
आकृतियों और साधनों का रहस्य
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीवन की तरह आकाश भी असीम और अनन्त सत्ताओं और सम्भावनाओं से भरा है। इसका सामान्य स्वरूप ही मोटे साधनों से देखा समझा जा सकता है। आँखों की शक्ति बहुत स्वल्प है वह पीछे की चीजों को बिल्कुल नहीं देख सकती- दाँया बाँया भी थोड़ा सा ही दीखता है। चार दिशाओं में से सही रीति से वह केवल एक ही सामने वाली दिशा में देख पाती है। सो भी एक सीमित फासले तक और सीमित आकार तक। चर्म-चक्षुओं से सामने प्रस्तुत संसार को भी पूरी तरह नहीं देखा जा सकता तो अन्तः क्षेत्र में काम करने वाली सत्ताओं के देखने समझने में उनसे क्या सहायता मिल सकती है? आत्मा परमात्मा अन्तःकरण और अन्तर्निहित दिव्य सत्ताओं को देख समझ सकना चर्म-चक्षुओं का नहीं ज्ञान चक्षुओं का काम है।
जीवन की तरह आकाश की भी असीमता है- उसका अधिकाँश आँखों की पकड़ से बाहर है। ज्ञान चक्षुओं की तरह आकाश का पर्यवेक्षण करने के लिए भी विशिष्ठ उपकरण चाहिए। यह उपकरण दूरबीन है। इस साधन को जितना जितना विकसित किया जा सका है उसी अनुपात से आकाश सम्बन्धी जानकारियाँ बढ़ती चली आई हैं। खगोल विद्या की उपलब्धियों का श्रेय इन दूरबीनों को दिया जायगा जैसा कि आत्म विद्या की उपलब्धियों का श्रेय ज्ञान चक्षुओं की पैनी दृष्टि को मिलता रहा हैं।
मेला-ठेला या प्राकृतिक दृश्यों को देखने के लिए पर्यटकों को गले में लटकती हुई दो नाली वाली दूरबीनों का जिक्र नहीं हो रहा है। इन्हें तो मनोविनोद के लिए अथवा दूर दृश्यों को अधिक समीप से दिखाने वाले ‘बाइनोक्यूलर टेलिस्कोप’ कहते हैं। फौजी उद्देश्यों के लिए उनसे कुछ सुधरे हुए टेलिस्कोप काम में आते हैं।
आकाश की छीन बीन करने के उद्देश्य से गैलीलियो ने सबसे पहली दूरबीन सं0 1609 में बनाई थी। वह वस्तुओं को सिर्फ तीस गुना बड़ा दिखाती थीं उन दिनों इतना भी बहुत था। सूर्य के धब्बे, चन्द्रमा के पहाड़ बृहस्पति चार चाँद उससे भी देख लिए गये थे।
अमेरिकी खगोल वेत्ता एल्लरी हाले ने 1936 में सौ इंच व्यास की दूरबीन बनाई जिसे विल्सन पर्वत पर स्थापित किया गया। इससे 60 करोड़ प्रकाश वर्ष तक आकाशीय ज्योति पिण्ड देखे जा सकते थे। इसके बाद हाले ने 200 इंच व्यास की दूरबीन बनाने का काम हाथ में लिया जो उनकी मृत्यु के 10 वर्ष बाद पूरा हो सका। इसे 1948 में पालोमर पर्वत पर स्थापित किया गया। बहुत समय से वही संसार की सबसे बड़ी दूरबीन होने का गौरव प्राप्त करती रही।
सोवियत रूस इस क्षेत्र में भी अमेरिका से बाजी मर ले गया उसने 238 इंच व्यास वाली दूरबीन बनाई और उसे सेमिकोदनिकी पर्वत पर स्थापित किया। अमेरिकी दूरबीन 450 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर तक प्रकाश को दिखा सकती है तो रूसी दूरबीन 7 अरब प्रकाश दूरी के दृश्य आँखों के सामने लाकर खड़े कर देती है।
इस बड़ी दूरबीन से दस हजार किलो मीटर पर खड़ा हुआ मनुष्य ऐसा दिखाई पड़ेगा मानो बीस मीटर की दूरी पर खड़ा है। इतनी दूरी पर कोई माचिस की तीली जलायें तो इसकी सहायता से वह प्रकाश भी साफ दिखाई देखा। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हमारी आँखों की तुलना में इस अमेरिकी दूरबीन की ताकत दस लाख गुनी और रूसी दूरबीन की तीस लाख गुनी अधिक है।
