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Magazine - Year 1975 - Version 2

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क्या अगली शताब्दी में हमें प्यासे मरना पड़ेगा

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First 18 20 Last
संसार में एक ओर जनसंख्या की वृद्धि हो रही है दूसरी ओर कल कारखाने और उद्योग धब्बे बढ़ रहे हैं। इन दोनों ही अभिवृद्धियों के लिये पेयजल की आवश्यकता भी बढ़ती चली जा रही है। पीने के लिये, नहाने के लिये, कपड़े धोने के लिये, रसोई एवं सफाई के लिये हर व्यक्ति को-हर परिवार को पानी चाहिये। जैसे-जैसे स्तर ऊँचा उठता जाता है उसी अनुपात से यह पानी की आवश्यकता भी बढ़ती है। खाते-पीते आदमी अपने निवास स्थान में पेड़-पौधे, फल-फूल, घास-पात लगाते हैं, पशु पालते हैं, इस सबके लिये पानी की माँग और बढ़ती है। गर्मी के दिनों में तरावट और छिड़काव के लिये पानी चाहिये।

कल कारखाने निरन्तर पानी माँगते हैं। जितना बड़ा कारखाना, उतनी बड़ी पानी की माँग। भाप से चलने वाली रेलगाड़ियां तथा दूसरी मशीनें पानी की अपेक्षा करती हैं। शोधन-संशोधन ढेरों पानी लेता है। शहरों में फ्लश के पखाने, सीवर लाइनें तथा नाली आदि की सफाई के लिये अतिरिक्त पानी की जरूरत पड़ती है। कृषि और बागवानी का सारा दारोमदार ही पानी पर ठहरा हुआ है। हरियाली एवं वन सम्पदा पानी पर ही जीवित है। पशु पालन में चारा पानी अनिवार्य रूप से चाहिये। और भी न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात आधार हैं जिनके लिये पानी की निरन्तर जरूरत पड़ती रहती है।

यह सारा पानी बादलों से मिलता है। पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ-जिसके पिघलने से नदियाँ बहती हैं वस्तुतः बादलों का ही अनुदान है। सूर्य की गर्मी से समुद्र द्वारा उड़ने वाली भाप बादलों के रूप में भ्रमण करती हैं। उनकी वर्षा से नदी-नाले, कुँए, तालाब, झरने-सोते बनते हैं। उन्हीं से उपरोक्त आवश्यकताएं पूरी होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वृक्ष वनस्पतियों की-अन्न, शाक, पशु वंश की, कल कारखानों की, जो वृद्धि होती चली जा रही है उसने पानी की माँग को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा दिया है। यह माँग दिन-दिन अधिकाधिक उग्र होती चली जा रहीं है। बादलों के अनुदान से ही अब तक सारा काम चलता रहा है। सिंचाई के साधन नदी, तालाब, कुओं से ही पूरे किये जाते हैं। इनके पास जो कुछ है बादलों की ही देन हैं। स्पष्ट है कि बादलों के द्वारा जो कुछ दिया जा रहा है वह प्रस्तुत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कम पड़ता है। संसार भर में पेयजल अधिक मात्रा में प्राप्त करने की चिन्ता व्याप्त है ताकि मनुष्यों की, पशुओं की, वनस्पति की, कारखानों की आवश्यकता को पूरा करते रहना संभव बना रहे।

बादलों पर किसी का नियन्त्रण नहीं, वे जब चाहें जितना पानी बरसायें। उन्हें आवश्यकता पूरी करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। वे बरसते भी हैं तो अन्धाधुन्ध बेहिसाब। वर्षा में वे इतना पानी फैला देते हैं कि पृथ्वी पर उसका संग्रह कर सकना संभव नहीं होता और वह बहकर बड़ी मात्रा में समुद्र में जा पहुँचता है। इसके बाद शेष आठ महीने आसमान साफ रहता है। गर्मी के दिनों में तो बूंद-बूँद पानी के लिये तरसना पड़ता है। इन परिस्थितियों में मनुष्य को जल के अन्य साधन स्त्रोत तलाश करने के लिये विवश होना पड़ रहा है, अन्यथा कुछ ही दिनों में जल संकट के कारण जीवन दुर्लभ हो जायेगा। गंदगी बहाने-हरियाली उगाने और स्नान रसोई के लिये भी जब पानी कम पड़ जायेगा तो काम कैसे चलेगा? कल कारखाने किस के सहारे अपनी हलचल जारी रखेंगे?

