
सूर्य चन्द्र ग्रहण और उनमें सन्निहित तथ्य
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गणित शास्त्र के कुछ अजूबे हैं जिनके कारण कई पद्धतियां अपनाकर भी एक ही निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है। एक स्थान तक पहुँचने के कई रास्ते हो सकते हैं और उनके बीच में पड़ने वाले स्थानों के नाम रूप स्वभावतः भिन्न होंगे फिर भी निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचना उनमें से किसी भी मार्ग से हो सकता है। यही बात धर्मों के संबंध में भी हैं वे रास्तों की तरह है जो भिन्न होते हुए भी हमें संयम और उदारता के कदम बढ़ाते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता करते हैं। आवश्यक नहीं इन धर्म मान्यताओं के ढाँचे में एकरूपता हो, प्रतिपादनों की भिन्नता होते हुए भी एक ही निष्कर्ष पर पहुँच सकना पूर्णतया संभव है।
उदाहरण के लिये ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के संबंध में भूतकालीन और अर्वाचीन मान्यताओं को लिया जा सकता है, उनमें भारी अन्तर है तो भी निष्कर्ष निकालने का जहाँ तक संबंध है उसमें कोई अन्तर नहीं आता। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण की भविष्यवाणी आज की तरह भूतकाल में भी की जाती थी और वह अब की तरह तब भी पूर्णतया सही होती थी। ज्योतिष संबंधी प्राचीन मान्यताएं अब झुठला दी गई हैं और यह प्रामाणित कर दिया गया है कि भूतकालीन ज्योतिषों की मान्यताएं अबकी अपेक्षा भिन्न प्रकार की थीं। इतने पर भी उस खण्डन से कोई अन्तर नहीं पड़ा। प्राचीन ज्योतिष के आधार पर भी ग्रहण समय संबंधी निष्कर्ष अभी भी जहाँ के तहाँ हैं और वे तब की तरह अब भी सही है।
भारतीय ज्योतिष आज के खगोल विज्ञान के साथ तालमेल नहीं खाती। फिर भी ग्रहण संबंधी उसकी परिणति सही निकल आती है।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार सूर्य ही पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है। जैसा कि चन्द्रमा लगाता है।
पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने वाले नौ ग्रहों में से सूर्य भी एक है।
यह मान्यता वर्तमान खगोल विज्ञान से भिन्न हैं फिर भी उसका निष्कर्ष ग्रहण के संदर्भ में ठीक बैठ जाता है। इसका कारण यह है कि सूर्य को स्थिर और पृथ्वी को चल अथवा पृथ्वी को स्थिर और सूर्य को चल मानकर चलने में परिणामतः कोई अन्तर नहीं आता। चलती रेल में बैठकर देखने से पेड़ पीछे को भागते प्रतीत होते हैं। यह पेड़ों के पीछे भागने की गति वही होती है जो रेलगाड़ी के आगे दौड़ने की। चूंकि पृथ्वी 24 घंटे में 360॰ चलती है यदि इसी बात को सूर्य का 24 घण्टे में 360॰ चलना कहा जाये तो भी परिणाम वही रहेगा।
पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक पूरा चक्कर लगाती है। भिन्न-भिन्न अक्षाँशों पर उसकी गति भिन्न रहती है। विषवत् रेखा पर यह गति 1040 मील प्रति घंटा 30 अक्षाँश पर यह गति 900 मील 45 अक्षाँश पर 735 मील और 60 अक्षाँश पर 520 मील प्रति घण्टा रहती है। पृथ्वी की दूसरी गति सूर्य की परिक्रमा है। जिसमें 185 मील प्रति सेकेंड की गति से उसे 365 दिन लगते हैं। वस्तुतः इस अवधि की ठीक गणना की जाय तो वह 365 दिन 5 घंटा 48 मिनट और 41 सेकेंड से कुछ कम होती है। पृथ्वी की धुरी जिसके चारों ओर वह प्रतिदिन घूमती है अपने परिक्रमा पथ के समकोण नहीं हैं वरन् 62.5 झुकी हुई।
