
प्रोटीन प्राप्ति के लिये माँसाहार आवश्यक नहीं
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निश्चय ही प्रोटीन शरीर का प्रमुख पदार्थ है। माँसपेशियों के ठोस भाग में पांचवां हिस्सा प्रोटीन ही भरी हुई है। मस्तिष्क से लेकर गुर्दे, हृदय आदि तक सभी महत्वपूर्ण अवयव प्रोटीन से ही भरे हैं उसका संतुलन सही रहने से शरीर ठीक तरह सक्षम बना रहता है और कमी पड़ने पर शरीर की वृद्धि रुक जाती है, देह सूखने लगती हैं, रोग प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है, अधिक परिश्रम नहीं हो पाता, तथा मृत्यु और बुढ़ापे का संदेश जल्दी ही सामने आ उपस्थित होता है। निरन्तर हमारी कोशिकाओं का क्षरण होता रहता है उसकी पूर्ति के लिये प्रोटीन की उपयुक्त मात्रा हमारे भोजन में बनी रहे यह आवश्यक है।
खाद्यों में प्रोटीन का उपयुक्त भाग रहे यह ध्यान रखना चाहिये। इस दृष्टि से उनका चयन करते हुये समुचित सावधानी बरतनी चाहिये। जिनमें प्रोटीन की उपयुक्त मात्रा है उनमें लोग भ्रमवश माँस अंडा आदि को ही सर्वोपरि मानते हैं पर बात ऐसी बिल्कुल भी नहीं है। माँस की अपेक्षा दालों में प्रोटीन का अंश कही अधिक है। वर्गीकरण के हिसाब से अण्डों में 13 प्रतिशत, मछली में 16 प्रतिशत, माँस में 20 प्रतिशत, मूँग की दाल में 24 प्रतिशत, मसूर की दाल में 25 प्रतिशत, उड़द की दाल में 30 प्रतिशत, मूँगफली में 26 प्रतिशत, और सोयाबीन में 42 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इस प्रकार माँस की अपेक्षा दालों में ड्यौढ़ा दूना प्रोटीन प्राप्त होता है जो कि सस्ता भी है और नैतिक भी।
प्रोटीन को संपूर्ण ओर अपूर्ण इन दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। पूर्ण वे हैं जिनमें खनिज लवण वसा आदि की उपयुक्त मात्रा सम्मिलित रहती है। अपूर्ण वह जिसमें अपना वर्ग तो पर्याप्त होता है पर दूसरी उपयोगी वस्तुओं की कमी रहती हैं। इस कमी को पूरी करने के लिये अन्यान्य वस्तुओं का समावेश करना पड़ता है।
प्रोटीन की दृष्टि से इन दिनों अंडे खाने का रिवाज बढ़ रहा है समझा जाता है कि उसमें इस तत्व की अधिकता होने से वह अधिक लाभदायक रहेगा। परन्तु लोग यह भूल जाते हैं कि वह जितना लाभदायक दीखता है वस्तुतः वह वैसा है नहीं, पाचन की दृष्टि से वह काफी कठिन पड़ता है। भारत जैसे गर्म देशों में तो वह पेट में जाते ही सड़ने लगता है और विष पैदा करता है। तेल में उबाले और भुने हुये अंडों के समान दुष्पाच्य शायद ही और कोई पकवान होता हो, उसमें जितना पीलापन होता है उसी की कुछ उपयुक्तता समझी जा सकती है। सफेदी वाला अंश तो हानि के अतिरिक्त और कुछ करता ही नहीं।
माँस में पाया जाने वाला प्रोटीन उन खनिजों और लवणों से रहित होता है जिनकी शरीर को नितान्त आवश्यकता रहती है। आमतौर से माँसाहारी लोग माँस पेशियाँ ही पकाकर खाते हैं उनमें खनिजों और लवणों की उपयुक्त मात्रा न होने से उस खाद्य को अपूर्ण एवं घटिया प्रोटीन वर्ग में ही सम्मिलित किया जा सकता है। माँसाहारी खाद्य विश्लेषणकर्ताओं ने उस प्रकार की आदत वालो को केवल गुर्दे, मूत्र यंत्र, हृदय, मस्तिष्क और क्लोम यंत्र खाने को कहा है और माँस-पेशियाँ न खाने की सलाह दी है। जब कि प्रचलन के अनुसार ये अवयव अस्वादिष्ट होने के कारण आमतौर से फेंक ही दिये जाते हैं।
जिन अवयवों को पुष्टिकर बताया जाता है उनमें एक और विपत्ति जुड़ी रहती है-यूरिक एसिड की अधिकता यह तत्व शरीर के भीतर जमा होकर गठिया, मूत्र रोग, रक्त विकार जैसे अनेकों रोग उत्पन्न करता है। माँस अम्ल धर्मी पदार्थ है वह आँतों में जाकर सड़न पैदा करता है। कुछ समय पहले माँस का रसा बना कर रोगियों को दिया जाता था, पर अब खाद्य विशेषज्ञों ने यह घोषित किया है कि उसमें न तो उपयुक्त मात्रा न पौष्टिक तत्व रहते हैं और न और न वह सुपाच्य ही है। उसे रोगियों को पिलाना उनके दुर्बल पेट के साथ अत्याचार करना है।