टमेरिका की आबादी 20 करोड़ है। वहाँ कृषि एवं पशु पालन में खर्च होने वाली पानी का खर्च प्रति मनुष्य पीछे प्रतिदिन 13000 गैलन आता है। घरेलू कामों में तथा उद्योगों में खर्च होने वाला पानी भी लगभग इतना ही बैठता है। इस प्रकार वहाँ हर व्यक्ति पीछे 26 हजार गैलन पानी की नित्य जरूरत पड़ती है। यहाँ की आबादी विरल और जल स्त्रोत बहुत हैं, तो भी चिन्ता की जा रही कि आगामी शताब्दी में पानी की आवश्यकता एक संकट के रूप में सामने प्रस्तुत होगी।

भारत की आबादी अमेरिका की तुलना में ढाई गुनी अधिक है। किन्तु जल साधन नहीं कम हैं। बड़े शहरों में अकेले बम्बई को ही लें तो वहाँ की जरूरत 34 करोड़ गैलन प्रतिदिन की हैं जबकि पूरी सप्लाई कठिनाई से 22 करोड़ गैलन हो पाती है। यही दुर्दशा न्यूनाधिक मात्रा में अन्य शहरों की है। देहाती क्षेत्र में अधिकाँश कृषि उत्पादन वर्षा पर निर्भर है। जिस साल वर्षा कम होती हैं, उस साल भयंकर दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ता है। मनुष्यों और पशुओं की जान पर बन आती है। यदि इन क्षेत्रों में मानव उपार्जित जल की व्यवस्था हो सके तो खाद्य समस्या का समाधान हो सकता है।

नये जल-आधार तलाश करने में दृष्टि समुद्र की ओर ही जाती है। धरती का दो तिहाई से भी अधिक भाग समुद्र में डूबा पड़ा है। किन्तु वह है खारी। जिसका उपयोग उपरोक्त आवश्यकताओं में से किसी की भी पूर्ति नहीं कर सकता। इस खारी जल को पेय किस प्रकार बनाया जाय इसी केन्द्र पर भविष्य में मनुष्य जीवन की आशा इन दिनों केंद्रीभूत हो रही है।

इस संदर्भ में राष्ट्रसंघ में एक आयोग नियुक्त किया था जिसने संसार के 46 प्रमुख देशों में दौरा करके जल समस्या और उसके समाधान के संबंध में विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इस रिपोर्ट का साराँश राष्ट्र संघ से प्रगतिशील देशों में खारी पानी का शुद्धि करण नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है जिसमें प्रमुख सुझाव यही है कि समुद्री जल के शुद्धिकरण पर अधिकाधिक ध्यान दिया जाना चाहियें। यों वर्षा के जल को समुद्र में जाने से रोकने के लिये तथा जमीन की गहराई में बहने वाली अदृश्य नदियों का पानी ऊपर खींच लाने को भी महत्व दिया गया है और कहा गया है कि बादलों के अनुदान तथा पर्वतीय बर्फ के रूप में जो जल मिलता है उसका भी अधिक सावधानी के साथ दुरुपयोग किया जाना चाहिये।

उत्तर और दक्षिण ध्रुव प्रदेशों के निकटवर्ती देशों के लिये एक योजना यह है कि उधर समुद्र में सैर करते फिरने वाले हिम पर्वतों को पकड़ कर पेय जल की आवश्यकता पूरी की जाये तो यह अपेक्षाकृत सस्ता पड़ेगा ओर सुगम रहेगा। संसार भर में जितना पेयजल है उसका 80 प्रतिशत भाग ध्रुव प्रदेश ऐन्टार्कटिक के हिमावरण, आइस कैंप-में बंधा पड़ा है। इस क्षेत्र में बर्फ के विशालकाय खण्ड अलग होकर समुद्र में तैरने लगते हैं और अपना आकार हिम द्वीप जैसा बना लेते हैं। वे समुद्री लहरों और हवा के दबाव से इधर उधर सैर सपाटे करते रहते हैं। दक्षिण ध्रुव के हिम पर्वतों को गिरफ्तार करके दक्षिण अमेरिका-आस्ट्रेलिया और अफ्रीका में पानी की आवश्यकता पूरी करने के लिये खींच लाया जा सकता है। इसी प्रकार उत्तरी ध्रुव के हिम पर्वत एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। यद्यपि उसमें संख्या कम मिलेगा।

अमेरिका के हिम विज्ञानी डा0 विलियम कैम्बेल और डा0 विर्ल्फड वीकंस ने इसी प्रयोजन के लिये कैम्ब्रिज इंग्लैण्ड में बुलाई गई एक अर्न्राष्ट्रीय गोष्टी इन्टर नेशनल सिम्पोजियम आन दि हाइड्रोलाजी आफ ग्लेशियर-में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए कहा था-हिम पर्वतों को पकड़ने की योजना को महत्व दिया जाना चाहिये ताकि पेयजल की समस्या को एक हद तक सस्ता समाधान मिल सके।

भू उपग्रहों की सहायता से फोटो लेकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस क्षेत्र में कैसे ओर कितने हिम पर्वत भ्रमण कर रहे हैं। इन पर्वतों का 83 प्रतिशत सतह से ऊपर दिखाई पड़ता है। इन्हें पाँच हजार मील तक घसीट कर लाया जा सकता है। इतना सफर करने में उन्हें चार-पाँच महीने लग सकते हैं।

