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Magazine - Year 1975 - Version 2

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मानवी एकता के लिए प्रयत्नशील रहने में ही हमारा कल्याण है

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विगठन के पीछे सर्वनाश छिपा हुआ है और संगठन में जीवन का उत्कर्ष एवं सौंदर्य का आधार जुड़ा है। छोटे-छोटे जीवकोषों से मिलकर यह शरीर बना है और नगण्य जितने नन्हे परमाणुओं का एकत्रीकरण विभिन्न वस्तुओं की संरचना कर सकने में समर्थ हुआ है।

ब्रह्माण्ड के ग्रह-नक्षत्र और उपग्रह परस्पर मिल-जुलकर ही इस अनन्त अन्तरिक्ष में अपनी सत्ता बनाये हुए है। यदि उनका विगठन हो जाय- एकाकी रहने की स्थिति आ जाये तो पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर खड़ा हुआ संसार का सारा ढाँचा ही चरमरा जाय। फिर ग्रह-नक्षत्रों की वह स्थिति न रहेगी जो आज है। एकाकी भटकने वाले उल्कापिण्ड अपनी सीमित शक्ति, सीमित स्थिति एवं सीमित कक्षा में किसी प्रकार जीवित रह भी सके तो भी उनकी सारी विशेषता तो नष्ट ही हो जायगी। वे मृतक पिण्ड मात्र बनकर रह जायेंगे। पारस्परिक आकर्षण की सघन शृंखला में बंधकर ही वे अपनी धुरी और कक्षा में भ्रमण कर रहे है। उनकी विशेषताओं का विनिमय ही उनमें हलचलें बनाये हुए है, अन्यथा वे हर दृष्टि से स्तब्ध हो जायेंगे उनका सारा पदार्थ अनन्त अन्तरिक्ष में धूलि बनकर बिखर जायगा।

जीवाणुओं का विगठन ही मृत्यु है। जब तक शरीर के यह छोटे घटक मिल-जुलकर काम करते है- एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी बनकर रहते हैं तभी तक जीवन की सत्ता है। विगठन आरम्भ हो तो उसका परिणाम मृत्यु के रूप में सामने आ खड़ा होगा। पदार्थ कोई भी क्यों न हो परमाणुओं की अमुक स्थिति के ऊपर ही उनका अस्तित्व निर्भर है। संगठन क्रम में अव्यवस्था उत्पन्न होते ही वस्तुएँ सड़ने-टूटने या नष्ट होने लगती है उनका स्वरूप देखते-देखते विकृत हो जाता है।

मनुष्य समाज की विकासोन्मुख स्थिति का एकमात्र आधार संगठन है। दाम्पत्य-जीवन में दो व्यक्तियों का सघन सहयोग कुटुम्ब का निर्माण करता है। मिल-जुलकर कई छोटे-बड़े व्यक्ति साथ-साथ रहे, इसी का नाम तो परिवार है। परिवारों का एक दूसरे के साथ सहयोग करना और पारस्परिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक आदान-प्रदान करना यही है समाज में विविध -विधि क्रिया-कलापों के संचालन की धुरी। सारा अर्थ तन्त्र इसी आधार पर खड़ा हुआ है। उत्पादन वितरण और विनियम की पद्धति अपनाकर ही अनेकानेक उद्योगों का आविर्भाव हुआ है।

समाज के नियमोपनियम पालन करने की प्रवृत्ति ने स्थिरता एवं सुव्यवस्था को जन्म लिया है। भाषा, कला, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, शिक्षा, शासन, न्याय, विज्ञान, शिल्प, उद्योग, चिकित्सा, यातायात आदि उस संसार को सुविकसित बनाने वाली स्थापनाएँ ही मानवी प्रगति की आधार शिलाएँ है। इनका आविष्कार और विकास तभी सम्भव हुआ जब मनुष्यों ने परस्पर मिल-जुलकर इस दिशा में अनवरत प्रयास करने का संकल्प किया और अपनी उपलब्धियों का लाभ अपने सहकालीन तथा उत्तराधिकारी अन्यान्य व्यक्तियों के हाथ में थमाया। यदि यह सम्भव ने होता तो जिस बुद्धिमत्ता पर गर्व किया जाता है उसे प्राप्त कर सकना मनुष्य के लिए कदापि सम्भव न हुआ होता। अविकसित स्थिति में वन्य पशुओं की स्थिति में ही हमें रहना पड़ता यदि सहकारिता की प्रवृत्ति का दैवी वरदान साथ लेकर मानव प्राणी जन्मा न होता।

