बुद्धिमानी

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First 11 13 Last
जब हमारे घर पर आक्रमण होगा तब उससे भुगत लेंगे, ऐसा सोचना और निश्चिन्त रहना अदूरदर्शितापूर्ण है। विपत्ति जब घेर लेती है तब उसके नाखून इतने गहरे घुस चुकते हैं कि उन्हें निकाल सकना शपथ नहीं रहता। हिंस्र जन्तुओं का आक्रमण हो जाने के उपरान्त यह सोचना कि उसे परास्त करने का रास्ता ढूंढ़ लिया जायगा- अदूरदर्शितापूर्ण है। जब व्याघ्र के पैने नाखून अपने माँस में घुस चुके होंगे तब पीड़ा की छटपटाहट ही मस्तिष्क का सन्तुलन बिगाड़ देने के लिए पर्याप्त होगी। उस समय उपाय ढूंढ़ना और प्रतिकार करना उस तरह सम्भव ही न होगा जिस प्रकार दीर्घ सूत्री आलस्य ग्रस्तता की स्थिति में सोचा जाता रहा था। विपत्ति का सामना उसके आक्रमण से पहले ही करना चाहिए। सुरक्षा योजना इसी आधार पर बनती है और बननी चाहिए।

शरीर बीमार पड़ेगा तब उसकी चिकित्सा कर लेंगे, यह सोचने की अपेक्षा हमें स्वास्थ्य रक्षा के उन नियमों का पालन रुग्णता आने से पूर्व की करना आरम्भ कर देना चाहिए जो आरोग्य बनाये रहने के लिए आवश्यक है। आर्थिक संकट आयेगा तब उसका उपाय खोजेंगे अभी से क्या चिंता करे ऐसा सोचने वाले वृद्धावस्था तथा बीमारी एवं विवाह शादी के अवसर आने पर भारी असुविधा अनुभव करते हैं और उस विपत्ति से निकलने का रास्ता नहीं पाते। ऐसी स्थिति आने से पूर्व यही उचित है कि आय-व्यय का ऐसा सन्तुलन बनाकर चला जाय जिसमें थोड़ी बचत की भी गुंजाइश बनी रहे और कुसमय के लिए कुछ संग्रह होता रहे।

बढ़े हुए परिवार का पोषण, शिक्षण, स्वावलंबन बन न पड़े और बालक दुर्दशाग्रस्त जीवन जिये ऐसी स्थिति आने से पूर्व ही यह निश्चय करना चाहिए कि बच्चे उतने ही उत्पन्न किये जायेंगे कि जितने को सुविकसित बना सकने की अपने की सामर्थ्य है। समय से पूर्व जो नहीं चेतते उन्हें यथासमय सजग न होने की भूल पर सिर धुन कर पछताना पड़ता है। जवानी में शक्तियों का असंयमपूर्ण अनावश्यक क्षरण करने वाले असामयिक वृद्धावस्था से ग्रसित होते हैं और दुर्बलता, रुग्णता एवं अशक्तता का कष्ट भुगतते हैं। यदि वे समय रहते, चेते होते और भविष्य की सुरक्षा का ध्यान रखते तो उस विपत्ति से बच सकते थे जिसे प्रमाद ने उनके ऊपर लाकर थोप दिया।

उद्दण्ड आततायियों के अनैतिक आक्रमण जब अपन ऊपर होंगे तब देखा जायगा यह सोचना भूल है। जब उन्हें आक्रमण की सफलता प्राप्त करके ही उनके हौसले बढ़ते हैं। यह स्थिति पनपती रही तो समीपवर्ती क्षेत्र में पनपने वाली गुण्डागर्दी एक दिन अपने को भी लपेट में लिये बिना न रहेगी। इसलिए दूसरों पर हुए हमले को अपने ऊपर हुआ आक्रमण ही मानना चाहिए और आतंकवाद का मिल-जुलकर सामना करना चाहिए। अन्यथा अपराधी तत्व परिपुष्ट होकर अधिक बड़े दुस्साहस करेंगे और उनका क्षेत्र उतना ही बड़ा न रहेगा जितना आज है। तब उन आक्रमणकारियों के उपद्रव से अनेकों को संत्रस्त होना पड़ेगा। उन्हीं उत्पीड़न सहन करने के लिए विदेश हुए लोगों में एक गणना अपनी भी हो सकती है। ऐसी स्थिति न आने देने के लिए समय से पूर्व चेतना चाहिए और जहाँ भी गुण्डागर्दी बढ़ रही हो वही संगठित प्रतिरोध के लिए आगे बढ़ना चाहिए। भले ही उस समय अपने ऊपर सीधा हमला न हो रहा हो- भले ही तब कोई और ही उस आतंकवाद का शिकार हो रहा हो। आज यदि हम किसी आतंक पीड़ित की सहायता नहीं करते तो कल कोई दूसरा अपनी सहायता करने के लिए क्यों आयेगा तब हमें भी उसी प्रकार उत्पीड़ित होना पड़ेगा।

हमें ऐसी स्वस्थ परम्पराएँ पैदा करने के लिए आगे आना चाहिए कि आक्रमणकारी को यह अनुभव होता रहे कि उसे एक पर हमला करके उतने बड़े समूह का सामना करना पड़ेगा जो उसे कुचल कर छोड़े बिना न रहेगा। इतना भय उत्पन्न किये बिना आतंकवाद रोका नहीं जा सकता। पाँच गुण्डे मिलकर पचास हजारों की नाक में दम करने में आज जिस तरह सफल होते हैं भविष्य में भी उसी तरह होते रहेंगे।