ढुलाई का खर्चा और सफर की अवधि में अपेक्षाकृत गर्म वातावरण में बर्फ का पिघलने लगना यह दो कारण यद्यपि चिन्ताजनक हैं तो भी कुल मिलाकर यह पानी उससे सस्ता ही पड़ेगा जितना कि हम जमीन पर रहने वालों को औसत हिसाब से उपलब्ध होता है।

हिसाब लगाया गया है कि ऐमेरी से आस्ट्रेलिया तक ढोकर लाया गया हिम पर्वत दो तिहाई गल जायेगा और एक तिहाई शेष रहेगा। रास से दक्षिण अमेरिका तक घसीटा गया हिम पर्वत 14 प्रतिशत ही शेष रहेगा। धीमी चाल से घसीटना अधिक लाभदायक समझा गया है ताकि लहरों का प्रतिरोध कम पड़ने से बर्फ की बर्बादी अधिक न होने पाये। 7-8 हजार हार्सपावर का एक टग जलयान आधा नाट की चाल से उसे आसानी साथ घसीट सकता है। अपने बन्दरगाह से चलकर हिमपर्वत तक पहुँचने और वापिस आने में जो खर्च आवेगा और फिर उस बर्फ को पिघलाकर पेयजल बनाने में जो लागत लगेगी वह उसकी अपेक्षा सस्ती ही पड़ेगी जो म्युनिसपेलिटियाँ अपने परम्परागत साधनों से जल प्राप्त करने में खर्च करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि बर्फ का जल डिस्टिल्डवार स्तर का होने के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी, स्वच्छ और हानिकारक तत्वों से सर्वथा रहित होगा। उसके स्तर को देखते हुए यदि लागत कुछ अधिक भी बैठती हो तो भी उसे प्रसन्नता पूर्वक सहन किया जा सकता है।

दूसरा उपाय यह सोचा गया है कि समुद्र किनारे अत्यन्त विशालकाय अणु भट्टियां लगाई जाये उनकी गर्मी से कृत्रिम बादल उत्पन्न किये जायें उन्हें ठण्डा करके कृत्रिम नदियाँ बहाई जायें, उन्हें रोक बाँधकर पेयजल की समस्या हल की जाय।

तीसरा उपाय यह है कि वर्षा का जल नदियों में होकर समुद्र में पहुँचता है उसे बाँधों द्वारा रोक लिया जाये और फिर उनसे पेयजल की समस्या हल की जाये।

दूसरे और तीसरे नम्बर के उपाय जोखिम भरे हैं। अत्यधिक गर्मी पाकर समुद्री जलचर मर जायेंगे, तटवर्ती क्षेत्रों का मौसम गरम हो उठेगा और ध्रुव प्रदेशों तक उस गर्मी का असर पहुँचने से जल प्रलय उत्पन्न होगी और धरती का बहुत बड़ा भाग जलमग्न हो जायेगा। इतनी बड़ी अणु भट्टियां अपने विकिरण से और भी न जाने क्या क्या उपद्रव खड़े करेंगी। तीसरे उपाय से यह खतरा है कि जब समुद्रों में नदियों का पानी पहुंचेगा ही नहीं तो वे सूखने लगेंगे। खारापन बढ़ेगा और उस भारी पानी से बादल उठने ही बंद हो जायेंगे। तब नदियों का पानी रोकने से भी क्या काम चला। ध्रुवों के घुमक्कड़ हिम द्वीप भी बहुत दूर तक नहीं जा सकते उनका लाभ वे ही देश उठा सकेंगे जो वहाँ से बहुत ज्यादा दूर नहीं हैं।

उपरोक्त सभी उपाय अनिश्चित एवं अधूरे है। पर इससे क्या? पेयजल की बढ़ती हुई माँग तो पूरी करनी ही पड़ेगी अन्यथा पीने के लिये, कृषि के लिये कारखानों के लिये, सफाई के लिये भारी कमी पड़ेगी और उस अवरोध के कारण उत्पादन और सफाई की समस्या जटिल हो जाने से मनुष्य भूख, गन्दगी और बीमारी से त्रस्त होकर बेमौत मरेंगे।

यह सारी समस्याएं बढ़ती हुई आबादी पैदा कर रही है। मनुष्य में यदि दूरदर्शिता होती तो वह जनसंख्या बढ़ाने की विभीषिका अनुभव करता और उससे अपना हाथ रोकता, पर आज तो न यह होता दीखता है और न पेयजल का प्रश्न सुलझता प्रतीत होता है। मनुष्य को अपनी वज्र मूर्खता का सर्वनाशी दण्ड आज नहीं तो कल भुगतना ही पड़ेगा। अनुमान है कि यह विषम परिस्थिति अगली शताब्दी के अन्त तक संसार के सामने आ उपस्थित होगी।

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