जो जातियाँ, जो देश, जो समाज, जो परिवार, जो वर्ग जिस हद तक संगठित होते हैं वे उसी अनुपात से समर्थ बनते सफल होते और प्रगति करते देखे जाते है; प्रसन्न भी वे ही रहते हैं और श्रेय सम्मान भी उन्हीं का मिलता है। एकाकी व्यक्ति कितना ही समर्थ या सुयोग्य क्यों न हो आखिर रहेगा तो एक ही। एक की क्षमता निश्चित रूप से स्वल्प होती है। मेल-मिलाप से बनने वाला समूह ही विशिष्ठ एवं समर्थ शक्ति के रूप में उन्नतिशील बनता है और बड़े प्रयोजनों को सिद्ध कर सकने में सफल होता है। इस तथ्य को मानवकाल के अद्यावधि इतिहास का कोई पृष्ठ उलट कर भली प्रकार जाना समझा जा सकता है। उत्थान और पतन के अगणित घटनाक्रमों में अन्य तथ्य भी अपना कार्य करते दिखाई पड़ेंगे, पर सर्वोपरि आधार यही रहा होगा कि लोगों में सहयोग की प्रवृत्ति किस सीमा तक रही। असहयोगी की विषाक्तता पतन और पराजय के रूप में उभरी हुई कही भी देखी जा सकती है।

भगवान राम और कृष्ण ने अवतार लेकर लोकशिक्षण के अनेकानेक आधार जन-साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किये गये। उनका प्राथमिक प्रतिपादन संगठन का ही है। भगवान राम ने लंका विजय की। उसमें प्रमुख योगदान रीछ, बानरों का उपलब्ध किया गया। इस क्रिया कलाप में गया बताया कि न्याय पक्ष यदि संगठित हो जाय तो साधन और सामर्थ्य की भाषा स्वल्प रहने पर भी विशालकाय विभीषिकाओं पर विजय प्राप्त की जा सकेगी। ठीक इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाते समय ग्वाल-बालों को लाठी लगाकर उस प्रयोजन में भाव भरा योगदान करने के लिए तैयार किया। महान प्रयोजन पूरा कर सकने में कोई अकेला व्यक्ति सफल नहीं हो सकता उसके पीछे संगठित जन शक्ति होनी ही चाहिए। यही है गोवर्धन उठाने के प्रकरण का सारभूत निष्कर्ष।

पाण्डव पूर्ण समर्थ थे। कृष्ण भी कम बलवान नहीं थे। फिर भी महाभारत में कौरवों की विशाल सेना के समकक्ष प्रतिद्वन्द्वी सेना जुटाने के लिए भागीरथ प्रयत्न किये गये। संसार भर के भावनाशील लोगों को न्याय पक्ष का साथ देने के लिए सहमत किया गया। अनीति पक्ष के मुकाबले में लगभग उतनी ही बड़ी नीति समर्थक सेना खड़ी कर लेने से ही महाभारत सम्भव हुआ। यदि मात्र कृष्ण और पाण्डव ही लड़ने लगते तो सम्भव है युद्ध जीत जाते, पर महाभारत के माध्यम से संगठन की शक्ति को समझने-समझाने का महत्वपूर्ण प्रयोजन तो पूरा हो ही न पाता। असुर संहार से भी बढ़कर आवश्यकता देव संगठन की रहती है। उसके बिना शाँति और प्रगति के स्वप्न साकार हो ही नहीं सकते।