मुहल्ले में लगी आग को बुझाने के लिए आगे बढ़ना मानवी कर्त्तव्य एवं परमार्थ की दृष्टि से तो आवश्यक है ही इसलिए भी उचित है कि स्वार्थ का भी यही उपाय है यदि मुहल्ले में लगी आग को निरपेक्ष होकर देखते रहे तो वे लपटें अपने घर को ही अगले क्षणों जलाकर नष्ट किये बिना न रहेंगी। जब अपना घर जलेगा तब बुझाने की बात सोचेंगे, दूसरों की मुसीबत में हम क्यों कूदे ऐसा सोचने वाले- अपने मतलब से मतलब रखने वाली नीति का दुष्परिणाम भोगते हैं और उससे कही अधिक हानि में रहते हैं जो उन्हें दूसरों की सहायता करते हुए उठानी पड़ती।

पड़ौस में जमे हुए कूड़े-करकट के ढेर सड़न पैदा करेंगे तो उससे अपने घर पर भी बीमारियों का आक्रमण होगा भले ही अपने यहाँ कितनी ही अधिक सफाई क्यों न रखी गई हो। गाँव, मुहल्ले में चोर, उचक्के रहते हो तो अपनी भलमनसाहत बनाये रहने से भी काम नहीं चलेगा। वे लोग तरह-तरह के उपद्रव करके अपनी शाँति प्रियता को नष्ट कर देंगे। इसलिए अपनी शाँति को स्थिर बनाये रहने की मोर्चाबन्दी उस पंक्ति पर खड़ी करनी चाहिए जिसके अनुसार गाँव के चोर, उचक्कों की हरकतें रोकी जा सके। पड़ौस में जमा कूड़े-करकट के ढेर को हटाने का उपाय सोचे बिना अपने घर की सफाई कर लेना सर्वथा अपर्याप्त है। आप अच्छे रहकर ही बच्चे को अच्छे नहीं बना सकते। स्कूल और पड़ोस के जिस संपर्क में वे आते हैं उसका वातावरण यदि न सुधारा गया तो लाख प्रयत्न करने पर भी अपने बच्चे उन बुरी बातों के शिकार हुए बिना न रहेंगे जो समीपवर्ती क्षेत्र में बेतरह फैली हुई है।

जीवन इतना छोटा नहीं है कि उसे सीमित परिधि में ही सुन्दर, सुव्यवस्थित बनाया जा सकें। इसके लिए बड़ी घेराबंदी की जरूरत है। वैयक्तिक उत्तमता का बढ़ाना अच्छी बात है, पर उसे पर्याप्त नहीं मान लेना चाहिए। मनुष्य समाज का एक अंग है यदि समाज में भ्रष्ट परंपराएं प्रचलित रहेंगी तो व्यक्ति विशेष की श्रेष्ठता से भी कुछ बात बनेगी नहीं। समाज में क्या हो रहा है- इसे देखे बिना और समाज में क्या होना चाहिए इसे सोचे बिना अपनी निज की उन्नति और शांति की स्थिरता सम्भव ही नहीं रह सकती।

हमें अदूरदर्शी नहीं होना चाहिए आज की ओर अपनी परिधि तक सुख शान्ति को सीमित नहीं करना चाहिए। समय से पूर्व चेतना चाहिए और सुरक्षा की परिधि अधिकाधिक विस्तृत करनी चाहिए। इस दूरदर्शिता को अपनाकर ही हम दूरगामी और व्यापक स्थिरता को सुरक्षित रख सकते हैं। चिन्तन की संकीर्णता को ही स्वार्थपरता कहा जाता है। जो लोग आज की - अभी की ही बात सोचते हैं और भविष्य की कठिनाइयों का ध्यान नहीं रखते वे अदूरदर्शी है। जिनने अपनेपन का दायरा निज के शरीर, परिवार तक सीमित रखा है वे स्वार्थी है अदूरदर्शी और स्वार्थी लोग दूर की बात सोच नहीं पाते और प्रगति के लिए जिस विस्तृत परिधि को ध्यान में रखना पड़ता है उसे देख नहीं पाते फलतः उसकी संकीर्ण स्वार्थपरता अन्ततः घाटे के व्यवसाय की तरह हानिकार ही सिद्ध होती है।

दूरगामी सत्परिणामों के लिए आज संयम बरतना या असुविधा सहना बुद्धिमत्तापूर्ण है। बीज गलता है तब वृक्ष के रूप में फलता है। किसान को साल भर कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाने को बाद फसल का लाभ मिलता है। विद्यार्थी भी वर्षों ज्ञान तप करके विद्वान बनकर पद वैभव पाते हैं। तुरन्त का लाभ यदि दूरगामी लाभ के लिए छोड़ा न जा सकें तो भविष्य को उज्ज्वल बनाने की संभावनाएं नहीं बन सकती। इसी प्रकार समूहगत स्वार्थ को व्यक्तिगत स्वार्थ का आधार न माना जा सकें तो सच्ची और स्थिर स्वार्थ सिद्धि भी सम्भव न हो सकेंगी। दूरदर्शिता और परमार्थ परायणता से ही अपना वास्तविक स्वार्थ सधता है इसलिए उसे परमार्थ के नाम से सम्मानास्पद एवं प्रशंसनीय भी ठहराया गया है।

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