दूरबीन का काँच बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। उन्हें घिसना, पालिश करना इतना नाजुक है कि एक धूलि का कण भी आड़े आ जाय तो सारी मेहनत बेकार हो जायगी। इतने घिसाव में 70 ग्राम काँच की एक परत उतारनी पड़ेगी और उस परिवर्तन से उस मशीन को फिट करने में नये सिरे से हेर-फेर करने पड़ेंगे। तक उस खरोंच को निकालने के लिए पूरे काँच पर से एक माइक्रोन की पूरी परत उतारनी पड़ेगी। रूसी दूरबीन 850 टन भारी है। इसका फोकस ठीक करने तथा दिशा घुमाने के लिए स्वसंचालित बिजली की मशीनें लगी हुई हैं।
ना तो सुविस्तृत आकाश की जानकारियाँ देने वाली दूरबीन बनाना सरल है और न अंतर्दृष्टि को विकसित करना। यह दोनों ही बड़े प्रयत्न और मनोयोग के सहारे विनिर्मित होती है उनके लिए उपलब्ध साधनों को भी झोंकना पड़ता है। किन्तु इस उपलब्धि में जितनी सफलता मिलती है उतनी ही सशक्तता हाथ लगती है। अन्तर्ग्रही उड़ानों की सम्भावना इन दूरबीनों के कारण ही सम्भव हुई हैं। भविष्य में मनुष्य विश्व ब्रह्मांड पर जितना आधिपत्य स्थापित कर सकेगा उसमें भी योगदान इन दूरबीनों का ही रहेगा। अन्तःचेतना की ज्ञान वृद्धि ही मानव जीवन के असीम विकास का पथ प्रशस्त करती है।
दृष्टिगोचर होने वाले अनन्त आकाश को प्राचीन खगोल वेत्ताओं ने बारह भागों में बाँटा है, जिन्हें बारह राशियाँ कहते हैं। कौन सा ग्रह नक्षत्र किस समय कहाँ है इसका निर्धारण राशि क्षेत्र का विभाजन किए बिना हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार अंक गणित में 9 तक के अंक और एक शून्य की मान्यता स्थिर कर लेने के उपरान्त ही गाड़ी आगे चलती है उसी प्रकार खगोल विद्या में आकाश का विभाजन कर लेने पर ही किस ग्रह की स्थिति कब कहाँ कैसी थी या होगी इसका आधार खड़ा किया जा सकता है।
बारह, महीने, सूर्य की तरह राशियों के हिसाब से बने है। एक महीने सूर्य एक राशि पर रहता है। बारह महीनोँ में यह वर्ष प्रदक्षिणा पूरी हो जाती है। यों प्रदक्षिणा पृथ्वी की ही होती है और सूर्य का स्थान बदलना वस्तुतः पृथ्वी के स्थान बदलने की प्रतिक्रिया रूप से ही परिलक्षित होता है। तो भी इससे सूर्य की राशि कक्षा निर्धारित करने में कुछ अन्तर नहीं पड़ता।
आकाश को देखकर राशियों का क्षेत्र विभाजित करने का क्रम उन चिन्हों के आधार पर निरूपित किया गया है। जो चिरस्थायी बने रहते हैं और जिनकी मूल स्थिति में अन्तर नहीं आता। यह चिन्ह आकाश स्थित निहारिकाओं के रूप में स्थिर किये गये है। निहारिकाओं के अब तो नाम भी दे दिए गये हैं। प्राचीन काल में इन्हें आकृतियों की समतुल्यता का आधार पर पहचाना जाता था। यह पहचान ऐसी है जिसमें भूल होने की कम से कम सम्भावना है।
खगोलवेत्ता बराह मिहिर ने अपने वृहज्जातक ग्रन्थ में बारहों राशियों की आकृतियों का निर्धारण किया हैं। यूनानी ज्योतिषी भी प्रायः उसी से मिलती जुलती मान्यता रखते रहे हैं। अब नवीनता ज्योतिषी विज्ञान ने राशियों का क्षेत्र विभाजन जिन निहारिकाओं को मील के पत्थर मानकर किया है उन्हें भी आकृति की दृष्टि से पुराने ज्योतिष शास्त्र की तुलना में ही लिया जा सकता है।
वैदिक पंचांग में मेष राशि को सींग वाले मेढें की आकृति का माना है। निहारिका एन0जी0सी0 4449 का फोटो भी इसी आकृति का है। वृष राशि का सींगों वाला साँड़ निहारिका ‘ओरायन’ से बिल्कुल मिलता है। कर्क निहारिका एम॰ 17 केकड़े की आकृति जैसी ही है। कन्या को नाव पर बैठी एक लड़की के रूप में अंकित किया जाता है यह एन0जी0सी0 4594 के चित्र से मिल जाती है। धनु राशि को आधा घोड़ा और आधा धनुर्धर मनुष्य अंकित किया गया है और एन0जी0सी0 6618 निहारिका से बिल्कुल मिलता जुलता है। मकर राशि को मगर की आकृति का माना गया है यह एन0जी0सी0 7479 से बिल्कुल मिलती है। कुम्भ घड़े की आकृति है। यह एन॰ जी0सी0 7293 की छवि है। मीन की आकृति दो तैरती हुई मछलियों जैसी है जिनका मुख एक दूसरे की पूँछ की तरफ है। यह निहारिका एन॰ जी0सी0 253 से पूरी तरह मेल खाती है।