विनोद भी एकाकी नहीं हो सकता, भावनात्मक उल्लास की अनुभूति भी छोटे वर्ग में सीमित रहकर नहीं हो सकती। रासलीला में गोप-गोपियों का सामूहिक हास-विलास यह बताता है कि ममता और आत्मीयता का क्षेत्र अधिकाधिक विस्तृत होना चाहिए। “अधिक लोगों का अधिक लाभ” वाला सिद्धान्त अध्यात्म, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी प्रधानता प्राप्त है। सब में अपने को और अपने में सबको देखने समझने की दृष्टि रखकर मनुष्य का व्यक्तित्व अधिकाधिक विकसित एवं परिष्कृत बनता चला जाता है। आत्म-विस्तार की चरम अवधि तक जा पहुँचने का नाम ही आत्म-साक्षात्कार, ईश्वर दर्शन, जीवन-मुक्ति अथवा लक्ष्य प्राप्ति के आकर्षक नामों से धर्म-ग्रन्थों में अलंकारिक प्रतिपादनों के साथ प्रस्तुत किया गया है। संगठन का महत्व जितना अधिक और जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही लाभ है। ‘संघ शक्ति कलीयुगे’ सूत्र में सार रूप में यही बताया गया है कि इस युग में संसार का सबसे बड़ा, मनुष्य का सबसे प्रखर बल संगठन ही है। जो उसके लिए प्रयत्नशील रहेगा वह सुखी बनेगी और जिसने इसकी अवज्ञा-उपेक्षा की उसे उसी को प्रतिगामिता चूर्ण-विचूर्ण करके रख देगी। संकीर्णता रत, विगठनवादी नर-पशुओं को सृष्टि के अवाँछनीय तत्वों की तरह नियति का कोप-भाजन ही बनना पड़ेगा। उन्हें पतन और पराभव के गर्त में गिरकर नष्ट भ्रष्ट ही होना पड़ेगा।

संगठन के शाश्वत सत्य को इन दिनों तो और भी अधिक प्राथमिकता मिलनी चाहिए। मानव समाज की प्रस्तुत विश्व-व्यापी जटिल समस्याओं एवं विभीषिकाओं को हल करने के लिए जिन साधनों या उपायों की खोज की जा रही है वे अपर्याप्त है। अभीष्ट सफलता तो केवल मानवी एकता की समस्या का हल करने से ही संभव होगी।

ज्ञान और विज्ञान की प्रगति ने दुनिया को इतना छोटा बना दिया है जितनी कि वह पहले कभी भी नहीं रही। अब विश्व के किसी भी कोने में घटित होने वाली घटनाएँ समस्त संसार को प्रभावित करती है। द्रुतगामी वाहनों ने वर्षों की पैदल यात्रा को कुछ घंटों की बनाकर रख दिया है। उद्योग, व्यवसाय, शिक्षा, कला, शिल्प आदि क्षेत्रों में देश एक दूसरे पर निर्भर होते चले जाते हैं। अरब देशों का तेल दूसरे देश न खरीदें अथवा बेचने वाले अपना विक्रय बन्द करदें तो इसका परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए भयंकर होगा यही बात अन्यान्य आदान-प्रदानों के सम्बन्ध में लागू होती है।

साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, पूँजीवाद, अभिनायकवाद के दिन अब लद गये। जन-चेतना इतनी प्रबल हो गई है। कि निहित स्वार्थों द्वारा इन अनाचारों को थोपा जाना जनता द्वारा सहन नहीं किया जायगा। इसी प्रकार अनीति के विरुद्ध भड़कने वाले विद्रोह को भी अब सैन्य बल से दबाया जा सकना सम्भव नहीं रहा। यह प्रयोग तभी तक सफल होते हैं। जब तक जन जागृति नहीं होती और जनशक्ति नहीं उभरती। इन दिनों पिछड़े हुए और समुन्नत वर्गों के बीच खाइयाँ इतनी चौड़ी हो गई है कि उनके गर्त में अब तक की मानवी प्रगति को डूबते देर नहीं लगेगी।

रक्त विकृत हो जाने पर शरीर में खाज-खुजली, फोड़े-फुन्सी, दाग चिकत्ते ढेरों की संख्या में उगते हैं। एक-एक फुन्सी की दवादारु करते रहने से कुछ काम नहीं चलता। एक के अच्छे होने से पहले ही दूसरी नई फुन्सियाँ उठा आती है। संसार के सामने प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं को इन दिनों अलग-अलग उपायों से हल करने के प्रयत्न किए जा रहे है। स्वास्थ्य सुधार, शिक्षा संवर्धन, आजीविका उत्पादन शस्त्र सैन्य आदि आधारों पर सर्वत्र ध्यान दिया जा रहा है। कई तरह की योजनाएं सोची, बनाई और चलाई जा रही है, पर परिणाम नहीं के बराबर ही निकलता है, गुत्थियाँ जितनी सुलझती है उससे कही अधिक उलझ जाती है। विभीषिकाएं हलकी होने के स्थान पर और भी अधिक ऊपर उभर आती है। रक्त की विकृति का निराकरण किए बिना फुन्सियों का उठना रुकेगा नहीं। विपत्तियों और विकृतियों के मूल कारण को देखे, सम्भाले बिना विपत्तियाँ क्रमशः और भी अधिक सघन होती चली जायेंगी।