आकाश में सूर्य का मार्ग 16 चौड़ा है जिसमें सूर्य चन्द्र तथा अन्य ग्रह चलते दिखाई देते हैं। आकाश इस मार्ग को-जोडिएक कहा जाता है। इसे पहचान के लिये उसे 12 भागों में विभाजित किया गया है जिन राशियाँ कहते हैं। प्रत्येक राशि 30 की होती है। सभी को एक राशि से दूसरी में प्रवेश करने में दो घण्टे लगाती है। जाते हैं। इन राशियों को मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन नाम दिये गये हैं वह सर्वविदित हैं।
घूमता हुआ लट्टू जब गिरने को होता है तो अपनी कीली पर घूमता हुआ लड़खड़ाने लगता है, उसकी कीली भी घूमने लगती है, पृथ्वी की कीली भी अपनी कटि पर इसी प्रकार घूमती रहती हैं। यदि इसकी कीली को आकाश में बहुत ऊँचे तक बढ़ाया जाय तो वह वहाँ पर एक अलग गोल चक्कर बना देगी। यह पृथ्वी की एक विशेष गति है जिसका ज्ञान भूगोल सामान्य विद्यार्थियों को नहीं होता। इस पूरे चक्कर के पूरा होने में 26000 वर्ष लगते हैं। पृथ्वी की इस गति का ग्रहणों के क्रम पर भी प्रभाव पड़ता है।
चन्द्रमा 29 दिन 7 घण्टे 43 मिनट 11 5 सेकेंड में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूरी करता है इसे नक्षत्र मास कहते हैं। इस अवधि में चन्द्रमा अपनी एक परिक्रमा पूरी करके यथास्थान आ जाता है। किन्तु इस बीच पृथ्वी अपनी वार्षिक परिक्रमा में काफी आगे बढ़ जाती है। पृथ्वी के मान से चन्द्र को एक परिक्रमा पूरी करने के लिए और आगे बढ़ना पड़ता है। इस तरह उसे कुल 26 दिन 12 घण्टे 44 मिनट 28 सेकेंड लग जाते हैं। इस अवधि को संयुुति मास कहते हैं।
यदि पृथ्वी और चन्द्रमा के वृत्त एक ही तल पर होते तो प्रत्येक पूर्णिमा को चन्द्र ग्रहण और प्रत्येक अमावस्या को सूर्य ग्रहण दिखाई देता। जब चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करना होता है तो उसका वृत्त अन्तरिक्ष में उसके समानांतर रहता है। उन वृत्तों को काटने वाली रेखा वर्ष में कम से कम दो दो बार सूर्य के केन्द्र की दिशा की और इंगित करती है और तब सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी एक सीधी रेखा में हो जाते हैं यही ग्रहण का अवसर होता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि वर्ष में कम से कम दो ग्रहण जो दोनों सूर्य के भी हो सकते हैं अवश्य ही पृथ्वी के किसी न किसी भाग में दिखाई देंगे। वर्ष में ग्रहणों की अधिकतम संख्या 7 है जिनमें 4-5 सूर्य के और शेष चन्द्रमा के होते हैं।
चन्द्रमा पृथ्वी से अधिकतम 2,53,0000 और न्यूनतम 2,21,600 मील दूर रहता है। जब वह पृथ्वी के निकट होता है तो चाल बढ़ जाती है, दूर होता है तो घट जाती है।