इस प्रकार आठ राशियों का आकृति निहारिकाओं के चित्रों से मिल जाती है। शेष चार की आकृति इसलिए नहीं मिलती कि उस क्षेत्र की निहारिकाएं बहुत विरल है और उनके फोटो उतने स्पष्ट नहीं आते। इन दिनों जितने अन्तर्ग्रही ही स्पष्ट चित्र खींचने वाले कैमरे उपलब्ध है उतना कार्य प्राचीन काल में खुली आँखें नहीं कर पाती थी।
यूनानी पंचांगों में भी लगभग भारतीय पंचांगों की तरह ही राशियों की आकृतियाँ अंकित की गई है। राशि चित्रों को बहुत समय तक कपोल कल्पना समझा जाता रहा है, पर अब विकसित खगोल विज्ञान ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस चित्रण के पीछे निहारिकाओं को मील के पत्थर मानकर उनकी आकृतियों के साथ संगति मिलाते हुए राशियों का चित्राँकन किया गया है।
निहारिकाओं के अतिरिक्त राशि क्षेत्रों में विशेष रूप से चमकने वाले तारों को मिलाकर देखने से भी लगभग उसी प्रकार की आकृति बन जाती है जैसी की राशियोँ की भारतीय पंचांगकर्ताओं ने अंकित की है।
पंचाँगों में राशियों की आकृतियाँ छपी है। मेष- मेढ़ा- वृष बैल - मिथुन, पति-पत्नी-कर्क, केकड़ा-सिंह, सिंह-कन्या, नाव में बैठी कन्या-तुला, तराजू- वृश्चिक, बिच्छू-धनु, घोड़े और मनुष्य का धनुर्धारी शरीर- मकर, मगर- कुम्भ, घड़ा-मीन, मछली। इन आकृतियों को तुलनात्मक समझना चाहिए। आकाश को बारह भागों में विभाजित करके उसके एक-एक क्षेत्र में अवस्थित प्रमुख तारागणों के देखने पर किस आकृति का आभास मिलता है, इसी आधार पर उपरोक्त राशि चित्र बनाये गये है। यह मान लेना भूल होगी कि आसमान में मेढ़ा, बैल, सिंह, मगर, मछली आदि प्राणी निवास और भ्रमण कर रहे है।
ठीक इसी प्रकार देवी-देवताओं का चित्रांकन समझा जाना चाहिए। उस आकृति-प्रकृति के कोई जीवधारी देवता अमुक स्थान पर, अमुक प्रकार का जीवनयापन करते होंगे जो ऐसा समझते हैं वे भूल करते हैं। वस्तुतः विभिन्न शक्तियों और विभिन्न चेतनाओं की क्षमताओं और सम्भावनाओं को ध्यान में रखकर उनकी अलंकारित प्रतिमाएँ गढ़ ली गई है। इस गढ़ने की प्रक्रिया को बालबोध कह सकते हैं। छोटे बालकों का आरम्भिक कक्षा में अ-अमरूद, आ-आम, इ-इमली, ई-ईख आदि आकृतियाँ दिखाकर अक्षर बोध कराते हैं, उसी प्रकार संघ शक्ति को दुर्गा, धन शक्ति को लक्ष्मी, ज्ञान शक्ति को सरस्वती आदि अलंकारिक प्रतिमाएँ गढ़ कर यह बताया गया है वह सभी भौतिक और आत्मिक शक्तियाँ उपलब्ध करने योग्य है।
राशियों की आकृतियाँ न तो अनावश्यक है और न भ्रान्त। वस्तुस्थिति समझाने का यह प्रतीक निर्धारण अलंकार है। इससे समझना सरल पड़ता है। दिव्य शक्तियों के देव सत्ता के रूप में चित्रित किया जाना भी इसी स्तर का है। उनकी पूजा प्रक्रिया में अप्रत्यक्ष रूप में उन चेष्टाओं का संकेत है जो उन विभूतियों को उपलब्ध कराने में सहायक होती है। आकाश खोजने के लिए दूरबीन आवश्यक है और जीवन सत्ता की असीम सम्भावनाओं को समझना तथा उस दिशा में प्रगति करने का आधार हमारी सूक्ष्म दृष्टि ही हो सकती है। शंकर का तृतीय नेत्र, मनुष्य का आज्ञाचक्र इसी ज्ञान-चक्षु उन्मूलन की आवश्यकता का संकेत करते हैं।