युग ने भौतिक क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है यह एक सर्वमान्य तथ्य है। पर यह हुई ऐसी ही है जैसा कि एक हाथ या पैर का मोटा होना और दूसरे का पतला रह जाना। संगठन के अध्यात्म तत्व को भी इसी क्रम से विकसित किया जाना चाहिए। आत्मीयता का एकता का क्षेत्र इसी अनुपात से बढ़ाया जाना चाहिए। सन्तुलित प्रगति का लाभ उसी स्थिति में प्राप्त किया जा सकेगा।

हमें संगठन तत्व की महत्ता समझते हुए एकता की ओर बढ़ना चाहिए। एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति, एक धर्म की आवश्यकता को स्वीकार करना चाहिए और गले उतारना चाहिए। छोटे-छोटे टुकड़ों में बँटे हुए देश अपने-अपने स्थानी स्वार्थों का राग अलापने रहेंगे और उनके लिए दुराग्रही नीति अपनाते रहेंगे तो बारूद में कभी भी चिनगारी पड़ जायेगी और विश्व विनाश का संकट सामने आ जायगा। पिछले दिनों मध्य पूर्व के देशों में जिन क्षेत्रीय स्वार्थों को लेकर संघर्ष हुआ उसमें विश्व शान्ति को भारी आघात लगा है। यदि यह सभी देश एक ही महादेश के -विश्व राष्ट्र के प्रांत भर रहे होते और विश्व पंचायत का निर्णय मानने के लिए विवश किए गये होते तो वह स्थिति सामने न आती जो आज सामने खड़ी है। मध्य पूर्व का उल्लेख तो एक उदाहरण मात्र है ऐसी ही बारूद दुनिया के कोने-कोने में बिछी हुई हैं। ऐसे विस्फोट पिछले दिनों अनेकों हुए है और आगे भी उनके भड़कने की गुंजाइश मौजूद है। इनके समाधान कूटनीतिक दाव पेंचों अथवा शस्त्र संघर्ष से सम्भव न होंगे। ऊपर की लीपा-पोती से भीतर ही भीतर सुलगने वाला विद्रोह निकलेगा।

संसार के समस्त राजनैतिक संकटों का हल एक ही है कि समस्त भूमण्डल का एक राज्य बने। देशों का विभाजन भौगोलिक आधार पर किया जाय और उनका दर्जा एक प्रान्त या जिले जैसा ही माना जाय। समस्त विश्व सम्पदा को समस्त मानव जाति की घोषित किया जाय। स्थानीय लोग- स्थानीय सम्पदा को अपने कब्जे में रखने का दुस्साहस न करें। जनसंख्या और भूमि विस्तार का सन्तुलन बनाया जाय। एशिया की आबादी बहुत बढ़ गई जब कि अफ्रीका, अमरीका, आस्ट्रेलिया, आदि के विशाल भूखण्डों में अभी करोड़ों लोगों के बसने और सुख पूर्वक रहने की पूरी गुँजाइश है। चंद लोग इतने बड़े भूखण्डों को अपने कब्जे में दबाये बैठे रहेंगे और शेष लोगों को दम घोंटने वाली घिचपिच में सड़ना, मरना पड़ेगा तो आज न सही कल विद्रोह फूटेगा और विश्व युद्ध छिड़ेगा। दो युद्धों का विनाश हम देख चुके। यह शृंखला तभी समाप्त होगी जब या तो संसार में न्याय की स्थापना हो जाय अथवा समस्त विश्व का सर्वनाश हो जाय। वर्ग स्वार्थ की वर्तमान रीति के रहते युद्ध और विनाश की घटाएं घुमड़ती ही रहेंगी। इसका समाधान एक ही है- विश्व राष्ट्र की स्थापना। मनुष्य को विश्व नागरिक माने जाने की घोषणा। भूमण्डल की समस्त सम्पदा पर समस्त मानवों का समान रूप से अधिकार माना जाय और उसके समुचित वितरण सम्भव बनाने के लिए विश्व शासन की स्थापना। विश्व न्यायालय द्वारा मानव मात्र के हित को ध्यान में रखकर बड़ी समस्याओं का निष्पक्ष निराकरण प्रस्तुत किया जाय। इस समाधान के अतिरिक्त विश्व शान्ति का और कोई विकल्प नहीं हैं। विगठन से हमें संगठन की ओर ही बढ़ना होगा।