पृथ्वी और चन्द्रमा में अपना कोई प्रकाश नहीं होता है। सूर्य द्वारा पाये प्रकाश से ही वे चमकते हैं। पृथ्वी, चन्द्र और सूर्य की अपनी-अपनी अनोखी चालें है। इस चला−चली में वे जब एक ही, एक समतल पर सीधी रेखा में आ जाते हैं तब ग्रहण पड़ता है। जब बीच में चन्द्रमा हो तो पृथ्वी पर से पूरे सूर्य को नहीं देखा जा सकता। सूर्य का जितना हिस्सा चन्द्रमा के बीच में आने से पृथ्वी पर से नहीं दीखता वह सूर्य ग्रहण होता है। इसी तरह जब पृथ्वी बीच में हो तो सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा के उतने क्षेत्र में पड़ने से रोक देता है यही चन्द्र ग्रहण है। चन्द्र ग्रहण के समय यदि कोई व्यक्ति चन्द्रमा पर हो तो उसे उस समय सूर्य ग्रहण दिखाई देगा।
भारतीय ज्योतिष में चन्द्रमा की छाया को केतु और पृथ्वी की छाया को राहु कहा गया है। यह छाया भी अपने ग्रहों के अनुसार सही गति से नियमबद्ध रूप से भ्रमण करती हैं इसलिए नवग्रहों में उन्हीं भी सम्मिलित कर लिया गया है।
चूंकि चन्द्रमा की गति प्रति घण्टा उसके व्यास के बराबर 2100 मील है। अतः खग्रास अधिक से अधिक दो घंटे का हो सकता है। इसके अतिरिक्त स्पर्श से लेकर मोक्ष तक में एक घण्टा और भी लग सकता है।
ग्रहण सम्बन्धी अब के प्रतिपादन ऊपर दिये गये हैं। प्राचीन काल में राहु और केतु के आक्रमण को चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का कारण माना गया था। पृथ्वी और सूर्य में से कौन स्थिर और कौन चल है इस विषय पर भी मान्यताएँ बदलती रहती है। धर्म और दर्शन भी इसी प्रकार अपने कई रूप बदलता रहा है पर इससे उस लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं आता जो जीवन की पूर्णता का केन्द्र बिन्दु हैं।
ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी की तरह सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी की भी स्थिति है। उनकी गतिशीलता स्वतन्त्र रीति से चलता है। जब कभी व्यतिक्रम होता है तो ग्रहण पड़ता है। भावना, विचारणा और क्रिया का व्यतिक्रम भी मनुष्य जीवन पर ग्रहण जैसा कलंक लगा देता है।
औसतन प्रत्येक शताब्दी में प्रायः 154 चन्द्र ग्रहण और 237 सूर्य ग्रहण होते हैं। पर इनका कोई सुनिश्चित क्रम नहीं रहता। इस निश्चितता के कारण ही उनके सम्बन्ध में तरह-तरह के अनुमान लगाये जाते थे।
ईसा से हजारों वर्ष पूर्व भारतीय ज्योतिषियों ने ग्रहणों की प्रत्यावर्तन अवधि जान ली थी। इसे चान्द्र चक्र कहा जाता था। इस चक्र का एक घेरा 6581 1/3 दिन निश्चित किया गया था। इसका अर्थ यह था कि यदि आज कोई ग्रहण हुआ हो तो ठीक 6585 दिन बाद वही ग्रहण होगा। चूँकि पृथ्वी चन्द्र और सूर्य की गतियाँ भिन्न है उनमें सदा कुछ न कुछ अन्तर पड़ता ही रहता है इस लिए ग्रहण का भी उद्देश्य व दिन ठीक उसी प्रकार उतना ही होना तो सम्भव नहीं पर बहुत कुछ तालमेल खा जाता है और इतने दिन बाद ग्रहणों की पुनरावृत्ति वाली बात बन जाती हैं।
प्रकृति चक्र अपनी धुरी पर घूमता है। दिन के बाद रात-रात के बाद दिन। जन्म के बाद मरण-के बाद जन्म यह परिवर्तन का एक सुनिश्चित क्रम है। सुख और दुख भी इसी प्रकार आते जाते रहते हैं। इस परिवर्तन प्रक्रिया के गोलाकार चक्र का संकेत ग्रहणों का चक्र फिर पूर्ववत् चल पड़ता है। जब श्रेष्ठ परिस्थिति चली गई और उनके स्थान पर निकृष्टता की निशा आसीन हो गई तो कोई कारण नहीं कि फिर उत्कर्ष की अरुणिमा ऊषा का उदय न हो। हमारा भविष्य उज्ज्वल बनाने में काल चक्र अपनी भूमिका सम्पादित कर ही रहा है।