बीमारियाँ मनुष्यों में ही नहीं उन प्राणियों में भी होती है जिनका माँस खाया जाता है। बहुत बढ़िया और स्वस्थ शरीर के पशु तो कदाचित ही माँस के लिए मारे जाते हैं, आमतौर से बूढ़े, बीमार और निकम्मे पशुओं का ही वध होता है इनमें से अधिकाँश की शारीरिक स्थिति अवांछनीय होती है और उनमें अनेक प्रकार के रोग कीटाणु भरे रहते हैं। स्पष्ट है कि माँस के साथ वे भी खाने वाले के शरीर में प्रवेश करेंगे और उन्हें देर सबेर में रुग्ण बनाकर छोड़ेंगे।
प्राणिज प्रोटीन की प्रशंसा उसमें पाये जाने वाले विटामिन ‘ए’ के आधार पर की जाती है। वह तत्व दूध में भी प्रचुरता पूर्वक पाया जा सकता है। माँस की तुलना में छैना, पनीर, दही आदि कही अच्छे है।
और तो और माँस से तो सोयाबीन ही कहीं अधिक बेहतर है। उसमें कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, विटामिन ए. वी. डी. ई. वसा आदि तत्व इतने रहते हैं जितने माँस में भी नहीं होते। उसे उबाल कर, बिना उबाले पीस कर बढ़िया दूध बन सकता है। उसमें नीबू का रस डाल दिया जाय तो छैना भी बन जायेगा। उसका दही भी जमाया जा सकता है। चीन ने अपनी पौष्टिक खाद्य प्राप्त करने की समस्या का हल सोयाबीन के सहारे ही किया है। हमारे लिये भी उसका प्रचलन हर दृष्टि से उपयुक्त है। माँसाहार का स्थान सोयाबीन पूरी तरह ले सकता है। एक दिन भिगोकर फुलाया हुआ अथवा अंकुरित किया हुआ सोयाबीन तो और भी अधिक गुणकारी बन जाता है। वरन् कई दृष्टि से वह अधिक उपयुक्त भी है। दूध अन्य पदार्थों का प्रोटीन 65 प्रतिशत तक पच जाता है जबकि माँस का प्रोटीन आधा भी नहीं पच पाता है।
सामान्य दालें भी यदि फुलाकर या अंकुरित करके बिना छिलका उतारे भाप के सहारे मंदी आग पर पकाकर खाई जाये तो वे भी प्रोटीन की आवश्यकता पूरी करती हैं। दुष्पाच्य तो उन्हें हमारी त्रुटिपूर्ण पकाने की प्रक्रिया बनाती हैं जिसमें छिलके उतारना तथा तेज आग के सहारे पकाने और छोंक बधार देने मसाले तथा घी आदि भर कर स्वादिष्ट बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
पशुओं में सबसे बलवान हाथी है, उससे भी शक्तिशाली गेंडा माना जाता है। यह दोनों ही शाकाहारी हैं। यह जानते हुए भी न जाने क्यों लोग शाकाहार की शक्ति पर सन्देह करते हैं।
कलकत्ता विश्व विद्यालय के एप्लाइड केमिस्ट्री विभाग ने वृक्षों की पत्तियों तथा हरी घास से प्रोटीन निकाल कर दिल्ली के विश्व कृषि मेला में प्रदर्शित किया था और लोगों को बताया था कि मनुष्य की खाद्य आवश्यकता का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रोटीन सामान्य घास और मामूली पत्तियों में भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो सकता है और उनके आधार पर मजे में जीवित रहा जा सकता है।
हमारे पाचक रसों में बद्ध सामर्थ्य है कि अपने स्वाभाविक खाद्य पदार्थों में से वह तत्व खींचलें जो उसके लिए आवश्यक है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं कि जिन वस्तुओं की आवश्यकता है उन्हें ही खाया जाय। सुअर के शरीर में सबसे अधिक चर्बी होती है-टुम्बा मेंढ़ा की पूँछ में भी अतिरिक्त चर्बी होती है। उन बेचारों को घी, दूध, मक्खन कौन खिलाता है। सामान्य घास-पात से ही वे आवश्यक मात्रा में चर्बी प्राप्त कर लेते हैं। जो आवश्यक है उसी को भोजन द्वारा पेट में ठूँसे यदि यह बात सही रही होती तो फिर अन्धों को आंखें खिलाकर लँगड़ों को टाँगे खिलाकर, गूँगों को जीभ खिलाकर चिकित्सा की जा सकती है जिसकी हड्डियां कमजोर हों उसे हड्डियां पीस-पीसकर खिलाई जानी चाहिए। पर वैसा ही नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार माँस खाकर माँस बढ़ाने और रक्त पीकर रक्त बढ़ाने की बात सोचना भी बाल-बुद्धि का परिचायक है।
प्रोटीन की मात्रा आवश्यक रूप से हमें चाहिए सो ठीक है, पर उसके लिए हमारा शाकाहारी भोजन ही पर्याप्त है उससे उचित मात्रा में उपयुक्त स्तर को प्रोटीन हमें मिल सकती है। बलिष्ठता के सारे तत्व मनुष्य के स्वाभाविक भोजन शाकाहार में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, उन्हीं से हमें उपलब्ध करने चाहिए। इसके लिए माँसाहार जैसे माध्यम का अवलम्बन करने की आवश्यकता किसी भी प्रकार नहीं।