यही बात भाषा के सम्बन्ध में भी है। अनेकानेक भाषाओं ने मनुष्यों को परस्पर विचार विनिमय करने से वंचित बाधित कर दिया है। एक भाषा जानने वाला दूसरी भाषा वालों के सामने गूँगा, बहरा बना रहता है। एक भाषा के सत्साहित्य से दूसरी भाषा वाला तनिक भी लाभ नहीं उठा पाता। बौद्धिक प्रगति के मार्ग में यह सबसे बड़ी बाँधा है। यदि समस्त विश्व की एक भाषा हो तो संसार भर के सभी मनुष्य परस्पर उन्मुक्त विचार विनियम कर सकें- एक भूखण्ड का निवासी दूसरे भूखण्ड में जाकर अजनबीपन अनुभव न करें। क्षेत्रीय भाषा में आवश्यक साहित्य न होने के कारण इन दिनोँ जो ज्ञान संवर्धन में भारी व्यवधान रहता है वह न रहे। अनुवाद और प्रकाशन की प्रतीक्षा किए बिना आज की श्रेष्ठतम बौद्धिक उपलब्धि कल ही समस्त संसार के सामने प्रस्तुत हो सके। भाषाओं पर क्षेत्रीयता की छाप रहने से उनसे भाषायी सम्प्रदायवाद पनपता है। यह दीवारें टूट जाने समस्त विश्व में प्रस्तुत किए जाने वाले श्रेष्ठतम प्रतिपादनों को समझ सकना ज्ञान के हर पक्ष से परिचित हो सकना सभी के लिए सम्भव हो जायेगा और नीर-क्षीर विवेक के जागरण के मानवी प्रगति में भारी सहायता मिलेगी।

धर्म, संस्कृति दर्शन, नीतिशास्त्र समाज व्यवस्था के क्षेत्रों में इन दिनों जो दुराग्रह एवं विलगाव संव्याप्त है उसने सत्य की शोध कर मार्ग एक प्रकार से कुण्ठित ही कर रखा हैं। सभी वर्ग अपने पूर्वजों द्वारा प्रस्तुत किए प्रचलनों को सर्वोपरि मानने की हठ किए हुए हैं। “हम सही और सब गलत” की हठवादिता यथार्थता को समझने से, उपयोगिता उपलब्ध करने से वंचित कर देती हैं। पूर्वकालीन प्रतिपादन मानव जाति के क्रमिक विकास के आधार पर प्रस्तुत होते रहे हैं। परिस्थिति बदलने पर पूर्व मान्यताओं में संशोधन परिवर्तन अनादि काल से होता चला आया है। अब उस दिशा में एक बड़ी छलाँग लगाने की आवश्यकता है। वान की तरह न ने भी इन दिनों जो प्रगति की है उसने हमें इस योग्य बना दिया है कि सत्य शोधन के लिए आज जो आधार मौजूद हैं। उसके सहारे पिछले दिनों के प्रचलित एवं आज के अप्रचलित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए एक सार्वभौम तत्वदर्शन एवं नीतिशास्त्र प्रस्तुत किया जाय।

एक धर्म, एक अध्यात्म एक दर्शन एक आचार शास्त्र एक समाज प्रचलन, बन जाने से मनुष्य सत्य के अधिक समीप पहुँचेगा और मानवी एकता की अनुभूति में भारी सहायता मिलेगी। तब सामाजिक रीति रिवाजों और धर्म मान्यताओं की भिन्नता के कारण आज जो विद्वेष फैलता है- धर्म ध्वजियों का स्वार्थ सधता है उसकी कोई गुंजाइश न रहेगी। एकता के आधार जितने सघन होंगे उतनी ही प्रेम भावना एवं सहकारिता के लिए द्वार खुलेंगे और प्रगति के पथ पर समस्त मानव जाति के साथ-साथ बढ़ना और सुख शान्तिपूर्वक जीवन निर्वाह कर सकना सम्भव हो जायगा।

संगठन की गरिमा समझने और विगठन से मुँह मोड़ने से ही हमारी आज की समस्याओं का समाधान और भावी प्रगति का चिरस्थायी शुभारम्भ सम्भव हो सकेगा इस तथ्य को जितनी जल्दी हृदयंगम कर लिया जाय उतना ही उत्तम है।

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